भारत का विभाजन

हिंदुस्तान की आज़ादी से पहले हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाए रखने के लिए जमाअत अहमदिया के प्रयास

देश से प्रेम, वफ़ादारी और सरकार से आज्ञापालन के बारे में जमाअत अहमदिया की शिक्षाएं

1946

1947

1948

अहमदिया मुस्लिम जमाअत कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है यह एक आध्यात्मिक जमाअत है जिस ने सदैव ही सहिष्णुता, शांति और भाईचारे को स्थापित रखने के प्रयास किए हैं। लेकिन जो लोग एतिहासिक वास्तविकताओं से परिचित नहीं हैं वे समझते हैं कि जमाअत अहमदिया हिंदुस्तान के बँटवारे की ज़िम्मेदार है।

25 December 2020

यद्यपि हिंदुस्तान का बँटवारा एक ऐसा मुद्दा बन चुका है कि विभिन्न राजनीतिक संगठन और विभिन्न मत रखने वाले भी एक-दूसरे को इस का दोषी ठहराते हुए अपने-अपने निजी स्वार्थों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं इस सन्दर्भ से अहमदिया मुस्लिम जमाअत जो एक अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील, शांतिप्रिय और आध्यात्मिक जमाअत है, को भी हिंदुस्तान के बंटवारे के मामले में आरोपी ठहराया जाता है जबकि वास्तविकताएं इस के विरुद्ध हैं।

हिन्दू-मुस्लिम का पारस्परिक चोली-दामन का साथ हो रहा है

जमाअत अहमदिया के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब क़ादियानी मसीह मौऊद व महदी मौहूद अलैहिस्सलाम ने अपने देहांत से कुछ दिन पहले पुस्तक “पैग़ाम-ए-सुलह (मैत्री-सन्देश)” लिखी। इस में आप अलैहिस्सलाम ने अपनी अंतिम वसीयत के रूप में हिंदुस्तान की दो बड़ी क़ौमों हिन्दुओं और मुसलमानों को परस्पर मित्रता और सहिष्णुता उत्पन्न करने की एक दर्दभरी अपील की।

आप अपनी इस पुस्तक में फ़रमाते हैं :

“हे मेरे देशवासी भाइयो! यह संक्षिप्त पत्रिका जिसका नाम है पैग़ाम-ए-सुलह (मैत्री-सन्देश) आदरपूर्वक आप सब सज्जनों की सेवा में प्रस्तुत की जाती है और हार्दिक सच्चाई के साथ दुआ की जाती है कि वह शक्तिमान ख़ुदा आप लोगों के दिलों में स्वयं इल्हाम करे और हमारी हमदर्दी का राज़ आप के दिलों पर खोल दे ताकि आप इस मित्रवत् उपहार को किसी विशेष उद्देश्य और स्वार्थ पर आधारित न समझें। प्रियजनो! यह बात किसी पर गुप्त नहीं कि एकता एक ऐसी बात है कि वे विपत्तियाँ जो किसी प्रकार से दूर नहीं हो सकतीं और वे संकट जो किसी उपाय से हल नहीं हो सकते वे एकता से हल हो जाती हैं। अत: एक बुद्धिमान से दूर है कि एकता की बरकतों से स्वयं को वंचित रखे।

हिन्दू तथा मुसलमान इस देश में दो ऐसी क़ौमें हैं कि यह एक असंभव विचार है कि किसी समय जैसे हिन्दू एकत्र होकर मुसलमानों को इस देश से बाहर निकाल देंगे या मुसलमान एकत्र होकर हिन्दुओं को देश से निष्कासित कर देंगे अपितु अब तो हिन्दू-मुसलमान का परस्पर चोली-दामन का साथ हो रहा है। यदि एक पर कोई संकट आए तो दूसरा भी उसमें भागीदार हो जाएगा और यदि एक क़ौम दूसरी क़ौम को मात्र अपने व्यक्तिगत अभिमान और अहंकार से तिरस्कृत करना चाहेगी तो वह भी तिरस्कार से सुरक्षित नहीं रहेगी और यदि उनमें से कोई अपने पड़ोसी के साथ सहानुभूति करने में असमर्थ रहेगा तो उसकी हानि वह स्वयं भी उठाएगा। जो व्यक्ति तुम दोनों क़ौमों में से दूसरी क़ौम के विनाश की चिन्ता में है उसका उदाहरण उस व्यक्ति के समान है जो एक टहनी पर बैठ कर उसी को काटता है। आप लोग अल्लाह तआला की कृपा से शिक्षित भी हो गए अब वैर को त्याग कर प्रेम में उन्नति करना शोभनीय है और निर्दयता को त्याग कर सहानुभूति धारण करना आप की बुद्धिमत्ता के यथायोग्य है। संसार के संकट भी एक रेगिस्तान की यात्रा है कि जो बिल्कुल गर्मी और भीषण धूप के समय की जाती है। अतः इस दुर्गम मार्ग के लिए आपसी सहमति के उस शीतल जल की आवश्यकता है जो इस जलती हुई आग को शीतल कर दे और प्यास के समय मरने से बचाए। ऐसे संवेदनशील समय में यह लेखक आपको सुलह (मैत्री) के लिए बुलाता है।” (पैग़ाम-ए-सुलह पृष्ठ-7-8)

अतः जमाअत अहमदिया ने संस्थापक जमाअत अहमदिया हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहब क़ादियानी मसीह मौऊद व महदी मौहूद अलैहिस्सलाम के इस आदेश का पालन करते हुए सदैव ही सहिष्णुता, शांति, पारस्परिक भाईचारा और एकता का झंडा ऊंचा किया और सदैव उपद्रव के विरुद्ध आवाज़ उठाई है।

जब भी दोनों क़ौमों में मतभेद की कोई अवस्था उत्पन्न हुई तो जमाअत अहमदिया के ख़ुलफ़ा-ए-किराम ने अपने ख़ुत्बों (भाषणों) में नसीहतों के द्वारा, लिखित संदेशों के माध्यम से और फिर दोनों क़ौमों के लीडरों से मुलाक़ात कर के हर प्रकार से ये प्रयास किए कि पारस्परिक मतभेद दूर हों।

हिंदुस्तान की आज़ादी की तमन्ना के साथ हिन्दू-मुस्लिम एकता की इच्छा का प्रदर्शन

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीय ने बहुत पहले यह भांपते हुए कि हिंदुस्तान की आज़ादी का समय निकट है और यह समय ऐसा है कि हिन्दू और मुसलमान अपने पारस्परिक मतभेद दूर कर दें। आपरज़ि॰ ने यह घोषणा की कि :

