हर साल मुहर्रम महीने के पहले दस दिन दुनिया भर के मुसलमान इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में दुःख प्रकट करते है। 1400 साल पहले गुज़री इस घटना में जान देने वालों में अक्सर मुहम्मदस अ व के रिश्तेदार थे।
अनसार अली ख़ान, सोलापुर
20 अगस्त 2021
मैदाने करबला की लड़ाई तथा वो घटना इस्लामी इतिहास की एक कड़वी सच्चाई है। जिस में पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे (नाती) हज़रत इमाम हुसैन को बेदर्दी से शहीद कर दिया गया था।
इतिहास के मुताबिक़ इस घटनाक्रम की बुनियाद बहुत पहले रखी जा चुकी थी । लेकिन सन 65 हिजरी में अमीर मुआविया ने अपने बेटे यज़ीद जो कि एक दुराचारी और दुष्ट आदमी था, को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जो कि अपनी हुकूमत में अन्याय और अधर्म करता था । 60 हिजरी में अमीर मुआविया की मृत्यु के उपरांत यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन और अन्य सहाबा तथा आले रसूल पर अपनी बैअत करने के लिए दबाव डाला।
षड़यंत्र के अंतर्गत इधर इराक़ और कूफ़ा के लोगों ने हज़रत इमाम हुसैन को कई ख़त लिख कर कूफ़ा आने को कहा ताकि वो उनके हाथ पर बैअत कर के उन्हें अपना ख़लीफ़ा बनाएं जबकि यज़ीद चाहता था कि हज़रत इमाम हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ मिल गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। परन्तु लाख दबाव के डालने के उपरांत भी हज़रत इमाम हुसैन ने उस दुराचारी की किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यज़ीद ने हुसैन को रोकने की योजना बनाई।
4 मई 660 ई. को इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्का पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि शत्रु (यज़ीद के सैनिक) हाजियों के भेष में आकर उनका क़त्ल कर सकते हैं। हज़रत हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर ख़ून बहे इसलिए हज़रत इमाम हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफा की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।
इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस ज़मीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस ज़मीन को पहले इमाम हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाए। यज़ीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यज़ीद की शर्तें नहीं मानीं, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी की सप्लाई बंद कर दी गई। यज़ीद की फौज को देख कर कूफ़ा और इराक के लोग जिन्होंने इमाम हुसैन को अपना खलीफा बनाने के लिए बुलाया था उन्होंने ने भी साथ छोड़ दिया।
तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यज़ीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा इमाम हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन ने तीन दिन की प्यास के बाद भी यज़ीद की बात नहीं मानी तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद इमाम हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि हे अल्लाह मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे सब शहीद हो जाएं, लेकिन अल्लाह का दीन इस्लाम बचा रहे।
10 अक्टूबर, 660 ई. को सुबह नमाज़ के समय से ही जंग छिड़ गई। जंग तो कहना ठीक न होगा क्योंकि एक ओर हज़ारों की फौज थी, दूसरी तरफ 72 लोगों का परिवार और उनमें भी कुछ मर्द, लेकिन इतिहासकार जंग ही लिखते हैं।
वैसे इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 मर्द थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इन शहीदों में दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हज़रत कासिम को जीवित ही घोड़ों की टापों से रौंद डाला और सात साल आठ महीने के बच्चे के सिर पर तलवार से वार करके शहीद कर दिया।
