अनुशासन कुछ काम नहीं देता ख़िलाफ़त के बिना

खिलाफ़त इस्लाम की एकता को बनाए रखने का ईश्वरीय माध्यम है। यह एक ईश्वरीय व्यवस्था है जो मुसलमानों की आध्यात्मिकता को दृढ़ता प्रदान करता है।

अनुशासन कुछ काम नहीं देता ख़िलाफ़त के बिना


खिलाफ़त इस्लाम की एकता को बनाए रखने का ईश्वरीय माध्यम है। यह एक ईश्वरीय व्यवस्था है जो मुसलमानों की आध्यात्मिकता को दृढ़ता प्रदान करता है।


यह लेख सर्वप्रथम साप्ताहिक बदर क़ादियान (उर्दू) में 22 मई 1975 को प्रकाशित हुआ इसका हिंदी अनुवाद लाईट ऑफ़ इस्लाम के लिए फज़ल नासिर ने किया है।

मौलाना मुहम्मद इनाम ग़ौरी

12 फ़रवरी 2022

स्वर्गीय शेख़ रौशन दीन साहिब की एक पंक्ति को मैंने अपने निबन्ध का शीर्षक बनाया है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि ब्रह्मांड  की प्रत्येक वस्तु चाहे वह किसी भी प्रकार की हो इस बात का समर्थन कर रही है कि:

अनुशासन कुछ काम नहीं देता ख़िलाफ़त के बिना

गर्मियों की रातों में खुली छत पर अपने बिस्तर में लेटे कई बार आपने चाँद, तारों से विभूषित आकाश का दर्शन किया होगा और तारों को गिनने की नाकाम कोशिश की होगी। क्या आप ने कभी सोचा? कि यह प्रकाशित चन्द्रमा, ये जगमग जगमग तारे कहाँ से आते और कहाँ जाते हैं? कम से कम पुस्तकों में तो आपने सौर मण्डल का अध्याय अवश्य पढ़ा होगा और इस बात को मालूम किया होगा कि यह चाँद और हमारी धरती इसी प्रकार समस्त परिचित व अपरिचित ग्रह सूर्य को अपना धुरा बनाकर उसके चारों ओर चक्कर काटते रहते हैं। और चाँद सूर्य से प्रकाश हासिल करके अंधेरी रातों को अपनी चाँदनी से नहला देता है। इसी चक्कर के फ़लस्वरूप दिन, रात, महीने, साल व शताब्दियाँ बनती आई हैं और जब तक ख़ुदा तआला के ज्ञान में है बनती चली जाएंगी। बहरहाल इस प्रकरण में सूर्य को एक बुनियादी हैसियत प्राप्त है। यदि सूर्य नहीं तो न चाँद होगा न उसकी चाँदनी न ग्रह होंगे न सौर मण्डल के अन्य खगोलीय पिंड। सर्वश्रेष्ठ सृजनकर्ता (खुदा) ने समस्त ग्रहों को सूर्य के अधीन करके इस महान सौरमण्डल की रचना की।

कभी आपको शहद के छत्ते तथा मधुमक्खियों को देखने का अवसर मिला होगा। आपने देखा होगा कि किस उत्तम प्रबन्ध से वे शहद को इकट्ठा करती हैं और उसकी रक्षा करती हैं। एक उन में रानी मक्खी होती है जिसका सब कहना मानती हैं और इस प्रकार उनके समस्त कार्य अनुशासन के साथ होते हैं।

कभी आपने अपने घर की दीवारों पर चींटियों की कतारें देखी होंगी एक कतार आ रही है दूसरी जा रही है। दो विपरीत दिशाओं में वे चलती कतारें किस मेहनत व लगन से अपने काम में मग्न नज़र आती हैं। उनका भी अपना एक सरदार होता है जिसके आदेशानुसार उसके अपने समस्त कार्य घटित होते हैं।

अतः ब्रह्मांड की जिस वस्तु पर भी आप दृष्टि डालें यही बात आपके अनुभव में आएगी कि समस्त चीज़ें एक अनुशासन के अधीन हैं और उनका एक संचालक है और एक प्रबन्ध के अधीन हैं और उसका एक प्रबन्धक है। एक रेवड़ है और उसका एक गडरिया है। एक समूह है और उसका एक मार्गदर्शक है। एक ज़िला है और उसका एक कलक्टर है, एक राज्य है और उसका एक मुख्यमंत्री है, एक देश है और उसका एक प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति है।

यदि ये सब बातें सत्य हैं तो स्वतः ही हमारी अन्तरात्मा से यह आवाज़ आती है कि विश्व में 70 करोड़ मुसलमान हैं तो उनका कोई मार्गदर्शक क्यों नहीं? जब अध्यापक ही नहीं तो कक्षा कैसी? गडरिया ही नहीं तो रेवड़ की सुरक्षा का क्या भरोसा? जब सूरज ही नहीं तो कैसा चांद और कहाँ के ग्रह? और जब इमाम ही नहीं तो कैसी जमाअत और कैसा प्रबन्धन?