“मैं अपने देशवासियों से कहता हूँ कि इस संवेदनशील अवसर पर अपने हृदयों को घृणा और द्वेष से ख़ाली कर दो चाहे यह भावनाएं देखने में मीठी दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में इन से अधिक कठोर और कष्टदायक कोई चीज़ नहीं। घटनाएं यह बता रही हैं कि हिंदुस्तान की आज़ादी का समय आ गया है। ख़ुदा तआला हृदयों में एक नई रूह फूंक रहा है। अंधकार के बादलों के पीछे से आशा की बिजली बार-बार चमक रही है। चाहे आने वाले प्रत्येक क्षण का अन्धकार पहले अन्धकार से कितना ही अधिक क्यों न हो हर बाद में प्रदर्शित होने वाला प्रकाश भी पहले प्रकाश से बहुत अधिक प्रकाशमयी होता है। और ख़ुदा तआला के इरादे का प्रदर्शन कर देता है।

अतः अपने द्वेष और घृणा से ख़ुदा तआला की दया को क्रोध में न बदलो और उसकी कृपा को उसके प्रकोप में परिवर्तित न करो कि वह ज़िद्दी और हठ धर्म और सच्चाई के इनकारी को घृणा से देखता है………अत्याचार जिस प्रकार एक अंग्रेज़ के हाथ से बुरा है वैसा ही एक हिन्दुस्तानी के हाथ से भी बुरा है।

अतः आप विनम्रता और प्रेम पूर्वक एक ऐसे निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करें कि जो हृदयों के मैल और द्वेष को धो दे और एक ऐसी हुकूमत की स्थापना करें जो प्रेम और एकता का एक नवीन दौर आरंभ करने वाली हो। स्मरण रखें कि दुनिया एक शरीर है और समस्त देश इस के अंग हैं………अतः ऐसे माध्यम अपनाओ कि उच्चतम और दृढ़ता पूर्वक हिंदुस्तान भी इस अंतर्राष्ट्रीय एकता की स्थापना में एक संपूर्ण लेकिन संलग्न ईंट हो।”

(अनवारुल अलूम जिल्द 11 पृष्ठ 247-248)

हिन्दू और मुसलमान आपस में एक हो जाएं

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ ने 14 नवम्बर 1923 ई० को लाहौर के ब्रेडला हाल में हिन्दुओं और मुसलमानों के एक बहुत बड़े सम्मेलन में एक पब्लिक भाषण दिया जिस में आप ने कहा कि वर्तमान समस्याओं का हल यही है कि हिन्दू और मुसलमान आपस में एक हो जाएं और आप ने मार्गदर्शकीय सिद्धांत वर्णन किए जिन का पालन कर के हिन्दू और मुसलमान आपस में एक हो कर रह सकते हैं। हुज़ूररज़ि॰ ने वर्णन किया कि:

 कुछ लोग हमारे बारे में यह विचार रखते हैं कि हम उपद्रव का कारण हैं और हम एकता और सहमती में रोक डालते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि हम से अधिक उपद्रव का कोई दुश्मन नहीं है और हमारे दिल से उपद्रव से अधिक कोई चीज़ दूर नहीं है। हम जिस चीज़ को बुरा समझते हैं, वह है जिसके कारण उपद्रव उत्पन्न होता है अन्यथा जिन बातों के संबंध में हम यह समझते हैं कि अपने देश और वतन के लिए लाभदायक है उसके लिए प्रत्येक प्रकार की क़ुर्बानियां करने और हर प्रकार का कष्ट उठाने के लिए लब्बैक (मैं उपस्थित हूँ) कहने को हम तैयार हैं।

(अनवारुल अलूम जिल्द 7 पृष्ठ 297)

धार्मिक मतभेदों के कारण संबंध और सदव्यवहार समाप्त नहीं हो जाता

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीय ने फ़रमाया कि हिन्दू और मुसलमानों का धार्मिक मतभेद अपने स्थान पर है इस कारणवश दुनियावी मामलों में एकता होना रोक नहीं है। आप ने दोनों क़ौमों को नासीहत करते हुए फ़रमाया :

“धार्मिक मतभेदों के कारणवश संबंध और सद्व्यवहार समाप्त नहीं हो जाता…..मुसलमानों की ओर से यह नहीं कहा जा सकता कि क्योंकि हमें उन से धार्मिक मतभेद है इसलिए हम उन से दुनियावी मामलों के बारे में सहमती नहीं रख सकते और इस बारे में हमारी उन से सुलह नहीं हो सकती क्योंकि कोई धर्म भी यह नहीं कहेगा कि दुनियावी मामलों में दूसरे धर्मों के लोगों से एकता न रखो अपितु उन से लड़ते झगड़ते रहो। यह बात स्वभाव के विरुद्ध है जो धर्म यह शिक्षा देगा उसको लोग छोड़ देंगे परन्तु उसकी यह बात न मानेंगे।

अतः जब धार्मिक मतभेद दुनयावी मामलों में एकता के विरुद्ध नहीं और न रोक है तो प्रश्न होता है कि फिर क्यों हिन्दुओं और मुसलमानों में मतभेद है। एक ओर तो दुनियावी आवश्यकताएं उनको विवश करती हैं कि आपस में एकता और सहमती रखें और मिल कर रहें और दूसरी ओर प्रत्येक धर्म यह कहता है कि एक-दूसरे के भाई बन कर रहो तो क्यों उन में झगड़े होते हैं और क्यों उनकी एकता बनी नहीं रहती।

(अनवारुल उलूम जिल्द  7, पैग़ाम-ए-सुलह पृष्ठ-301)

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीय ने अपने इस भाषण के द्वारा स्पष्ट शब्दों में वे मार्गदर्शकीय सिद्धांत वर्णन किए कि हिन्दू और मुसलमान किस प्रकार एक-दूसरे के अधिकारों का समर्थन करते हुए और एक दूसरे के धर्मों का सम्मान करते हुए हिंदुस्तान में शांति से रह सकते हैं।

हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता के संबंध को बढ़ावा देने के संकल्प

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ ने पूरा प्रयास किया कि मुसलमान और हिन्दू लीडरों में आपसी सुलह हो जाए। और उस समय की अंग्रेज़ी हुकूमत को भी यह ध्यान दिलाया कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के बिना हिंदुस्तान में ठीक प्रकार से जनतंत्र हुकूमत स्थापित नहीं हो सकती।

