शाह हारून सैफी
“काफ़िर” शब्द सुनते ही कुछ लोगो के ह्रदय में इस्लाम धर्म के बारे में विचित्र प्रकार की धारणाएँ आने लगती हैं। काफ़िर कौन है? क्या इस्लाम धर्म अपने प्रभुत्व के लिए काफ़िरों के साथ भेदभाव का आदेश देता है? क्या इस्लाम समस्त काफ़िरों का वध करने का आदेश देता है? वर्तमान काल में इस जैसे बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर इस्लामी शिक्षानुसार न मिलने पर इस्लाम के प्रति घृणा बढ़ती जा रही है और लोग इस्लामी शिक्षा से अज्ञानता के कारण स्वयं यह धारणा बना लेते हैं कि मानो इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो दूसरे धर्मों के प्रति घृणा की शिक्षा देता है। अतः आज ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर इस्लाम की वास्तविक शिक्षा के आलोक में देना हमारे इस निबन्ध का प्रमुख उद्देश्य है।
“काफ़िर” शब्द निंदनीय नहीं
अरबी शब्दकोष के अनुसार काफ़िर शब्द का एक अर्थ है ” इन्कार करने वाला ” अतः इस्लामी मान्यताओं के अनुसार ऐसा व्यक्ति जो स्वयं इस्लाम धर्म का इन्कार करता है उसे “काफ़िर” अर्थात “इस्लाम धर्म का इन्कारी” कहा जाता है। काफ़िर शब्द एक निंदनीय शब्द नहीं है क्योंकि ईश्वर पवित्र क़ुरआन में एक मुसलमान के लिए भी काफ़िर (इन्कार करने वाला) शब्द का प्रयोग करता है। अल्लाह तआला पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है
فَمَن يَكفُر بِالطّاغوتِ وَيُؤمِن بِاللَّهِ فَقَدِ استَمسَكَ بِالعُروَةِ الوُثقىٰ لَا انفِصامَ لَها ۗ وَاللَّهُ سَميعٌ عَليمٌ
अर्थात: अतः जो कोई शैतान का इन्कार करे और अल्लाह पर ईमान लाए तो निःसंदेह उसने एक ऐसे कड़े को पकड़ लिया जिसका टूटना संभव नहीं। और अल्लाह बहुत सुनने वाला (और) स्थायी ज्ञान रखने वाला है। (अल-बक़र- आयत : 257)
उपरोक्त आयत में अल्लाह तआला एक मुसलमान को भी शैतान का काफ़िर अर्थात शैतान का इन्कार करने वाला वर्णित करता है जिससे यह सिद्ध होता है कि शब्द काफ़िर एक निंदनीय शब्द नहीं है अर्थात जो व्यक्ति किसी धर्म, वस्तु अथवा स्थान का इन्कार करता है उस व्यक्ति को उस धर्म, वस्तु अथवा स्थान का काफ़िर कहा जाता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति स्वयं उस धर्म, वस्तु अथवा स्थान का कुफ़्र अर्थात इन्कार कर रहा है।
इस्लाम एक धर्मनिर्पेक्ष धर्म
इस्लाम धर्म का मूल अल्लाह की पुस्तक पवित्र क़ुरआन है। क़ुरआन में अल्लाह तआला समस्त धर्मों को सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है और धर्म के आधार पर किए गए किसी भी प्रकार के अत्याचार को उचित नहीं ठहराता। धर्म के सम्बन्ध में इस्लाम की शिक्षा दर्पण की भाँति साफ़ और स्पष्ट है। धार्मिक स्वतंत्रता के सन्दर्भ में ईश्वर पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है:
