polygamy

नबी करीम स.अ.व के विवाहों की  बुद्धिमत्ता (हिकमत) प्राच्यवादियों की कुछ आपत्तियों तथा उनके उत्तर


JULY 31, 2021

लेख का स्रोत

हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बहुत से विवाह राष्ट्रीय व राजनैतिक कारणों से हुए क्योंकि आप स. अ. व. चाहते थे कि अपने विशेष सहाबियों को विवाह के माध्यम से अपने साथ प्रेम के सम्बन्ध में जोड़ लें।
प्रिय पाठको! बुद्धि मनुष्य को ईश्वर की ओर से प्रदान किया गया वह उपहार है जिसके द्वारा वह सत्य तथा सीधी राह को प्राप्त कर लेता है। परन्तु कभी कभी साम्प्रदायिक व धार्मिक पक्षपात एवं नकरात्मक प्रवृत्ति मनुष्य की बुद्धि पर पर्दा डाल देती है ऐसे में सत्य कितना भी स्पष्ट क्यों न हो उसको समझना कठिन हो जाता है। पश्चिम के तथाकथित शोधकर्ताओं ने जब शोध की वेशभूषा में अपने निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इस्लाम तथा मुसलमानों से सम्बन्धित हर चीज़ को अपने अनुचित आरोपों और सख़्त आलोचना का निशाना बनाना आरम्भ किया तो विशेष तौर पर पैग़म्बर ए इस्लाम स. अ. व. के पवित्र चरित्र को दागदार करने और आप के प्रति मुसलमानों की आस्था को कमज़ोर करने के लिए अपना सम्पूर्ण बल लगा दिया और आप स. अ. व. के पाक चरित्र पर ऐसे बेतुके आरोप लगाए जिनका बुद्धि, तर्क और सत्य से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। इस सम्बन्ध में प्राच्यविदों की वे मनगढ़त और काल्पनिक बातें भी हैं जिनमें उन्होंने रसूल -ए – करीम स. अ. व. के बहुविवाह को लेकर बहुत लांछन लगाए हैं। ये आरोप ऐसे बेतुके हैं कि इन घटनाओं के कारणों पर नज़र रखने वाला कोई भी समझदार व्यक्ति ऐसे आरोप लगाने वालों की कज-फहमी, झूठ और तथ्यों से मुँह मोड़ने को बड़ी सरलता से मालूम कर सकता है।

प्राच्यविदों के आरोप
प्राच्यविदों ने बहुविवाह को आधार बनाकर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अत्यंत कामुक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। इन लोगों ने आप स. अ. व. के विरुद्ध ऐसी भाषा का उपयोग किया है जो ज्ञान और शोध के स्तर से तो कोसों दूर है ही बल्कि सामान्य नैतिक मूल्य भी इसके ज़िक्र की अनुमति नहीं देते और इस पर घोर अत्याचार यह कि ऐसे लोगों को स्कॉलर और शोधकर्ता कहा जाता है। इन हज़ारों तथाकथित शोधकर्ताओं में से चन्द प्राच्यविदों के लेख उदहारण के तौर पर प्रस्तुत हैं:-
सर विलियम म्योर आप स. अ. व. के बारे में लिखते हैं-
Mahomet was now going on to three-score years: but weakness for the sex seemed only to grow with age and the attractions of his increasing harem were insufficient to prove his passion from wandering beyond its ample limits.
इसी प्रकार प्राच्यविद केरन आर्मस्ट्रांग ने अपनी किताब “Muhammad” में अत्यंत छल पूर्वक यह जताने का प्रयास किया है कि एक बार रसूल अल्लाहस.अ.व. की नज़र हज़रत ज़ैनब र. अ. सुपुत्री हजश पर पड़ी और उसकी सुन्दरता को देख कर आप स. अ. व. उसके प्रेम में फंस गए फिर जल्द ही हज़रत ज़ैनब र. अ. और हज़रत ज़ैद र. अ. की तलाक़ हो गई।”  (Muhammad, page :167)


हज़रत उम्मे सलमा र. अ. से शादी के हवाले से जब आप स. अ. व. ने उन्हें विवाह के लिए सन्देश भेजा तो हज़रत उम्मे सलमा र. अ. ने मना कर दिया और इसके तीन कारण वर्णन किए:
1) मैं बड़ी उम्र की हूँ।
2) अनाथ बच्चों की माँ हूँ।
3) मेरे स्वभाव में कठोरता है।
इस पर केरन आर्मस्ट्रॉन्ग लिखती हैं:
आँहज़रत स. अ. व. यह बात सुनकर मुस्कुरा दिए। वह मुस्कुराहट ऐसी मीठी होती जो हर किसी को अपने वश में कर लेती थी।