हिंदुस्तान में स्वराज (Self Governance) की बढ़ती हुई आवाज़ को दृष्टिगत रखते हुए इंग्लैंड में 1930 ई० में गोल मेज़ कांफ्रेंस आयोजित हुई। जहाँ हिंदुस्तान में संविधान के सुधार और हिंदुस्तान की हुकूमत की सयासी क्रमागत उन्नति के विषय पर चर्चा के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दू और मुसलमान लीडरों को आमंत्रित किया।

इस अवसर पर सय्यदना हज़रत मुस्लेह मौऊदरज़ि॰ ने एक ज़बरदस्त लेख “हिंदुस्तान के मौजूदा सियासी मसलों का हल”  लिखा और विमान के माध्यम से ठीक इस कांफ्रेंस के अवसर पर पहुंचवाने का प्रबंध किया ताकि इस कांफ्रेंस में सम्मिलित हो रहे प्रतिनिधित्वों और ब्रिटिश सरकार का उच्च ढंग से मार्गदर्शन हो।

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ ने इस लेख में हिंदुस्तान की राजनीतिक समस्या का अत्यंत बौधिक और संतोषजनक हल प्रस्तुत किया। इस लेख में हुज़ूर ने बड़े ही विस्तृत रूप में इस बात की अभिव्यक्ति की कि हिंदुस्तान की उच्च राजनीतिक क्रमागत उन्नति में सबसे बड़ी समस्या यही है कि आज़ाद हिंदुस्तान में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति होनी चाहिए और उनके अधिकारों की सुरक्षा किस प्रकार की जा सकती है। हुज़ूर की शांति स्थापना की हार्दिक इच्छा का प्रकटन हुज़ूर के इन शब्दों से होता है जो आप ने नसीहत के रूप में अपने उपरोक्त लिखित लेख के अंत पर समस्त प्रमुख लीडरों को संबोधित कर के कहा:

“मैं समस्त राउंड टेबल के सदस्यों, पार्लिमेंट के सदस्यों और हिंदुस्तान और इंग्लैंड के प्रतिष्ठित लोगों से निवेदन करता हूँ कि एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी की पूर्णता अल्लाह तआला ने उन को सौंपी है। अतः समस्त प्रकार की घृणाओं से  ऊपर उठ कर इस कार्य को करने का प्रयास करें ताकि भविष्य में आने वाली पीढ़ियाँ उनके नाम को याद रखें और उनके निर्णयों से सुख प्राप्त करने वालों की दुआएं उनको हमेशा पहुँचती रहें और सबसे बड़ कर यह कि वे ख़ुदा तआला की कृपा के पात्र हो जाएँ।

Round Table Conference

स्वार्थपरायणता अस्थायी मामलों में भी बुरी है परन्तु वे निर्णय जिनका प्रभाव संभवतः सैंकड़ों हज़ारों वर्षों तक स्थापित रहना है और अरबों मनुष्यों पर पड़ना है उन पर पहुँचते समय निजी मन-मुटाव या सांसारिक लाभों की ओर झुकना एक बहुत बड़ा अत्याचार है। अल्लाह तआला आप लोगों की नीयतों को पवित्र और इरादों को उच्च और बुद्धि को तेज़ करे और इस सभा और इस सभा के परिणाम स्वरूप होने वाले निर्णयों को हिंदुस्तान और इंग्लैंड और हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य एकता का संबंध उत्पन्न करने का कारण बनाए ताकि हम सब ख़ुदा तआला की ज़िम्मेदारियों से भी और अपने समकालीनों और अपनी भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की ज़िम्मेदारियों से भी सम्मान के साथ जाने वालों हों……”

(अनवारुल उलूम जिल्द 11 पृष्ठ 493 से  494)

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ के इस लेख को बहुत ही लोकप्रियता प्राप्त हुई। और अधिकतर मार्गदर्शकों की ओर से हुज़ूररज़ि॰ के प्रयासों की सराहना की गई।

हिंदुस्तान की प्रत्येक क़ौम को सुलह का निमंत्रण

द्वितीय गोल मेज़ कांफ्रेंस जिस में कांग्रेस भी सम्मिलित हुई थी और इस कांफ्रेंस से काफी आशाएं थीं, में हज़रत चौधरी मुहम्मद सर ज़फ़रुल्लाह ख़ान साहबरज़ि॰ ने कांग्रेस और मुस्लिम मंडल के मध्य सुलह उत्पन्न करने का प्रयास किया। परन्तु खेद इन समस्त प्रयासों के बावजूद दोनों पक्षों में सुलह न हो सकी।

हिंदुस्तान की आज़ादी के सिलसिले में सर्टीफ़ोर्ड क्रिप्स (क्रिप्स मिशन) की असफ़लता के बाद हिंदुस्तान और इंग्लैंड के मध्य एक ज़बरदस्त फ़ासला आ चुका था। और ऐसा लग रहा था कि अब हिंदुस्तान और इंग्लैड के मध्य सुलह की कोई परिस्थित उत्पन्न नहीं हो सकती। इस अवसर पर हज़रत मुस्लेह मौऊदरज़ि॰ ने अपने इल्हामों और रोया (तन्द्रावस्था) और कश्फ़ों (स्वप्नों) के आधार पर हिंदुस्तान और इंग्लैड को परस्पर समझौता और सुलह करने की ज़बरदस्त तहरीक की। अतः आप ने क़ादियान से यह घोषणा की कि:-

समय गया है कि इंग्लैंड, ब्रिटिश एम्पायर के दूसरे देश विशेष रूप से हिंदुस्तान के साथ अधिक से अधिक मेलजोल रखे और उसके साथ सुलह करने के लिए पुराने झगड़ों को भुला दे। और दोनों मिल कर दुनिया में भविष्य की प्रगतियों और शांति की बुनियादों को दृढ़ करें। हे इंग्लिस्तान! तेरा लाभ हिंदुस्तान से सुलह करने में है……दूसरी ओर मैं हिंदुस्तान को यही नसीहत करता हूँ कि वह भी इंग्लिस्तान के साथ अपने पुराने मतभेद भुला दे।