لا إِكراهَ فِي الدّينِ ۖ قَد تَبَيَّنَ الرُّشدُ مِنَ الغَيِّ ۚ
अर्थात धर्म में कोई ज़बरदस्ती नहीं। निश्चित रूप से हिदायत पथभ्रष्टता से खुलकर स्पष्ट हो चुकी है। (अल-बक़रः आयत :257)
इसी प्रकार फ़रमाया
لَکُم دِینُکُم وَلِیَ دِینِ
अर्थात तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म। (अल-काफ़िरून आयत : 7) फिर फ़रमाया:
وَلَنا أَعمالُنا وَلَكُم أَعمالُكُم
हमारे कर्म हमारे लिए और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए है। (अल-बक़रः आयत :140)
इसी प्रकार अल्लाह तआला मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम को सम्बोधित करते हुए फ़रमाता है:
فَذَکِّر ۟ؕ اِنَّمَا اَنتَ مُذَکِّرٌ لَستَ عَلَیہِم بِمُصیطِرٍ
अर्थात: अतः बहुत अधिक उपदेश कर। तू केवल एक बार-बार उपदेश करने वाला है। तू उन पर दारोग़ा नहीं। (अल-गाशियः आयत: 22-23)
इसी प्रकार अल्लाह पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है:
لَیسَ عَلَیکَ ہُدٰہُم وَ لٰکِنَّ اللّٰہَ یَہدِی مَن یَّشَآءُ
उनको हिदायत देना तेरा दायित्व नहीं, परन्तु अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है। (अल-बक़रः आयत:273)
निम्नलिखित आयत में अल्लाह तआला हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दायित्व का वर्णन करते हुए फ़रमाता है:
مَا عَلَی الرَّسُولِ اِلَّا البَلٰغُ ؕ وَ اللّٰہُ یَعلَمُ مَا تُبدُونَ وَ مَا تَکتُمُونَ ﴿۱۰۰﴾
रसूल पर भली भाँति सन्देश पहुंचाने के अतिरिक्त और कोई ज़िम्मेदारी नहीं और अल्लाह जानता है जो तुम प्रकट करते हो और जो तुम छुपाते हो। (अल-माइद: आयत:100)
अर्थात धार्मिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में इस्लाम की शिक्षा का सार यह है कि धर्म के सम्बन्ध में कोई ज़बरदस्ती नहीं रसूल यानि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी को हिदायत नहीं दे सकते, हिदायत देने का काम अल्लाह का है। मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम केवल एक उपदेश करने वाले हैं और आपकी ज़िम्मेदारी केवल इतनी है कि आप लोगो तक अल्लाह के सन्देश को पहुंचा दें इस सम्बन्ध में अल्लाह ने आपको दारोग़ा नहीं बनाया जो लोगो से ज़बरदस्ती अपने सन्देश को स्वीकार करवाए। सन्देश पहुंचाने के पश्चात् यदि कोई आपके सन्देश को स्वीकार करने से इन्कार करता है तो अल्लाह तआला यह आदेश देता है कि:
“तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म और हमारे कर्म हमारे लिए और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए है”।
क्या इस्लाम ग़ैर मुस्लिमों से भेदभाव का आदेश देता है?
