अनसार अली ख़ान
APRIL 20, 2021
रमज़ान को नेकियों अथवा पुण्यकर्मों का बसंत कहा गया है, इस महीने में एक मुसलमान अल्लाह की उपासना तथा अन्य पुण्यकर्म ज़्यादा करता है।और अपने ख़ुदा को संतुष्ट करने के लिए रात को उठ-उठ कर उपासना के साथ,पवित्र क़ुरआन की तिलावत करता है, ग़रीबों,यतीमों असहायों की मदद करता है सदक़ा-ख़ैरात अर्थात दान-पुण्य आदि समस्त पुण्यकर्म करता है। कारण साधारण दिनों में की गई नेकियों के मुक़ाबले में इन दिनों की गई नेकियों का अजर (फल) अधिक मिलता है। इस्लाम की पांच बुनियादी स्तंभों में से रोज़ा भी एक स्तंभ है । इस्लामी मान्यताओं के अनुसार रमज़ान का चांद नज़र आते ही एक मुसलमान पर यह अनिवार्य है कि अगर वो बीमार या मुसाफ़िर नहीं है तो महीने भर रोज़ा रखे,तथा अल्लाह की आज्ञा का पालन करे।
पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ताला वर्णन करता है :-
हे वे लोगो जो ईमान लाये हो ! तुम पर रोज़े उसी प्रकार अनिवार्य कर दिये गये हैं जिस प्रकार तुम से पूर्ववर्ती लोगों पर अनिवार्य कर दिये गये थे ताकि तुम तक़वा धारण करो (संयमी बनो)।
गिनती के कुछ दिन हैं। अतः जो भी तुम में से रोगी हो अथवा यात्रा पर हो तो उसे चाहिए कि इतने दिनों के रोज़े दुसरे दिनों में पुरे करें। और जो लोग इसकी शक्ति रखते हों उन पर एक दरिद्र को भोजन कराना फ़िदया अर्थात प्रायश्चित स्वरूप है। अतः जो कोई भी अतिरिक्त पुण्य कर्म करे तो यह उसके लिए बहुत अच्छा है। और यदि तुम ज्ञान रखते हो तो तुम्हारा रोज़े रखना तुम्हारे लिए उत्तम है। (सुरह् बक़र:)
रोज़ा रखने वाला मुंह से अश्लील बातें नहीं निकालता, हर समय तस्बीह व तह्मीद (जप-तप) में मग्न रहता है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफा स्वल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का एक अनुचर (साथी-सहाबी) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ी) वर्णन करते हैं कि अल्लाह के रसूल स्वल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा ‘‘गौरव का स्वामी, प्रतापवान अल्लाह कहता है – आदम के बेटे (मनुष्य) का प्रत्येक कर्म उसके लिए है सिवाए रोज़े के,क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही उसका बदला दूँगा,और रोज़ा क़वच है अत: जब तुम में से किसी का रोज़ा हो तो न तो वो अश्लील बातें ज़बान पर लाए और न शोर मचाए, और अगर कोई उसे गाली दे या झगड़े तो वो उसे कह दे कि मैं रोज़े से हूँ। मुझे उसकी क़सम है जिसके हाथ में मुहम्मद की जान है, रोज़ेदार के मुँह की बू अल्लाह की निगाह में मुश्क की बू से भी ज़्यादा उत्तम है। रोज़ेदार के लिए दो ख़ुशियां हैं जो उसे प्राप्त होंगी। एक जब वह रोज़ा खोलता है तो उसे ख़ुशी प्राप्त होती है और दुसरा जब वोह अपने रब्ब से मिलेगा तो उसे अपने रोज़े के कारण ख़ुशी होगी। ( बुख़ारी, मुस्लिम)
अंतर्राष्ट्रीय अहमदिया मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहिब क़ादियानी रोज़ा की वास्तविकता वर्णन करते हुए फ़र्माते हैं कि – तीसरी बात जो इस्लाम का स्तम्भ है वह रोज़ा है। रोज़ा की वास्तविकता से भी लोग अपरिचित हैं। वास्तविकता यह है कि जिस देश में इन्सान जाता नहीं और जिस जगत से वह परिचित नहीं उसकी अवस्था भला वोह क्या वर्णन करे ? रोज़ा इतना ही नहीं कि इस में इन्सान भूखा प्यासा रहता है, बल्कि इस की एक वास्तविकता और इस का प्रभाव है जो अनुभव से ज्ञात होता है। मानवीय प्रकृति में है कि जितना कम खाता है उतना उसकी आत्मा शुद्ध होती है और आध्यात्मिक शक्तियां बढ़ती हैं। ख़ुदा तआला की इच्छा इस से यह है कि एक खाने को कम करो और दूसरे को बढ़ाओ। हमेशा रोज़ा रखने वाले को अपने समक्ष यह लक्ष्य रखना चाहिए कि इस से इतना ही अभिप्राय नहीं है कि भूखा रहे बल्कि इसे चाहिए कि ख़ुदा तआला के ज़िक्र में लीन रहे । अत: रोज़े से यही अभिप्राय है कि इन्सान एक रोटी को छोड़ कर जो केवल शरीर का पोषण करती है दूसरी रोटी को प्राप्त करे जो आत्मा के सन्तोष का कारण है। जो लोग केवल ख़ुदा के लिए रोज़े रखते हैं और केवल दिखावे के लिए नहीं रखते उन्हें चाहिए कि अल्लाह तआला की प्रशंसा और तस्बीह (जप-तप) में लगे रहें जिस से दूसरा खाना उन्हें प्राप्त हो जावे।
(अल्-हकम, जिल्द नम्बर १, ८ जून १९०५ ई. पृ. २)
ज्ञात हो कि रमज़ान रोज़े का एक महान उद्देश्य किसी भूखे की भूख का निवारण करना है। एक भूखा ही दुसरे भूखे की भूख की जलन को समझ सकता है। अतः अल्लाह ताला का आज्ञा पालन करते हुए सदक़ा-ख़ैरात् दान-पुण्य करके ग़रीब असहायों तथा भूखों के भूख का निवारण करने से रमज़ान में रोज़े का महान उद्देश्य पुर्ण होगा।
लेखक अहमदिया मुस्लिम जमात सोलापुर के मिशनरी हैं |
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