मैं अपनी ओर से दुनिया को सुलह का संदेश देता हूँ। मैं इंग्लिस्तान को निमंत्रण देता हूँ कि आओ और हिंदुस्तान से सुलह कर लो और मैं हिंदुस्तान को निमंत्रण देता हूँ कि जाओ इंग्लिस्तान से सुलह कर लो और मैं हिंदुस्तान की प्रत्येक क़ौम को निमंत्रण देता हूँ और पूर्ण आदरपूर्वक और सम्मानपूर्वक निमंत्रण देता हूँ अपितु हार्दिक प्रसन्नता से हर एक को निमंत्रण देता हूँ कि आपस में सुलह कर लो और मैं प्रत्येक क़ौम को विश्वास दिलाता हूँ कि जहाँ तक सांसारिक सहायता का संबंध है हम उनकी पारस्परिक सुलह और मुहब्बत के लिए सहायता करने के लिए तैयार हैं। और मैं दुनिया की प्रत्येक क़ौम को यह विश्वास दिलाता हूँ कि हम किसी के शत्रु नहीं हैं। हम कांग्रेस के भी शत्रु नहीं। हम हिन्दू महासभा वालों के भी शत्रु नहीं। मुस्लिम लीग वालों के भी शत्रु नहीं और जमींदार लीग के भी शत्रु नहीं और ख़ाकसारों के भी शत्रु नहीं। और ख़ुदा तआला जानता है कि हम तो अहरारियों के भी शत्रु नहीं। हम प्रत्येक के शुभचिंतक हैं और हम केवल उनकी उन बातों को बुरा मानते हैं जो धर्म में हस्तक्षेप करने वाली होती हैं। अन्यथा हम किसी के शत्रु नहीं हैं। और हम सबसे कहते हैं कि हमें छोड़ दो कि हम ख़ुदा तआला और उसकी सृष्टि की सेवा करें(अलफ़ज़ल 17 जनवरी  1945)

 इन शब्दों से स्पष्ट हैं कि जमाअत अहमदिया हमेशा पारस्परिक सहिष्णुता, शांति और भाईचारे की स्थापना की ओर बुलाती रही है। और यह एक प्रमाणित वास्तविकता है कि जब एक झगड़ा उत्पन्न हो रहा हो तो दोनों पक्षों के लीडरों को बार-बार वार्तालाप के द्वारा इस का हल निकलना पड़ता है। यदि इस कर्तव्य को पूर्ण न किया जाए या किसी कारण से लीडर आपस में सुलह-सफ़ाई की परिस्थिति न निकाल सकें तो कई बार बहुत सी पीढ़ियों को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है और दुर्भाग्यवश उपमहाद्वीप में अब तक यह हो रहा है।

1946 ई० में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के मध्य तनाव बढ़ता जा रहा था। इधर हिंदुस्तान की आज़ादी के दिन निकट आ रहे थे और स्पष्ट रूप से यह भय बढ़ रहा था कि यदि यह मतभेद दूर न हुए और आपसी समझ-बूझ से समस्याओं का समाधान न किया गया तो यह झगड़े कई वर्षों तक चलते चले जाएँगे।

हिंदुस्तान में एकता निस्संदेह हिंदुस्तान और दूसरी दुनिया के लिए लाभकारी होगी

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ ने अंतिम समय तक यह प्रयास किए कि हिन्दू-मुसलमान में पारस्परिक एकता स्थापित हो जाए। 1946 ई० में जब राजनीतिक उथल-पुथल को दूर करने के लिए पार्लिमेंटरी मिशन का इंग्लिस्तान से दिल्ली आगमन हुआ तो हज़रत मुस्लेह मौऊद ने एक धार्मिक और आध्यात्मिक लीडर के रूप में ब्रिटेन के सदस्यों, मुस्लिम लीग और कांग्रेस सब को उनकी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों की ओर ध्यान दिलाया और हिंदुस्तान की गुत्थी को न्याय और इंसाफ़ और सभ्याचार के आयाम के अनुसार सुलझाने की विनम्रतापूर्वक सलाह दी। हुज़ूर ने कमीशन को सलाह दी कि :

“यदि वे न्याय को स्थापित रखेंगे तो निसंदेह हिन्दू-मुस्लिम समझोता करवाने में सफ़ल हो सकेंगे…..हिंदुस्तान में जितनी भी एकता पारस्परिक समझोते से हो सके, निसंदेह वह हिंदुस्तान और दूसरे देशों के लिए लाभकारी होगी।”

हुज़ूर ने मुसलमानों को सलाह देते हुए फ़रमाया:

मैं मुसलमानों के प्रतिनिधित्वों को यह राय देता हूँ कि हिंदुस्तान हमारा भी उसी प्रकार है जिस प्रकार हिन्दुओं का है। हमें कुछ अत्याचारियों के कारण अपने देश को कमज़ोर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इस देश की महानता की स्थापना में हमारा बहुत कुछ भाग है……हम ने इस देश की प्रगति के लिए आठ सौ वर्ष तक प्रयास किया है। पेशावर से लेकर मनीपुर तक और हिमालय से लेकर मद्रास तक उन देशप्रेमियों की लाशें मिलती हैं जिन्होंने इस देश की प्रगति के लिए अपने प्राण दे दिए थे। प्रत्येक क्षेत्र में इस्लामी चिन्ह पाए जाते हैं। क्या हम इन सब को छोड़ देंगे क्या इन के बावजूद हम हिंदुस्तान को हिन्दुओं का कह सकते हैं। निसंदेह हिंदुस्तान हिन्दुओं से अधिक हमारा है।

फिर हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीय ने फ़रमाया:

मैं इस बात के अधिकार में हूँ कि हो सके तो पारस्परिक समझौते से हम लोग इसी प्रकार इकट्ठे रहें जिस प्रकार कई सौ वर्ष से इकट्ठे चले आते हैं…..अतः मैं नसीहत करता हूँ कि इस कठिनाई को प्रेमपूर्वक सुलझाने का प्रयास किया जाए। बल और स्वयं निर्मित क़ानून से नहीं। मैं हिन्दुओं को विश्वास दिलाता हूँ कि मेरा हृदय उनके साथ है इन अर्थों में कि मैं चाहता हूँ कि हिन्दू-मुसलमानों में स्पष्ट रूप से समझोता हो जाए और यह सौतेले भाई इस देश में सगे बन कर रहें……मैं इस बात के अधिकार में हूँ कि जिस प्रकार हो हिंदुस्तान को संयुक्त रखने का प्रयास किया जाए

हज़रत मुस्लेह मौऊदरज़ि॰ ने हिन्दुओं को संबोधित कर के फ़रमाया:

मैं हिन्दू भाइयों से विशेष रूप से कांग्रेस वालों को कहना चाहता हूँ कि…..हमारे निर्णयों का आधार शिष्टाचार पर होना चाहिए……इस संवेदनशील अवसर पर शिष्टाचार पर अपने दावों का आधार रखें….यह समय गंभीरता से इस बात पर विचार करने का है कि किस प्रकार हमारा देश आज़ाद हो सकता है। और किस प्रकार प्रत्येक क़ौम ख़ुश रह सकती है। यदि ऐसा हुआ तो हम केवल क़ैद ख़ाना परिवर्तित करने वाले होंगे।

(तारीख़-ए-अहमदियत जिल्द 9 पृष्ट 306 से 311)

हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए व्यावहारिक प्रयास

हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीयरज़ि॰ ने अपने प्रयासों को केवल लिखित संदेशों तक ही सिमित नहीं रखा अपितु अपने प्रयासों को चरम तक पहुंचाते हुए आप सितंबर 1946 ई० में दिल्ली गए। दिल्ली उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था। दिल्ली में विभिन्न लीडरों से हुज़ूर की मुलाक़ात भी हुई। कांग्रेस के लीडरों में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद साहब, पंडित जवाहर लाल नेहरू साहब और गांधी जी की हुज़ूर से मुलाक़ात हुई और इन के अतिरिक्त कुछ और लीडर भी हुज़ूर से मिलने आए। और कुछ लीडरों को हुज़ूर ने पत्र लिखे।

हुज़ूर इस समय जिस दिशा में प्रयास कर रहे थे इसका अनुमान इस वार्तालाप से लगाया जा सकता है। हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह द्वितीय ने इण्डिया के उस समय के लीडरों से मुलाक़ात कर के उन्हें ध्यान दिलाया कि:

“……आप का झगड़ा ठीक नहीं। उनको प्रयास करना चाहिए कि कुछ वे छोड़ दें (मुस्लिम) लीग छोड़ दे। ताकि देश की अशांति भयानक रूप धारण न कर ले। मैंने उन से कहा कि लड़ते आप हैं लेकिन आप लोगों की जानों पर इस की विपदा नहीं अपितु उन हज़ारों हज़ार लोगों पर है जो क़स्बों में रहते हैं अथवा गाँव में रहते हैं और सभ्यता और शालीनता को नहीं समझते। वे एक-दूसरे को मारेंगे, एक-दूसरे को लूटेंगे और एक-दूसरे के घरों को जला देंगे। जैसा झगड़ा लीग और कांग्रेस का था लेकिन मस्जिद और लाइब्रेरी ढाका में हमारी जला दी गई। यद्यपि न हम लड़े, न हम अशांति उत्पन्न करना वैध समझते हैं परन्तु वहां के हिन्दुओं ने हमारी मस्जिद और हमारी लाइब्रेरी को जला कर यह समझ लिया कि उन्होंने बड़ा तीर मारा है। इस से ज्ञात होता है कि जब इस प्रकार के मतभेद उत्पन्न हों तो इंसानी बुद्धि मारी जाती है। और काले और सफ़ेद में अंतर करना उसके लिए कठिन हो जाता है। अतः मैंने यह बात स्पष्ट की और उन्हें कहा कि आप को इस बारे में कुछ करना चाहिए…..इस का उत्तर जो दिया वह यह था कि यह कार्य आप ही कर सकते हैं। मैं नहीं कर सकता।”

(रोज़नामा अलफ़ज़ल क़ादियान 13 नवंबर 1946 ई०)

इतिहास साक्षी है कि हज़रत मुस्लेह मौऊदरज़ि॰ ने जिन चिंताओं का प्रकटन किया था वे ठीक निकलीं। आज़ादी के समय तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग में सुलह का वातावरण उत्पन्न न हुआ जिसके कारण हिंदुस्तान की समस्त क़ौमों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए अहमदिया मुस्लिम जमाअत ने दाग़-ए-हिज्रत (प्रवास) को स्वीकार किया और इस अवसर पर भी इस शोकपूर्ण घटना की हानि कम से कम होने के सन्दर्भ से इमाम जमाअत अहमदिया ने प्रयास किए। आज़ादी के समय पंजाब की ज़मीन रक्त से रंग दी गई। इतना रक्तपात हुआ कि जिसका उदाहरण पंजाब के इतिहास में नहीं मिलता। थोड़े ही समय में लाखों लोगों की बेदर्दी से हत्या कर दी गई। इतिहास का सबसे ख़राब प्रवास हुआ और परिणाम यह कि लाखों घर उजड़ गए।

जमाअत अहमदिया जिसने सदैव ही सुलह का झंडा ऊंचा रखा और प्रत्येक संभव प्रयास किए कि शांति स्थापित हो उसे ही अधिकतर आलोचना का निशाना बनाया जाता है। यहाँ कुछ एतिहासिक तथ्य दर्ज किए गए हैं जिनका ज्ञान ज़रूरी है। हर कोई पढ़ कर अपनी राय स्थापित कर सकता है।

आपस में सुलह सफ़ाई से और न्याय के सिद्धांतों पर स्थापित रह कर ही समस्या को हल किया जा सकता है। अन्यथा एक ग़लती दूसरी ग़लतियों को जन्म देती रहेगी और यह सिलसिला कभी समाप्त नहीं होगा।

अहमदिया मुस्लिम जमाअत की ओर से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए निरंतर प्रयासों के बावजूद इस जमाअत को देश के बँटवारे का ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। यदि कोई विचार करे तो उस समय उपमहाद्वीप में अहमदियों की संख्या लगभग पांच लाख थी। भला पांच लाख की संख्या शेष करोड़ों की संख्या पर किस प्रकार अपनी मर्ज़ी चला सकती है।

सरकार का विरोध अवैध है

इस्लाम धर्म के आधारभूत आदेशों में से यह आदेश है कि समय की हुकूमत का आज्ञापालन किया जाए। चाहे हुकूमत मुसलमान हो या गैर-मुस्लिम। आज्ञापालन हर परिस्थिति में अनिवार्य है। हज़रत मुस्लेह मौऊदरज़ि॰ फ़रमाते हैं:

जब हम रसूल करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के आदेशों को देखते हैं तो वहां भी हुकूमत के आज्ञापालन का विशेष आदेश पाते हैं आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं : “तुम पर अनिवार्य है आदेश मानना और आज्ञापालन करना तंगी और तनाव में और ख़ुशी में और नाराज़गी में और उस समय भी जब तुम्हारे अधिकार छीने जाते हों।” 

इसी प्रकार रिवायत में आता है कि आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम से सहाबा ने पुछा कि …..हे अल्लाह के नबी! बताइए तो सही कि यदि हम पर ऐसे हाकिम (अधिकारी) निर्धारित हों जो अपने अधिकार तो ले लें और जो हमारे अधीकार हैं वे न दें तो हम क्या करें? आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने पहले तो उसके प्रश्न का उत्तर न दिया परन्तु जब उसने दोबारा पुछा तो फ़रमाया कि उनकी बातें सुनों और आज्ञापालन करो क्योंकि वे अपने किए का बदला प्राप्त करेंगे तुम अपने किए का बदला पाओगे। (मुस्लिम किताबुल ईमान बाब फ़ी तअतल अमरावाने मनउल हक़ूक़)