विस्तारपूर्वक इस बात का वर्णन हो चुका है कि जिन लोगो ने इस्लाम को स्वीकार किया उन्हें मुसलमान कहा गया और जिन लोगो ने इस्लाम का इन्कार किया उन्हें काफ़िर अर्थात इस्लाम धर्म का इन्कारी कहा गया। अब प्रश्न उठता है कि क्या इस्लाम काफ़िरों अर्थात जिन लोगो ने इस्लाम धर्म का इन्कार किया उनसे किसी प्रकार के भेदभाव का आदेश देता है? तो इसका उत्तर है नहीं, कदापि नहीं। पवित्र क़ुरआन और इस्लामी इतिहास को पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम ने धर्म, जाति या रंग व नस्ल के आधार पर कभी भी किसी भी व्यक्ति से भेदभाव की शिक्षा नहीं दी बल्कि इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा समस्त मानवजाति के लिए समानता और मानवता के कल्याण की शिक्षा देती है। अल्लाह तआला पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है:
اَلحَمدُ لِلّٰہِ رَبِّ العٰلَمِین
समस्त प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जो समस्त लोको का रब (प्रतिपालक) है। (अल-फ़ातिह: आयत: 2)
अर्थात जिस प्रकार अल्लाह मुसलानो का रब है उसी प्रकार एक हिन्दू ,सिख या ईसाई का भी रब है।
अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
“हमारे ख़ुदा ने किसी क़ौम से भेदभाव नहीं किया। उदाहरणतया जो-जो मानवीय शक्तियाँ एवं ताकतें आर्यावर्त की प्राचीन क़ौमों को दी गई हैं वही समस्त शक्तियाँ अरबों, फ़ारसियों, शामियों, चीनियों, जापानियों, यूरोप तथा अमरीका की क़ौमों को भी दी गई हैं। सब के लिए ख़ुदा की पृथ्वी फ़र्श का काम देती है और सब के लिए ख़ुदा का सूर्य एवं चन्द्रमा तथा कई अन्य सितारे प्रकाशमान दीपक का काम दे रहे हैं। तथा अन्य सेवाएँ भी कर रहे हैं। उसके द्वारा उत्पन्न तत्त्व अर्थात् वायु, जल, अग्नि और मिट्टी और इसी प्रकार उसकी समस्त पैदा की हुई वस्तुएँ अनाज, फल और औषधि इत्यादि से समस्त क़ौमें लाभ प्राप्त कर रही हैं। अत: ये ख़ुदाई व्यवहार हमें सीख देते हैं कि हम भी अपनी मानवजाति से सहानुभूति और सदव्यवहार के साथ पेश आएं और तंग दिल और संकीर्ण विचारक न बनें।” (पैग़ाम ए सुलह पृष्ठ 3,4)
इसी प्रकार अल्लाह तआला फ़रमाता है:
وَ مَاۤ اَرسَلنٰکَ اِلَّا رَحمَۃً لِّلعٰلَمِینَ ﴿۱۰۸﴾
हमने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को समस्त लोको के लिए रहमत बना कर भेजा है।
(अल-अम्बिया आयत: 108)
अर्थात जिस प्रकार मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक मुसलमान के लिए रहमत हैं उसी प्रकार एक हिन्दू , सिख या ईसाई के लिए भी रहमत हैं।
मानवजाति की सेवा उसके कल्याण और उससे सहानुभूति का जो दुःख, दर्द मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ह्रदय में था उसका वर्णन करते हुए अल्लाह तआला पवित्र क़ुरआन में फ़रमाता है:
لَعَلَّکَ بَاخِعٌ نَّفسَکَ اَلَّا یَکُونُوا مُؤمِنِینَ
यानि क्या तू अपनी जान को इसलिए नष्ट कर देगा कि वे मोमिन नहीं होते। (अश-शुअरा आयत: 4)
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक मुसलमान की परिभाषा का वर्णन इस प्रकार करते हैं कि
الْمُسْلِمُ مَنْ سَلِمَ النَّاسُ مِنْ لِسَانِهِ وَيَدِهِ وَالْمُؤْمِنُ مَنْ أَمِنَهُ النَّاسُ عَلَى دِمَائِهِمْ وَأَمْوَالِهِمْ
मुसलमान वह है जिसके केवल हाथ से ही नहीं अपितु ज़ुबान से भी दूसरे लोग (केवल मुसलमान नहीं ) सुरक्षित रहें और मोमिन वह है जिससे लोगो का खून और उनका माल सुरक्षित रहे। (सुनन नसाई, किताब-उल-ईमान और उसकी शराइत)