मुआसिर अल-जम्इय्या दिल्ली ने अपने जुमा एडीशन के शीर्ष पृष्ठ पर ये ख़ुशकिस्मती हमारे लिए क्यों नहीं के शीर्षक से अत्यन्त व्याकुलता से अपने एक अनुभव का वर्णन करते हुए लिखा-

क्या यह सौभाग्य केवल माल गाड़ी के डिब्बों को प्राप्त है” मैंने सोचा मालगाड़ी के डिब्बों के लिए इंजन है। क्या यह मुमकिन नहीं कि हमारा भी एक इंजन हो और उम्मत (समुदाय) के सभी लोग उससे जुड़कर एक सोचे समझे पथ पर निकल पड़ें।

आह वह भीड़ जो एक काफ़ला नहीं बन सकती और आह वह काफ़ला जो अपने आप को एक अंजुमन के सुपुर्द करने के लिए तैयार नहीं।[1]

यह हसरत और यह तमन्ना अन्तरात्मा की एक आवाज़ है। काश यह आवाज़ प्रत्येक मुसलमान के दिल में एक बेचैनी पैदा कर दे और प्रत्येक मुसलमान यह सोचने पर मजबूर हो जाए कि ऐसा क्यों है? सर्वश्रेष्ठ उम्मत के कारवां का पथप्रदर्शक कहाँ है? विचार तो करो क्या पता खुदा तआला ने उसका कोई प्रबंध किया हो, क्योंकि इसके बिना एक संप्रदाय का जीवन असंभव है। अल्लामा इक़बाल ने शायद इसी आवश्यकता को महसूस करते हुए कहा था,

ता ख़िलाफ़त की बिना हो फ़िर से उस्तुवार।

ला कहीं से ढूँड कर अस्लाफ़ का क़ल्ब-ओ-जिगर।।[2]

इसी हसरत व नाउम्मीदी ने कभी शाह तुर्की को अपना केन्द्र बिंदु समझा और कभी शाह फ़ैसल की ओर उम्मीद भरे दिल से देखा। परन्तु ख़िलाफ़त की चादर का पहनना या न पहनना मनुष्य के अपने बस की बात नहीं। इस चुनाव को ख़ुदा तआला ने अपने हाथ में रखा है। और सूरह नूर में बड़ी स्पष्टता के साथ फ़रमाया है कि जब तक उम्मते मुहम्मदिया के लोग ईमान और अच्छे कर्मों की शर्त पर क़ायम रहेंगे, मैं उनमें सच्ची ख़िलाफ़त का निज़ाम जारी रखूंगा[3]। अतः जब तक ईमान और अच्छे कर्मों की शर्त मुसलमानों में क़ायम रही ख़िलाफ़त-ए-राशिदा क़ायम रही और जब ईमान और क़ुर्आन (जो आमाल-ए-सालेहा की चाबी है) सुरय्या सितारे पर चले गए तो ख़िलाफ़त का अन्त कर दिया गया और मुसलमान इस महान उपहार से अस्थाई तौर पर वंचित कर दिए गए। और यह सब कुछ सच्ची ख़बर देने वाले सय्यदना हज़रत रसूल करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की भविष्यवाणियों के अनुसार हुआ। अतः आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक और एक दो की भाँति अत्यन्त स्पष्टता के साथ इस बात को वर्णन किया था कि:

मेरे बाद ख़िलाफ़त अला मिनहाजिन्नबुव्वत (अर्थात् नबुव्वत के मार्ग पर ख़िलाफ़त) का सिलसिला शुरू होगा और जब तक ख़ुदा तआला चाहेगा यह सिलसिला जारी रहेगा फ़िर ख़ुदा तआला इस सिलसिला का अन्त कर देगा। इस के बाद ज़ालिम (क्रूर) सम्राटों का युग आएगा जब यह युग भी समाप्त हो जाएगा तो जबरी साम्राज्य स्थापित होगा और जब तक ख़ुदा की इच्छा होगी यह युग भी चलता रहेगा और जब यह युग भी समाप्त हो जाएगा तो फ़िर से ख़िलाफ़त अला मिनहाजिन्नबुव्वत का सिलसिला शुरू होगा।[4]