इन हदीसों में कोई ऐसा शब्द नहीं कि जिसका यह अर्थ हो कि केवल मुस्लिम हाकिम का आज्ञापालन करो और दूसरे का न करो। कोई व्यक्ति किसी को विवश नहीं करता कि वे किसी विशेष देश में या विशेष बादशाह के अधीन रहे परन्तु यदि कोई व्यक्ति स्वयं एक देश को चुनता है तो उसका कर्तव्य है कि फिर उस देश के संविधान का पालन करे।

तुम पर अनिवार्य है आदेश मानना और आज्ञापालन करना तंगी और तनाव में और ख़ुशी में और नाराज़गी में और उस समय भी जब तुम्हारे अधिकार छीने जाते हों।

अपने देश से प्रेम और वफ़ादारी

अहमदिया मुस्लिम जमाअत जो दुनिया के 213 देशों में स्थापित है, दुनियाभर में शांति और प्रेम, भाईचारे और अपने देश से वफ़ादारी को इस्लामी शिक्षाओं के आलौक में बढ़ावा दे रही है। जमाअत अहमदिया के इमाम हज़रत साहबज़ादा मिर्ज़ा मसरूर अहमद साहब ख़लीफ़तुल मसीह पंचम अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ इस सन्देश को समस्त संसार में फैला रहे हैं। निम्न में हम आप के भाषण “देश से प्रेम और वफ़ादारी इस्लामी शिक्षाओं के आलौक में” से कुछ उद्धरण पाठकों के लिए लिख रहे हैं :

अपने देश से प्रेम

“अपने देश से वफ़ादारी या प्रेम के शब्द केवल बोलना या सुनना बड़ा सरल है परन्तु वास्तव में इन शब्दों में ऐसे अर्थ निहित हैं जो बहुत गहरे और व्यापक हैं फिर उन शब्दों के अर्थों को पूर्ण रूप से परिधि में लेना और इस बात को समझना कि शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या हैं और उनकी मांग क्या है एक कठिन कार्य है। बहरहाल हम अपने देश से प्रेम और वफ़ादारी की इस्लामी सोच पर कुछ बात करेंगे।

सर्वप्रथम इस्‍लाम का एक मूल सिद्धान्‍त यह है कि एक व्‍यक्ति के शब्‍दों और कर्मों से किसी भी प्रकार की भिन्‍नता या विरोधाभास कदापि प्रकट नहीं होना चाहिए। वास्‍तविक वफ़ादारी एक ऐसे संबंध की मांग करती है जो निष्‍कपटता और सच्चाई पर आधारित हो। यह इस बात की मांग करती है कि प्रत्‍यक्षत: एक व्‍यक्ति जो प्रकट करता है वही उसके अन्‍त:करण में भी हो। राष्ट्रीयता के संदर्भ में इन सिद्धान्‍तों का बहुत महत्त्व है। अत: किसी भी देश के नागरिक के लिए यह नितान्‍त आवश्‍यक है कि वह अपने देश से सच्‍ची वफ़ादारी के संबंध स्‍थापित करे। इस बात का कुछ महत्त्व नहीं है कि चाहे वह जन्‍मजात नागरिक हो अथवा उसने अपने जीवन में बाद में नागरिकता प्राप्‍त की हो, या प्रवास करके नागरिकता प्राप्‍त की हो या किसी अन्‍य माध्‍यम से।

वफ़ादारी क्या है?

इस्‍लामी शिक्षाओं के अनुसार वफ़ादारी की परिभाषा तथा उसका वास्‍तविक अर्थ किसी का असंदिग्‍ध तौर पर हर स्‍तर पर और हर परिस्थिति में कठिनाइयों से दृष्टि हटाते हुए चाहे कैसी भी कठिनाईपूर्ण दशा का सामना करना पड़े अपनी प्रतिज्ञाओं को पूर्ण करना है। इस्‍लाम इसी वास्‍तविक वफ़ादारी की मांग करता है। पवित्र क़ुरआन में विभिन्‍न स्‍थानों पर मुसलमानों को यह आदेश दिया गया है कि उन्‍हें अपनी प्रतिज्ञाओं और क़समों को अवश्‍य पूर्ण करना है, क्‍योंकि वे अपनी समस्‍त प्रतिज्ञाओं के प्रति जो उन्‍होंने की हैं ख़ुदा के समक्ष उत्तरदायी होंगे। मुसलमानों को यह निर्देश दिया गया है कि वे ख़ुदा और उसकी सृष्टि से की गई समस्‍त प्रतिज्ञाओं को उनके महत्त्व और प्राथमिकताओं के अनुसार पूरा करें।

इस सन्‍दर्भ में एक प्रश्‍न जो कि लोगों के मस्तिष्‍क में पैदा हो सकता है वह यह है कि चूंकि मुसलमान यह दावा करते हैं कि परमेश्‍वर और उसका धर्म उनके निकट अत्‍यधिक महत्त्व रखते हैं जिस से यह प्रकट होता है कि परमेश्‍वर के लिए वफ़ादारी उनकी प्रथम प्राथमिकता है और परमेश्‍वर से उनकी प्रतिज्ञा सर्वाधिक महत्त्व रखती है। वे इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का प्रयत्‍न करते हैं। अत: यह आस्‍था सामने आ सकती है कि एक मुसलमान की अपने देश के लिए वफ़ादारी तथा उसका अपने देश के कानूनों को पालन करने की प्रतिज्ञा उसके निकट अधिक प्राथमिकता नहीं रखती। अत: इस प्रकार वह विशेष अवसरों पर अपने देश के प्रति अपनी प्रतिज्ञा को क़ुर्बान करने के लिए तैयार हो जाएगा।

हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम के आदेश

इस प्रश्‍न का उत्तर देने के लिए हम आपको यह बताना चाहते हैं कि हज़रत मुहम्‍मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने यह शिक्षा दी है कि अपने देश से प्रेम ईमान का भाग है। अत: शुद्ध देश-प्रेम इस्‍लाम की मांग है। ख़ुदा और इस्‍लाम से सच्‍चा प्रेम अपने देश से प्रेम की मांग करता है। अत: यह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है कि इस स्थिति में एक व्‍यक्ति के ख़ुदा से प्रेम तथा अपने देश से प्रेम के संबंध में उसके हितों का कोई टकराव नहीं हो सकता जैसा कि अपने देश से प्रेम करने को ईमान का एक भाग बना दिया गया है। अत: यह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है कि एक मुसलमान अपने संबधिं त देश के लिए वफ़ादारी करने में सबसे उच्‍च स्‍तर पर पहुंचने का प्रयत्‍न करेगा, क्‍योंकि ख़ुदा तक पहुंचने और उसका सानिध्‍य प्राप्‍त करने का यह भी एक माध्‍यम है। अत: यह असंभव है कि ख़ुदा का वह प्रेम जो एक मुसलमान अपने अन्‍दर रखता है वह उसके लिए अपने देश से प्रेम और वफ़ादारी को प्रकट करने में एक रोक बन जाए।