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
’’الخلق کلھم عیال اللہ فاحب الخلق الی اللہ انفعھم لعیالہ‘‘
समस्त प्राणी अल्लाह का परिवार हैं और इस परिवार में अल्लाह को सर्वाधिक प्रिय वह है जो इसके परिवार से प्रेम करता है। (अलमोजम अलकबीर हदीस: 33001 )
इसी प्रकार मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया
خیر الناس من ینفع الناس
लोगो में बेहतरीन व्यक्ति वह है जो दूसरे लोगो के लिए (केवल मुसलमानो के लिए नहीं) लाभकारी हो। (शोबुल ईमान लिलबहिकी)
इसी प्रकार आपकी धर्म पत्नी हज़रत ख़दीजारज़ि॰ आपके गुणों का वर्णन करते हुए फ़रमाती हैं:
’’ کلا واللہ کا یُخزیک اللہ ابداً، انک لتصل الرحم و تحمل الکل و تسکب المعدوم و تقری الضیف و تعین علی نوائب الحق‘‘
अल्लाह तआला आपको असफ़ल नहीं करेगा क्योकि आप रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, असहाय लोगों की सहायता करते हैं, अतिथियों का सत्कार करते हैं और आपदाओं के समय लोगो की सहायता करते हैं। (बुख़ारी हदीस: 2)
अर्थात यह है इस्लाम की वह पवित्र और सुन्दर शिक्षा जो बिना किसी धर्म, जाती, रंग व नस्ल के भेदभाव के समस्त मानवजाति के लिए समान रूप से प्रेम, आपसी भाईचारे एवं शान्ति का सन्देश देती है और “प्रेम सब के साथ और घृणा किसी से नहीं” का पाठ पृष्ठ पृष्ठ दोहराती है।
इसके अतिरिक्त इस्लामी इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मुसलमानों के गैर मुस्लिमों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध भी थे और सामाजिक सम्बन्ध भी आर्थिक सम्बन्ध भी थे और राजनितिक एवं धार्मिक सम्बन्ध भी। इस विषय में कुछ उदाहरण अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं।
हज़रत इब्न-ए-अब्बासरज़ि॰ फ़रमाते हैं कि “सहाबा अपने ग़ैर मुस्लिम रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करना पसन्द नहीं करते थे फ़िर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से इस विषय में प्रश्न किया गया तो अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी
لَيْسَ عَلَيْكَ ھُدٰىھُمْ وَلٰكِنَّ اللہَ يَہْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلِاَنْفُسِكُمْ وَمَا تُنْفِقُوْنَ اِلَّا ابْتِغَاۗءَ وَجْہِ اللہِ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ يُّوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ.
उनको हिदायत देना तेरा दायित्व नहीं, परन्तु अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है और जो भी धन तुम ख़र्च करो तो वह तुम्हारे अपने ही हित में है जबकि तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्ति के सिवा (कभी) ख़र्च नहीं करते और जो भी तुम धन में से ख़र्च करो वह तुम्हे भरपूर वापिस कर दिया जाएगा और तुम पर कदापि कोई भी अत्याचार नहीं किया जाएगा। (तफ़्सीर इब्न-ए-कसीर, सुरह बकरा आयत: 273)
अर्थात अल्लाह तआला ने मुसलमानोंको अपने गैर मुस्लिम रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करने और उन पर अपनी धन-दौलत ख़र्च करने की भी आज्ञा दी। इसी प्रकार हदीस में वर्णन है कि हज़रत असमारज़ि॰ फ़रमाती हैं कि:
मेरी माँ जो मुश्रिका थीं मुझसे मिलने आईं। मैंने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा कि मेरी मां मुझसे कुछ आशा रखती हैं क्या मैं उनकी सहायता और उनसे सहानुभूति रख सकती हूँ? आप ने फ़रमाया कि अपनी माँ के साथ अपने रिश्ते को निभाओ। (बुख़ारी हदीस: 2427)