और यह सिलसिला इन्शाअल्लाह (अगर अल्लाह ने चाहा) क़यामत तक चलता चला जाएगा क्योंकि आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इसके बाद किसी और निज़ाम (व्यवस्था) की ख़बर नहीं दी बल्कि ख़िलाफ़त अला मिनहाजिन्नबुव्वत के दोबारा शुरू होने की ख़ुशख़बरी सुनाकर चुप हो गए।

हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने अपनी किताब शहादतुल क़ुर्आन में फ़रमाया है:

जो व्यक्ति ख़िलाफ़त को तीस वर्ष तक मानता है वह अपनी नादानी से ख़िलाफ़त के मूल कारण को अनदेखा करता है और नहीं जानता कि ख़ुदा तआला का यह इरादा तो कदापि न था कि रसूले करीम के देहान्त के पश्चात् केवल तीस वर्ष तक रिसालत की बरकतों को ख़लीफ़ों के लिबास में रखना अनिवार्य है फिर उसके बाद दुनिया तबाह हो जाए ते कुछ परवाह नहीं।[5]

उम्मते मुहम्मदिय्या का इतिहास बड़ा स्पष्ट है जो वर्णित भविष्यवाणियों के एक एक शब्द के सच्चा होने की गवाही दे रहा है। ख़िलाफ़त-ए-राशिदा का युग समाप्त हुआ तो क्रूर सम्राटों का युग आया और जब 14 वीं शताब्दी आई तो इधर इस्लाम के पुनरुत्थान की तैयारी हो रही थी और उधर दिलों की हसरतें और आशाएं स्वतः उमड़ रही थीं। अतः लाहोर के समाचार पत्र तनज़ीम अहले हदीस की एडीटर के शब्दों में प्रत्येक मुसलमान की यह इच्छा थी कि:

यदि जीवन के इन अन्तिम क्षणों में एक बार फ़िर ख़िलाफ़त अला मिनहाजिन्नबुव्वत का दर्शन हो गया तो हो सकता है कि मिल्लते इस्लामिया की बिगड़ी संवर जाए और एक रूठा हुआ ख़ुदा फिर से मान जाए और भंवर में घिरी हुई मिल्लते इस्लामिया की यह नाव शायद किसी तरह इससे निकलकर सुरक्षित किनारे पर आ जाए।[6]

हम किन शब्दों में इन हसरत भरे दिलों को यह ख़ुशख़बरी सुनाएं कि 27 मई 1908 ई. का दिन इस्लाम व अहमदिय्यत के इतिहास में ख़ुशी का समाचार लाया। इस मुबारक दिन में अल्लाह तआला की क़ुदरत-ए-सानिया (दूसरी क़ुदरत अर्थात ख़िलाफ़त) का प्रकटन हुआ और ख़ुदाई वादा और आँहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख़ुशख़बरियों के अनुसार हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम के देहान्त के पश्चात् ख़िलाफ़त अला मिनहाजिन्नबुव्वत का सिलसिला दोबारा शुरू हुआ और ख़ुदा तआला की कृपा से इसी सच्ची इस्लामी ख़िलाफ़त के नेतृत्व में अहमदिय्यत का कारवां इस्लाम के झन्डे को लेकर आज दुनिया के चारों कोनों में तब्लीग़ी जिहाद में व्यस्त है।

कहा जाता है कि विश्व में 70 करोड़ मुसलमान रहते हैं उनमें 69 करोड़ धनवान भी हैं तथा पढ़े लिखे भी, उनके पास सत्ता और राज भी है लेकिन उनका ऐसा कोई नेता नहीं जिसका आज्ञापालन  सब करें। दूसरी ओर एक करोड़ अहमदिया मुस्लिम जमाअत के लोग जो ग़रीब, दरिद्र और हुकूमत और सत्ता से कोसों दूर हैं लेकिन उनका एक इमाम (मार्गदर्शक) है जिसका आज्ञापालन सभी करते हैं। इसका परिणाम यह है कि एक करोड़ का समुदाय इस्लाम की तब्लीग़ और क़ुर्आन के प्रचार-प्रसार में जो महान कारनामे सर अंजाम दे रहा है उसका दसवां हिस्सा भी फूट में ग्रस्त 69 करोड़ मुसलमान नहीं कर सके। आह वह काफ़िला जो अपने आपको एक इंजन को सौंपने के लिए तैयार नहीं। और यह कोई ज़ुबानी दावा नहीं बल्कि एक दुनिया ने इसे स्वीकार किया है। अतः विख्यात पत्रकार व मुस्लिम नेता मौलाना ज़फ़र अली ख़ान ज़फ़र, एडीटर समचार पत्र ज़मीनदार लाहोर ने लिखा:

घर बैठकर मुसलमानों को बुरा भला कह लेना बहुत सरल है लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि यही एक समुदाय है जिसने अपने मुबल्लिग़ीन (धर्म प्रचारकों) को इंगलैन्ड व अन्य यूरोपियन देशों में भेज रखा है। क्या नदवतुल उलमा देवबंद, फ़िरंगी महल और दूसरे अन्य शैक्षणिक व धार्मिक केन्द्रों से यह नहीं हो सकता कि वे भी तब्लीग़ तथा सत्य को फ़ैलाने का सौभाग्य प्राप्त करें। क्या हिन्दुस्तान में ऐसे धनि मुसलमान नहीं जो चाहें तो तुरन्त एक मिशन का ख़र्च अपनी जेब से दे सकते हैं।[7]

कहा जाता है कि अहले हदीस संगठन से एक करोड़ का जत्था जुड़ा हुआ है और इधर जमाते अहमदिय्या के सदस्यों की तादाद भी इतनी ही है। आइए इस बात के सबूत में कि “अनुशासन कुछ काम नहीं देता ख़िलाफ़त के बग़ैर” हम दोनों समुदायों की एक घटनात्मक तुलना प्रस्तुत करते हैं ताकि पाठकों को सच्ची इस्लामी ख़िलाफ़त पर एक लाजवाब दलील मिले।

अहले हदीस के संगठन ने 1973, 1974 दो वर्षों के 60 हज़ार रुपयों का बजट मनज़ूर किया और जो प्रतिक्रिया इस संगठन के सदस्यों ने दिखाई वह इस अपील से ज़ाहिर है। श्रीमान अब्दुल हमीद रहमानी साहिब नाज़िम अमूमी मरकज़ी जमीअत अहले हदीस, हिन्द लिखते हैं:

किसी भी संगठन और आंदोलन के कार्यबल का एक ही आधार उसके सदस्यों की वफ़ादारी और कुर्बानियों पर होता है। मरकज़ी जमीअत अहले हदीस हिन्द अपने महान उद्देश्यों, बेनज़ीर इतिहास और सही आस्था के बावजूद अपने बनाए गए प्रोग्रामों के पूरा करने में उचित कामयाबी इस वजह से नहीं प्राप्त कर पा रही है कि समुदाय के सदस्य अपने दायित्वों और उनके व्यावहारिक कारणों से अनभिज्ञ हैं।

इस ग़फ़लत का स्पष्ट उदाहरण यह है कि मरकज़ी मजलिसे शूरा के इजलास सितम्बर 1973 ई. में जो सरल बजट मनज़ूर किया गया था समस्त प्रयासों के बावजूद दो वर्षों की दीर्घावस्था में उसकी चौथाई राशि भी समुदाय ने पूरी नहीं की यहाँ तक कि इजलास की वादा की गई राशि भी कार्यालय को प्राप्त न हो सकी।

….. आप आने वाले रमज़ान के मुबारक महीने….. में ख़ुद भी मदद करें और दूसरे भाइयों तथा निष्ठावान लोगों से भी मदद करायें ताकि 13 अगस्त 1974 ई. को आयोजित होने वाली मजसिले आमला की मीटिंग द्वारा पास किया 60 हज़ार रुपयों का बजट अवश्य ही इस मुबारक महीने में उपलब्ध हो जाए। लगभग एक करोड़ लोगों पर आधारित जमाअत अहले हदीस के लिए इतने थोड़े बजट की उपलब्धता साधारण बात है।