तुलनात्मक तथा खोज पर आधारित अध्ययन
इस्लाम धर्म से द्वेष रखने वालों ने कट्टरता और रसूलुल्लाह स. अ. व. के पवित्र जीवन तथा चरित्र को दागदार करने के लिए बहुविवाह का सहारा लेकर आप पर वासना में डूबे होने का घटिया आरोप लगाने का प्रयास किया है । आइए हम रसूलुल्लाह स. अ. व. के जीवन को समझदार और निष्ठावान लोगों की दृष्टि से देखते हैं।

विवाह के सन्दर्भ में नबी करीम स. अ. व. के जीवन के चार पड़ाव हैं:
1) जन्म से 25 वर्ष की अवधि जिसमें आप स. अ. व. ने कोई विवाह नहीं किया।
2) 25 से 55 वर्ष तक की अवधि जिसमें आप स. अ. व. के निकाह में कभी दो पत्नियाँ इकट्ठी नहीं हुई।
3) 55 से 60 वर्ष की संक्षिप्त अवधि जिसमें अनेक विवाह हुए।
4) 60 से 63 वर्ष की आयु में आप स. अ. व. के निधन तक का समय जिसमें आप स.अ.व. ने कोई विवाह नहीं किया।
आप स. अ. व. के जीवनकाल में बहुविवाह की अवधि अत्यन्त संक्षिप्त है। इसे आधार बनाकर आप स. अ. व. के उच्च आचरण पर कीचड़ उछालना घटनाओं की प्रष्ठभूमि तथा ऐतिहासिक वास्तविकताओं से अनभिज्ञता का प्रमाण है। यहाँ कुछ बातें ध्यान पूर्वक समझने की आवश्यकता है।
1) यदि एक से अधिक विवाह करना कामुकता के कारणों से होता है तो फिर यह आरोप केवल मुहम्मद स. अ. व. पर ही क्यों? इसकी लपेट में तो बहुत सी वे महान विभूतियाँ भी आती हैं जो केवल मुसलमानों के नज़दीक ही नहीं बल्कि यहूदियों, ईसाईयों और अन्य ग़ैर मुस्लिमों के मतानुसार भी आदरणीय व सम्मान के योग्य समझी जाती हैं।
बाईबल के अनुसार हज़रत इब्राहीम की तीन पत्नियाँ थीं। हज़रत हाजरा, सारा और कतूरा। हज़रत याक़ूब की चार पत्नियाँ थीं हज़रत लयाह, ज़ुल्फ़ा, राहील और बलहा। हज़रत दाऊद की 09 पत्नियों का नाम मिलता है। हज़रत सुलैमान की 700 पत्नियों और 300 हरमो का वर्णन मिलता है। सही बुखारी में हज़रत सुलैमान की पत्नियों की संख्या 60 से 100 तक बताई गई है। राजा दशरथ की तीन पत्नियाँ थीं रानी कौशल्या, रानी सुमित्रा, रानी कैकई। कृष्ण जी महाराज की अनेक गोपियों के अतिरिक्त 18 पत्नियां थीं।

यदि बहुविवाह के कारणवश इन अत्यंत आदरणीय तथा ऐतिहासिक विभूतियों पर आरोप नहीं लगाया जा सकता तो फिर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के विवाह पर क्यों? यदि कोई पैग़म्बर-ए-इस्लाम स. अ. व. की विवाहों पर प्रश्न खड़े करता है तो ये आरोप स्वयं इन सब विभूतियों पर भी लगेंगे।
2) फिर यह भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है कि अरब के उस समाज में व्यभिचारिता तथा शराब का सेवन प्रचलित था। इसके होते हुए आप स. अ. व. के घोर शत्रु भी आपके आचरण की पवित्रता के साक्षी थे। आप स. अ. व. के किसी शत्रु ने भी आप स. अ. व. के पवित्र आचरण पर उंगली नहीं उठाई। स्पष्ट है कि यदि उन्होंने आप स. अ. व. के व्यक्तित्व में भोग विलासिता के अत्यन्त सूक्ष्म लक्षणों का भी अवलोकन किया होता तो वे निश्चय ही इसे लेकर आप स. अ. व. के चरित्र पर उँगलियाँ उठाते।

मोमिनों की माँ हज़रत ख़दीजा र.अ. की स्मृति
(अल्लाह की पनाह) यदि आप स.अ.व. के विवाह वासना की पूर्ती के लिए होते तो जब क़ुरैश के सरदारों ने आप स.अ.व. को (नबुव्वत के दावे को त्यागने के बदले में) अरब की किसी भी अत्यन्त सुन्दर युवती से निकाह की पेशकश की तो आप स.अ.व. ने उसे क्यों ठुकरा दिया? आप स.अ.व. ने अत्यन्त सुन्दर युवती अथवा अरब सरदारों की बजाए एक ऐसी अधेड़ उम्र औरत से विवाह किया जो आप स.अ.व. से 15 वर्ष बड़ी थीं।