इसी प्रकार इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख है कि:
नजरान (स्थान का नाम) के ईसाई हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सेवा में उपस्थित हुए और काफ़ी देर तक मस्जिद-ए-नबवी में बैठ कर ईसाई धर्म के बारे में बातें करते रहे जब उनकी प्रार्थना का समय आया तो वे उठ कर बाहर जाने लगे तो हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि आप मस्जिद में ही अपनी आस्था अनुसार प्रार्थना कर लें। अतः उन्होंने मस्जिद-ए-नबवी में ही अपनी आस्था अनुसार प्रार्थना की। (तब्क़ात इब्न-ए-साअद जिल्द 1 पृष्ठ 357)
जैसा कि उल्लेख हो चुका है कि मुसलमानों के ग़ैर मुस्लिमों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भी थे अतः उल्लेख है कि:
تُوُفِّيَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ وَدِرْعُهُ مَرْهُونَةٌ عِنْدَ يَهُودِيٍّ بِثَلَاثِينَ صَاعًا مِنْ شَعِيرٍ۔
जब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मृत्यु हुई तो आपकी जरह एक यहूदी के पास गिरवी रखी हुई थी। (बुख़ारी हदीस: 2700)
इसी प्रकार उल्लेख है कि
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के एक सहाबी (साथी) जाबिर बिन अब्दुल्लाह के स्वर्गीय पिता ने एक यहूदी से क़र्ज़ लिया था जब वह यहूदी क़र्ज़ वापस लेने आया तो हज़रत जाबिर और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़र्ज़ वापस करने के लिए थोड़ा और समय माँगा लेकिन उसने अधिक समय देने से इन्कार कर दिया। (सुनन इब्ने माजा हदीस 2528)
इसी प्रकार मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम एक दुसरे के दुःख सुख मे और हंसी ख़ुशी के अवसरों में शामिल होते थे हदीसों में उल्लेख है कि
’’ كَانَ غُلَامٌ يَهُودِيٌّ يَخْدُمُ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَمَرِضَ فَأَتَاهُ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَعُودُهُ
एक यहूदी लड़का बीमार पड़ गया जो हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सेवा करता था तो आप उसे देखने के लिए गए। (बुखारी हदीस: 1268)
इसी प्रकार हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक गैर मुस्लिम का सत्कार किया आपने एक बकरी मँगवाई और उसका दूध निकाल कर उसे दिया। (सुनन तिर्मिज़ी हदीस: 1741)
इसी प्रकार एक यहूदी औरत ने आपका सत्कार किया और आपके खाने में ज़हर मिला दिया। (बुखारी हदीस: 4249)
इसके अतिरिक्त हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब मक्का से हिजरत (प्रवास) करके मदीना पधारे उस समय आपने मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के मध्य सामाजिक एवं धार्मिक स्वतंत्रता और शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित करने के लिए जो सन्धि की वो आज भी समस्त विश्व के लिए मार्गदर्शक और समस्त देशो के लिए एक उदाहरण है।
”मुहम्मद रसूलुल्लाह (स.अ.व.), मोमिनों तथा उन समस्त लोगों, जो उन में प्रसन्नतापूर्वक सम्मिलित हो जाएँ, के मध्य समझौता-पत्र”
- मुहाजिरों (प्रवासियों) से यदि कोई क़त्ल हो जाए तो वे उस क़त्ल के स्वयं उत्तरदायी होंगे तथा अपने बन्दियों को स्वयं छुड़ाएंगे तथा मदीना के विभिन्न मुसलमान क़बीले भी इसी प्रकार इन बातों में अपने क़बीलों के उत्तरदायी होंगे।