दूसरी ओर जमाअते अहमदिय्या के वर्तमान इमाम ने जलसा सालाना 1973 के मौक़ा पर लाज़मी चन्दों इत्यादि पर आधारित वार्षिक 2 करोड़ 26 लाख रुपयों के अतिरिक्त इस्लाम के ग़लबा की तैयारी के लिए एक महान योजना का ऐलान करते हुए जमाअत से ढाई करोड़ रुपयों की मांग की और साथ ही फ़रमाया कि मुझे उम्मीद है कि जमाअत 5 करोड़ रुपयों तक जमा कर देगी। शाबाशी है कि जमाअत-ए-अहमदिय्या के सदस्यों ने अपने प्यारे ख़लीफ़ा की आवाज़ पर “उपस्थित हैं” कहते होते हुए आपकी उम्मीदों से अधिक साढ़े 12 करोड़ रुपये देने के वादे किये जिसकी हर महीने किस्तों में वसूली का प्रबंध जारी है।

ख़लीफ़ा वक्त की आवाज़ पर उसकी जमाअत ने जो प्रतिक्रिया दिखाई वह हमारे महान इमाम के मौजूदा संदेश से स्पष्ट है जो आप ने जमाअत के सदस्यों के नाम दिया उसका एक उदाहरण हम भी पाठकों के लिए प्रस्तुत करते हैं ताकि यह तुलना हर तरह से पूर्ण हो जाए और हम बुद्धिजीवि इस बात को जान लें कि यह अन्तर केवल और केवल सच्ची ख़िलाफ़त की देन है।

हुज़ूर अनवर फ़रमाते हैं:

मैंने जलसा सालाना 1973 ई के अवसर पर जमाअते अहमदिय्या बैरून की शिक्षा और इस्लाम के प्रचार-प्रसार के काम को तेज़ करने और उसके ग़लबा के दिन को निकट से निकट लाने की एक मुहिम का आरम्भ करते हुए “सद साला अहमदिय्या जुबली मनसूबा” के नाम से एक बहुत बड़े मनसूबे का ऐलान किया था और जमाअत के निष्ठावान सदस्यों से अपील की थी कि वे खुले दिल से “सद साला अहमदिय्या जुबली फंड” में अपने चंदों के वादे लिखवाएं जो आगे चलकर उन्होंने 15 वर्षों में पूरे करने होंगे।

मैं अल्लाह तआला का बहुत बहुत आभार व्यक्त करता हूँ कि उसने मेरी आवाज़ में ऐसा असर पैदा किया और जमाअत ने बहुत उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस तहरीक में बड़े खुले दिल से वादे लिखवाए जो वास्तविक तहरीक से भी कई गुना अधिक थे। इस पर अल्लाह की भूरि-भूरि प्रशंसा।

अतः एक ओर हसरत, नाउम्मीदी और अफ़सोस ही अफ़सोस है और दूसरी ओर दिलों में ख़ुशी है, उमंगें हैं और वलवले हैं और ज़बानों पर ख़ुदा तआला की प्रशंसा के गीत हैं और एक जुट होकर काम करते हैं।

हमारे इन भाइयों की हालत तो वास्तव में इस पंक्ति के अनुसार मालूम होती है।

यारान-ए-तेज़गाम ने मह्मल को जा लिया।

हम महव-ए-नाला-ए-जरस-ए-कारवां रहे।।[8]

(अर्थात:- हम रोने धोने मे इतने मगन रहे कि काफले के जाने की घंटी न सुन सके जब होश आया तो देर हो चुकी थी और काफला जा चुका था। हम में से जो तेज़ चलने वाले थे उन्होंने हिम्मत न हारी और अन्ततः काफले से जा मिले।)

ख़ुदा तआला से दुआ है कि वह हमारे भाइयों को सद्बुद्धि प्रदान करे ताकि वे सच्ची ख़िलाफ़त के दामन से चिमट जाएं और इस्लाम के प्रचार और क़ुर्आन के प्रसार के कामों में हमारे भागीदार बन जाएं। वरना केवल ज़ुबान से अपनी इस हसरत का इज़हार करना कि काश हमारा भी कोई इंजन होता व्यर्थ है यदि हम स्वयं अपने आपको इंजन के सुपुर्द करने के लिए तैयार न हों।

सन्दर्भ

[1] साप्ताहिक अल-जम्इय्या, जुमा प्रकरण, प्रकाशन व मई 1969

[2] बांग-ए-दरा अल्लामा इक़बाल

[3] पवित्र क़ुर्आन 24:56

[4] मुसनद अहमद खण्ड 5, पृष्ठ 404

[5] शहादातुल क़ुर्आन पृष्ठ 44

[6] अखबार तनज़ीम अहले हदीस 12 सितम्बर 1969

[7] अख़बार ज़मीनदार लाहौर दिसंबर 1926 [8] अल्ताफ हुसैन हाली का एक शेर है

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