और बहुत ही बेदर्दी से हज़रत इमाम हुसैन को शहीद करने के बाद आले रसूल और उनके साथियों पर जो अत्याचार हुआ उसका वर्णन करते हुए हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद साहिब इमाम जमाअत अहमदिया फ़रमाते हैं – कूफ़ा वालों ने तंबुओं को लूटना शुरू कर दिया यहां तक कि महिलाओं के सर से दुपट्टा भी छीन लिया, उमरो बिन सअद ने घोषणा की कि इमाम हुसैन को उनके घोड़ों के टापू तले कौन रौंदेगा ? यह सुनकर, दस घुड़सवार निकले जिन्होंने अपने घोड़ों के साथ पैगंबर साहिब के प्यारे नवासे की लाश को रौंद डाला (यहाँ तक कि उनके सीने और पीठ को भी तोड़ दिया)। इस लड़ाई में, इमाम हुसैन के शरीर पर 45 तीर के घाव थे। एक अन्य कथन के अनुसार, 33 घाव भाले के थे और 45 घाव तलवारों से हुए थे और तीर के घाव उनके अतिरिक्त थे। और फिर क्रूरता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई कि इमाम हुसैन का सिर काटकर उनके शरीर से अलग कर दिया गया और अगले दिन उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद को कुफ़ा के गवर्नर के पास भेज दिया गया और गवर्नर ने कूफ़ा में इमाम हुसैन का सिर लगा दिया। उसके बाद ज़हर बिन क़ैस के हाथों सर को यज़ीद के पास भेजा गया।[1]
यह वह सलूक था जो उनकी शहादत के बाद उनके शरीर के साथ किया गया था। इससे अधिक क्रूरता और क्या हो सकती है ? आपका शरीर कुचला हुआ था, सर धड़ से अलग कर दिया गया था। लाश का ऐसा अपमान शायद ही किसी क्रुर शत्रु ने अपने किसी शत्रु से किया होगा।
प्रिय पाठको ! फ़िर ख़ुदा ताला ने उन अत्याचारियों से देखिए कैसा भयानक बदला लिया । इस संबंध में हज़रत मिर्ज़ा बशीरुद्दीन महमूद अहमद साहिब (जमाअत अहमदिया के दूसरे ख़लीफ़ा) ने अपनी पुस्तक ‘ख़िलाफ़त-ए-राशिदा’ में एक घटना का उल्लेख किया है कि:
इतिहास में लिखा गया है कि यज़ीद की मृत्यु के बाद जब उसका पुत्र सिंहासन पर चढ़ा, जिसका नाम भी उसके दादा मुअविया के नाम पर रखा गया था तो लोगों से बैअत लेने के बाद वह घर चला गया और वह चालीस दिन तक बाहर नहीं निकला। फिर एक दिन वह बाहर आया और मेंबर पर खड़ा हो गया और लोगों से कहा कि मैंने अपने हाथों से आपके प्रति बैअत की शपथ ली है, परन्तु इसलिए नहीं कि मैं अपने आप को आपके प्रति बैअत लेने के योग्य समझता हूं, बल्कि इसलिए कि मैं चाहता था कि आपके बीच कोई मतभेद या फूट न पड़े। और उस समय से अब तक मैं अपने घर में सोच रहा हूं कि अगर आप में से कोई भी लोगों से बैअत लेने में सक्षम है, तो मैं उसे अमारत सौंप दूंगा और मैं इस ज़िम्मेदारी से स्वतंत्र हो जाऊंगा। लेकिन ग़ौर करने के बावजूद मैंने आपके बीच ऐसे किसी आदमी को नहीं पाया। इसलिए हे लोगो! ध्यान से सुनो कि मैं इस पद के योग्य नहीं हूं और मैं यह भी कहना चाहता हूं कि मेरे पिता और मेरे दादा भी इस पद के योग्य नहीं थे। मेरे पिता हज़रत हुसैन से हीन थे (दर्जे में कम थे) और उनके पिता हुसैन के पिता से हीन थे। हज़रत अली ही अपने समय में ख़िलाफत के हक़दार थे और उसके बाद मेरे दादा और पिता से अधिक हसन और हुसैन ख़िलाफत के अधिकारी थे। इसलिए मैं इस अमारत से इस्तीफा दे रहा हूं।[2]
बुराई कितने ही पैर क्यों न पसारे आख़िर उसका अंजाम बुरा ही होता है। अल्लाह ताला हमें आले रसूल से बेपनाह मुहब्बत और प्रेम करने तथा उन पर ज़्यादा से ज़्यादा दरूद भेजने वाला बनाए। अल्लाहुम्मा सल्लि आला मुहम्मदिन व आले मुहम्मद व बारिक व सल्लिम इन्नका हमीदुम मजीद् आमीन।
लेखक जामिअतुल मुबश्शिरीन – अहमदिया धार्मिक संस्थान – से स्नातक हैं और महाराष्ट्र में प्रचारक के रूप में कार्यरत हैं।
सन्दर्भ
[1] ख़ुत्बा जुम्मा 10 दिसंबर 2010 ई
[2] अनवार-उल-उलूम खंड 15 पृष्ठ 557-558
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