- जो व्यक्ति उपद्रव फैलाए या शत्रुता को जन्म दे और व्यवस्था भंग करे, तो समझौता करने वाले समस्त लोग उसके विरुद्ध खड़े हो जाएंगे चाहे वह उनका अपना बेटा ही क्यों न हो।
- यदि कोई काफ़िर मुसलमान के हाथ से मारा जाए तो उसके मुस्लिम परिजन मुसलमान से बदला नहीं लेंगे और न किसी मुसलमान के मुक़ाबले में ऐसे काफ़िरों की सहायता करेंगे।
- यदि कोई यहूदी हमारे साथ मिल जाए तो हम सब उसकी सहायता करेंगे। यहूदियों को इस प्रकार का कष्ट नहीं दिया जाएगा, न उनके किसी विरोधी शत्रु की सहायता की जाएगी,
- कोई ग़ैर मोमिन मक्का के लोगों को अपने घर में शरण नहीं देगा, न उनकी जायदाद अपने पास बतौर धरोहर के रखेगा और न काफ़िरों तथा मोमिनों की लड़ाई में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करेगा।
- यदि कोई व्यक्ति किसी मुसलमान को अनुचित तौर पर मार दे तो समस्त मुसलमान मिलकर उसके विरुद्ध कार्यवाही का प्रयास करेंगे।
- यदि एक मुश्रिक शत्रु मदीना पर आक्रमण करे तो यहूदी मुसलमान का साथ देंगे तथा अपने निश्चित भाग के अनुसार व्यय वहन करेंगे।
- यहूदी क़बीले जो मदीना के विभिन्न क़बीलों के साथ समझौता कर चुके हैं उनके अधिकार मुसलमानों के अधिकारों के समान होंगे।
- यहूदी अपने धर्म पर बने रहेंगे और मुसलमान अपने धर्म पर।
- जो अधिकार यहूदियों को प्राप्त होंगे वही उन के अनुयायियों को भी प्राप्त होंगे।
- मदीना के लोगों में से कोई व्यक्ति मुहम्मद रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की आज्ञा के बिना कोई लड़ाई आरम्भ नहीं कर सकेगा परन्तु इस शर्त के अन्तर्गत कोई व्यक्ति उसके बदला से वंचित नहीं किया जाएगा।
- यहूदी अपने संगठन में अपने ख़र्चे स्वयं वहन करेंगे और मुसलमान अपने ख़र्चे स्वयं वहन करेंगे परन्तु लड़ाई की अवस्था में वे दोनों मिलकर कार्य करेंगे।
- मदीना उन समस्त लोगों के लिए जो इस समझौता में सम्मिलित होते हैं एक प्रतिष्ठित स्थान होगा।
- जो अनजान लोग शहर के लोगों की सहायता में आ जाएँ उनके साथ भी वही व्यवहार होगा जो शहर के मूल निवासियों के साथ होगा परन्तु मदीना के लोगों को यह अनुमति न होगी कि किसी स्त्री को उसके परिजनों की सहमति के विपरीत अपने घरों में रखें।
- झगड़े और फ़साद निर्णय के लिए हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) का पवित्र जीवन ख़ुदा और उसके रसूल के पास प्रस्तुत किए जाएँगे।
- मक्का वालों तथा उसके मित्र क़बीलों के साथ इस समझौते में सम्मिलित होने वाले कोई समझौता नहीं करेंगे क्योंकि इस समझौते में सम्मिलित लोग मदीना के शत्रुओं के विरुद्ध इस समझौते द्वारा सहमत हो चुके हैं।
- जिस प्रकार युद्ध पृथक तौर पर नहीं किया जा सकेगा उसी प्रकार संधि भी पृथक तौर पर नहीं की जा सकेगी। परन्तु किसी को विवश नहीं किया जाएगा कि वह लड़ाई में सम्मिलित हो।
- हाँ यदि कोई व्यक्ति अत्याचार का कोई कार्य करेगा तो वह दंडनीय होगा। ख़ुदा निश्चय ही सदाचारी और धर्मनिष्ठों का रक्षक है और मुहम्मद (स.अ.व.) ख़ुदा के रसूल हैं।