देश के क़ानूनों की रक्षा

दुर्भाग्‍यवश हम यह देखते हैं कि कुछ विशेष देशों में धार्मिक अधिकारों को सीमित कर दिया जाता है या पूर्णतया हनन किया जाता है। अत: एक और प्रश्‍न उठता है कि क्‍या वे लोग जिनको स्‍वयं उनकी सरकार तंग करती है या अत्‍याचार करती है वे इस स्थिति में भी अपने देश के लिए वफ़ादारी और प्रेम का संबंध यथावत् रख सकते हैं।

ऐसी परिस्थितियों में इस्लाम इस बात का समर्थक है कि जहां अत्याचार अपनी समस् सीमाओं को पार कर जाए और असहनीय हो जाए तब ऐसे समय में एक व्यक्ति को उस शहर या देश से किसी अन् स्थान पर प्रवास करना चाहिए जहां वह अमन के साथ स्वतंत्रतापूर्वक अपने धर्म का पालन कर सके। बहरहाल इस मार्गदर्शन के साथसाथ इस्लाम यह भी शिक्षा देता है कि किसी भी स्थिति में किसी व्यक्ति को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए और ही अपने देश के विरुद्ध किसी भी योजना या षडयंत्र में भाग लेना चाहिए। यह एक बिल्कुल स्पष् और असंदिग् आदेश है जो इस्लाम ने दिया है।

बग़ावत से बचना

वफ़ादारी के संदर्भ में पवित्र क़ुरआन ने एक और शिक्षा दी है वह यह है कि लोगों को उन समस् बातों से दूर रहना चाहिए जो अशिष्, अप्रिय और किसी भी प्रकार के विद्रोह की शिक्षा देती हों। यह इस्लाम की वह अभूतपूर्व सुन्दर और विशेष शिक्षा है जो केवल अन्तिम परिणाम की ओर हमारा ध्यान आकृष् करती है जहां ये परिणाम बहुत ख़तरनाक होते हैं अपितु यह हमें उन छोटेछोटे मामलों से भी अवगत कराती है जो मनुष् को ख़तरों से भरे मार्ग पर अग्रसर करने के लिए सीढ़ियों का कार्य करते हैं। अत: यदि इस्लामी पथप्रदर्शन को उचित रग में अपनाया जाए तो किसी भी मामले को इस से पूर्व कि परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएं प्रथम पग पर ही सुलझाया जा सकता है।

लालच से बचना

उदाहरणतया एक मामला जो एक देश को बहुत अधिक हानि पहुंचा सकता है वह लोगों का धनसम्पत्ति का लोभ है। अधिकांश लोग इन भौतिक इच्छाओं में मुग् हो जाते हैं जो नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं और ऐसी इच्छाएं अन्तत: लोगों को विश्वासघात की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार से ऐसी इच्छाएं अन्तत: अपने देश के विरुद्ध किसी के देशद्रोह का कारण बनती हैं। अरबी भाषा में एक शब्बग़ाउन लोगों या उन कार्यों को वर्णन करने के लिए प्रयोग होता है जो अपने देश को हानि पहुंचाते हैं, जो ग़लत कार्यों में भाग लेते हैं या दूसरों को हानि पहुंचाते हैं। इसमें वे लोग भी सम्मिलित हैं जो धोखा करते हैं और इस प्रकार से विभिन् वस्तुओं को अवैध ढंगों से प्राप् करने का प्रयत् करते हैं। 


Hazrat Mirza Masroor Ahmad(at)
यह उन लोगों पर भी चरितार्थ होता है जो समस् सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और हानि पहुंचाते हैं। इस्लाम यह शिक्षा देता है कि जो लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं उनसे वफ़ादारी की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि वफ़ादारी उच् नैतिक मूल्यों से सम्बद्ध है और उच् नैतिक मूल्यों के अभाव में वफ़ादारी का अस्तित्व नहीं रह सकता। यह भी वास्तविकता है कि विभिन् लोगों के उच् नैतिक मापदण् के संबंध में भिन्भिन् विचारधाराएं हो सकती हैं फिर भी इस्लाम चारों ओर से ख़ुदा की प्रसन्नता पाने के लिए प्रेरित करता है और मुसलमानों को यह निर्देश दिया गया है कि वे ऐसा कार्य करें कि जिससे ख़ुदा प्रसन् हो।

संक्षिप् तौर पर यह कि इस्लामी शिक्षा के अनुसार ख़ुदा ने हर प्रकार के विद्रोह या ग़द्दारी को निषिद्ध ठहरा दिया है चाहे वह अपने देश या अपनी सरकार के विरुद्ध हो। क्योंकि विद्रोह या सरकार के विरुद्ध कार्य, देश की सुरक्षा और शान्ति के लिए एक ख़तरा है। यह वास्तविकता है कि जहां आन्तरिक विद्रोह अथवा शत्रुता प्रकट होती है तो यह बाह्य विरोध की अग्नि को भी हवा देती है तथा बाहरी संसार को प्रोत्साहित करती है कि वह आन्तरिक विद्रोह से लाभ प्राप् करे। इस प्रकार अपने देश से बवेफ़ाई के परिणाम दूरगामी और ख़तरनाक हो सकते हैं। अतः जो भी बात किसी देश को हानि पहुंचाए वह बग़ा की परिभाषा में सम्मिलित है। इन समस् बातों को ध्यान में रखते हुए अपने देश के प्रति वफ़ादारी, एक व्यक्ति से यह मांग करती है कि वह धैर्य का प्रदर्शन करे और अपने सदाचार दिखाते हुए राष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करे।

क़ौमी प्रगति

समान्यतया कहने को तो वर्तमान युग में अधिकतर सरकारें प्रजातंत्रीय प्रणाली पर चलती हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति या गिरोह सरकार को परिवर्तित करने की इच्छा करता है तो वह उचित प्रजातंत्रीय पद्धति को अपनाते हुए ऐसा कर सकता है। मतपेटियों में अपना वोट डालकर उन्हें अपनी बात पहुंचानी चाहिए। व्यक्तिगत प्राथमिकताओं या व्यक्तिगत हितों के आधार पर वोट नहीं डालने चाहिएं, परन्तु वास्तव में इस्लाम यह शिक्षा देता है कि किसी भी व्यक्ति के वोट का प्रयोग अपने देश से वफ़ादारी और प्रेम की समझ के साथ होना चाहिए तथा किसी भी व्यक्ति के वोट का प्रयोग देश की भलाई को दृष्टिगत रखते हुए होना चाहिए। अत: किसी भी व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को नहीं देखना चाहिए और यह भी नहीं देखना चाहिए कि किस प्रत्याशी या पार्टी से वह व्यक्तिगत लाभ प्राप् कर सकता है अपितु एक व्यक्ति को संतुलित ढंग से यह निर्णय करना चाहिए और जिसका वह अनुमान भी लगा सकता है कि कौन सा प्रत्याशी या पार्टी पूरे देश की उन्नति में सहायता देगी। सरकार की कुंजियां एक बड़ी अमानत होती हैं जिसे उस पार्टी के सुपुर्द किया जाना चाहिए जिसके बारे में वोटर ईमानदारी से यह विश्वास करें कि वह सब से अधिक उचित और सब से अधिक योग् है। यह सच्चा इस्लाम है और यही सच्ची वफ़ादारी है।

पवित्र क़ुरआन की सूरः संख्या 4 की आयत संख्या 59 में ख़ुदा ने यह आदेश दिया है कि अमानत केवल उस व्यक्ति के सुपुर्द करनी चाहिए जो उस का पात्र हो और लोगों के मध् निर्णय करते समय उसे न्याय और ईमानदारी से निर्णय करने चाहिएं। अतः अपने देश के प्रति वफ़ादारी यह मांग करती है कि सरकार की शक्ति उन्हें दी जानी चाहिए जो वास्तव में उसके पात्र हों ताकि उनका देश उन्नति कर सके और विश् के अन्य देशों की तुलना में सबसे आगे हो।

हड़तालों से बचना

विश् के बहुत से देशों में हम देखते हैं कि प्रजा सरकार की नीतियों के विरुद्ध हड़तालों और प्रदर्शनों में भाग लेती है। इससे भी बढ़कर तीसरी दुनिया के देशों में प्रदर्शनकारी तोड़फोड़ करते हैं या उन सम्पत्तियों और जायदादों को हानि पहुंचाते हैं जो या तो सरकार से संबंध रखती हैं या सामान् नागरिकों की होती हैं। यद्यपि उनका यह दावा होता है कि उनकी यह प्रतिक्रिया देश प्रेम से प्रेरित है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसे कार्यों का वफ़ादारी या देशप्रेम के साथ दूर का भी संबंध नहीं। यह स्मरण रखना चाहिए कि जहां प्रदर्शन और हड़तालें शान्तिपूर्ण ढंग से भी की जाती हैं या अपराध, हानि एवं कठोरता के बिना की जाती हैं फिर भी उनका एक नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। इसका कारण यह है कि शान्तिपूर्ण प्रदर्शन भी प्राय: देश की आर्थिक स्थिति की करोड़ों की हानि का कारण बनते हैं। ऐसे कृत्यों को किसी भी दशा में देश से वफ़ादारी का उदाहरण नहीं ठहराया जा सकता। एक सुनहरा सिद्धान् जिसकी जमाअत अहमदिया के प्रवर्तक ने शिक्षा दी थी वह यह था कि हमें समस् परिस्थितियों में ख़ुदा, उसके अवतारों तथा अपने देश के शासकों के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए। ही शिक्षा पवित्र क़ुरआन में दी गई है। अतः उस देश में भी जहां हड़ताल और रोषप्रदर्शन करने की अनुमति है, वहां इन का संचालन उसी सीमा तक होना चाहिए जिस से देश अथवा देश की आर्थिक स्थिति को कोई हानि पहुंचे।

अतः इस्लामी शिक्षाओं के ये कुछ दृष्टिकोण हैं जो देशप्रेम और देशभक्ति की वास्तविक मांगों के सम्बन् में मुसलमानों का मार्गदर्शन करते हैं।

देशों के राजनीतिज्ञों की ज़िम्मेदारियां

अन्त में हम यह कहना चाहेंगे कि आज समूचा विश्व एक वैश्विक ग्राम बन चुका है। मनुष् एक दूसरे के बहुत निकट गए हैं। समस् देशों में प्रत्येक जाति, धर्म और सभ्यताओं के लोग पाए जाते हैं। यह स्थिति मांग करती है कि प्रत्येक देश के राजनीतिज्ञ उनकी भावनाओं और अहसासों को दृष्टिगत रखें और उनका सम्मान करें। शासकों और उनकी सरकारों को ऐसे कानून बनाने का प्रयास करना चाहिए जो सत् की भावना तथा न्याय के वातावरण को बढ़ावा देने वाले हों। ऐसे कानून बनाएं जो कि लोगों को निरुत्साहित करने और अशान्ति फैलाने का कारण बनें। अन्याय और अत्याचार समाप् करके हमें वास्तविक न्याय के लिए प्रयास करने चाहिएं।

दुनिया अपने स्रष्टा को पहचाने

ऐसा करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि संसार को अपने स्रष्टा को पहचानना चाहिए। प्रत्येक प्रकार की वफ़ादारी का संबंध ख़ुदा से वफ़ादारी होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो हम अपनी आंखों से देखेंगे कि समस् देशों के लोगों में एक सर्वोच् स्तर वाली वफ़ादारी जन् लेगी और सम्पूर्ण विश् में नवीन मार्ग प्रशस् होंगे जो हमें शान्ति और सुरक्षा की ओर ले जाएंगे।

यह लेख जमाअत अहमदिया के इमाम हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद साहब ख़लीफ़तुल मसीह पंचम अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ के मिलिट्री हेडक्वार्टर कोबलंज़ (जर्मनी) में दिए गए भाषण से उद्धरण ले कर संकलित किया गया है। इस भाषण का संपूर्ण लेख पुस्तकWorld Crisis and Pathway to Peaceमें दर्ज है। इस पुस्तक में ब्रिटिश पार्लिमेंट, यूरोपियन पार्लिमेंट, न्यूज़ीलैंड पार्लिमेंट, अमरीकन कांग्रेस इत्यादि में दिए गए आप के महान और मार्गदर्शक भाषण सम्मिलित हैं। यह पुस्तक निम्न में दिए गए पते से प्राप्त की जा सकती है।

अल्लाह तआला से दुआ है कि वह इन आदेशों का आज्ञापालन करने का सबको सामर्थ्य प्रदान करे ताकि प्रिय देश शांति और सलामती का केंद्र बना रहे और समस्त संसार में शांति और अमन स्थापित हो जाए। आमीन!