यह उस समझौते का सारांश है। इस समझौते में बार-बार इस बात पर बल दिया गया था कि ईमानदारी और जीवन की स्पष्टता को हाथ से नहीं जाने दिया जाएगा तथा अत्याचारी अपने अत्याचार का स्वयं उत्तरदायी होगा। इस समझौते से स्पष्ट है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की ओर से यह निर्णय हो चुका था कि यहूदियों तथा मदीना के उन लोगों के साथ जो इस्लाम में सम्मिलित न हों, प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार किया जाएगा तथा उन्हें भाइयों की तरह रखा जाएगा। परन्तु बाद में यहूदियों के साथ जितने भी झगड़े पैदा हुए उसके उत्तरदायी सर्वथा यहूदी ही थे। (इब्ने हिशाम जिल्द-प्रथम, पृष्ठ-178)
इस पवित्र शिक्षा, इन सब तथ्यों और प्रमाणों की उपस्थिति में कोई बुद्धिमान व्यक्ति यह आरोप लगा सकता है कि इस्लाम, धर्म, जाति या रंग व नस्ल के आधार पर भेदभाव का आदेश देता है या किसी प्रकार के अत्याचार को उचित ठहराता है? कदापि नहीं बल्कि इस्लाम के इस सुन्दर वन में समस्त मानवजाति शान्ति आपसी भाईचारे और प्यार मुहब्बत से अपना जीवन व्यतीत करती है।
अहमदियत अर्थात इस्लाम का वास्तविक स्वरूप
अहमदिया मुस्लिम जमाअत गत 125 वर्षो से इस्लाम की इस पवित्र शिक्षा के अनुसार बिना किसी धर्म, जाति या रंग व नस्ल के भेदभाव के समस्त मानवजाति की सेवा करने हेतु प्रयासरत है। और समस्त विश्व में शान्ति संगोष्ठियों, सर्वधर्म सम्मेलन, पुस्तक मेलों और जलसों जैसे विभिन्न प्रकार के कार्यकर्मों के माध्यम से अपने सन्देश “प्रेम सबके साथ और घृणा किसी से नहीं” को जन-जन तक पहुँचा रही है। अहमदिया मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:
“हमारा यह सिद्धांत है कि सभी मानव जाति से सहानुभूति करो। अगर एक व्यक्ति किसी पड़ोसी हिन्दू को देखता है कि उसके घर मे आग लग गई और यह नही उठता कि आग बुझाने में मदद दे तो मैं सच सच कहता हूँ कि वह मुझसे नही है। अगर एक व्यक्ति हमारे अनुयायियों में से देखता है कि एक ईसाई की कोई हत्या करता है और वह उसे छुड़ाने के लिए मदद नही करता तो मैं तुम्हे सही कहता हूँ कि वह हम में से नही है।” (सिराज-ए-मुनीर पृष्ठ 28)
इसी प्रकार अहमदिया मुस्लिम जमाअत के पांचवे ख़लीफ़ा हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ फ़रमाते हैं:
“पवित्र क़ुर्आन में वर्णन है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह का एक गुणवाचक नाम ‘सलाम’ है जिसका अर्थ है ‘शान्ति का स्रोत’ इस से यह अभिप्राय है कि यदि परमात्मा वास्तव में ‘शान्ति का स्रोत’ है तो उसकी शान्ति केवल एक विशेष समुदाय तक सीमित न हो कर समस्त सृष्टि और समस्त मानवजाति पर आच्छादित होनी चाहिए। यदि परमात्मा की शान्ति केवल कुछ लोगों तक की सुरक्षा के लिए थी तो इस अवस्था में उसे समस्त संसार का परमात्मा नहीं कहा जा सकता। सर्वशक्तिमान परमात्मा ने इस का उत्तर पवित्र क़ुर्आन में इन शब्दों में दिया है:
“और हमें इस रसूल की उस बात की सौगंध! जब उसने कहा था कि हे मेरे रब्ब! यह जाति तो ऐसी है ईमान नहीं लाती। अतः उन्हें छोड़ दे और कह ‘तुम पर अल्लाह की शान्ति हो’, ‘और वे शीघ्र ही जान जाएंगे।’(अज़-ज़ुख़रुफ़ आयत: 89-90)
इन शब्दों से यह ज्ञात होता है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ऐसी शिक्षा लाए थे जो समस्त लोगों के लिए शान्ति और दया का स्रोत थी और फलतः समस्त मानवजाति के लिए शान्ति का माध्यम थी”। (विश्व संकट तथा शान्ति-पथ, पृष्ठ 165,166)
हम अल्लाह तआला से दुआ करते है कि अल्लाह तआला हमें इस्लाम की पवित्र शिक्षा को समझने और इसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने की शक्ति प्रदान करे। आमीन
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