हज़रत साहिबज़ादा मिर्ज़ा बशीर अहमद साहिब र.अ. लिखते हैं:
“निःसंदेह यह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है कि आँहज़रत स.अ.व. ने एक से अधिक विवाह किए और यह बात भी इतिहास का प्रमाणित भाग है कि हज़रत ख़दीजा र.अ. के अतिरिक्त आप स.अ.व. के सारे विवाह उस समय  से सम्बन्ध रखते हैं जिसे बुढ़ापे की अवस्था कहा जा सकता है परन्तु बग़ैर किसी ऐतिहासिक प्रमाण के बल्कि स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाणों के विरुद्ध यह विचार कि आप स.अ.व. के ये विवाह (अल्लाह की पनाह) वासना की पूर्ती के लिए थे, एक इतिहासकार को शोभा नहीं देता और एक सज्जन व्यक्ति के वैभव से भी बहुत दूर है। म्यूर साहिब इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं थे कि आँहज़रत स.अ.व. ने 25 वर्ष की आयु में एक 40 वर्षीय अधेड़ उम्र की विधवा से विवाह किया और फिर 50 वर्ष की आयु तक इस रिश्ते को इस सुन्दरता और निष्ठा के साथ निभाया जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती और इसके पश्चात् भी आप स.अ.व. ने 55 वर्ष की आयु तक केवल एक ही पत्नी रखी और यह पत्नी हज़रत सौदा र. अ. भी संयोग से एक विधवा और अधेड़ उम्र की महिला थीं और इस पूरे समय में जो कामुक इच्छाओं के भड़कने का विशेष समय है आप स.अ.व. के मन में कभी दूसरे विवाह का विचार नहीं आया।” (सीरत खातमुन्नबीय्यीन पृष्ठ 553-554)
ऐसे महान व्यक्तित्व पर चरित्रहीनता का आरोप यदि इन्साफ़ का खून नहीं तो और क्या है?

बहुविवाह का सिद्धान्त तथा अन्य धर्म
जैसा कि पहले संक्षिप्त में वर्णन कर चुका हूँ कि बहुविवाह का सिद्धान्त केवल इस्लाम में ही मौजूद नहीं बल्कि अन्य धर्मों में भी इसी प्रकार बड़े विस्तार से इसका उल्लेख मिलता है।
“इस विषय पर बयान करते हुए हज़रत साहिबज़ादा मिर्ज़ा बशीर अहमद साहिबर.अ. लिखते हैं :-
“बहुविवाह के उल्लेख का यह अवसर अनुचित न होगा कि बहुविवाह की आज्ञा प्रदान करने वाला इस्लाम धर्म अकेला नहीं है बल्कि दुनियाँ के अधिकतर धर्मों में भी बहुविवाह की आज्ञा है। उदाहरणतया मूसवी शरीयत (धर्म) में इसकी आज्ञा है तथा बनी इस्राईल के बहुत से नबी व्यवहारिक रूप से इसका पालन करते रहे हैं। हिन्दुओं के धर्म में बहुविवाह की आज्ञा है और कई हिन्दू सन्त एक से अधिक पत्नियाँ रखते रहे हैं। उदाहरणतया श्री कृष्ण जी महाराज ने व्यवहारिक तौर पर बहुविवाह का पालन किया और हिन्दू राजे महाराजे तो अब तक इसका पालन करते आए हैं। इसी प्रकार हज़रत मसीह नासरी अलैहिस्सलाम का भी कोई कथन बहुविवाह के विरुद्ध नहीं मिलता और क्योंकि मूसवी शरीयत में इसकी आज्ञा थी तथा हज़रत मसीह नासरी अलैहिस्सलाम के युग में भी इस प्रथा का रिवाज था और इसका पालन भी होता था। इसलिए हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम की इस विषय पर ख़ामोशी से यही निष्कर्ष निकाला जाएगा कि वह इसे वैध समझते थे। अतः इस्लाम ने इसमें कोई नवीनकरण नहीं किया बल्कि इस्लाम ने यह किया कि बहुविवाह की हद बन्दी कर दी और इसे ऐसी शर्तों के साथ सीमित कर दिया कि लोगों तथा राष्ट्रों की असाधारण परिस्थितियों के लिए एक वरदान और लाभदायक व्यवस्था की स्थापना हो गई।  (सीरत खातमुन्नबीय्यीन पृष्ठ- 445)

कुछ प्राच्यविदों का आप स.अ.व. के पक्ष में संस्वीकृति
यद्यपि विरोधियों की ओर से आँहज़रत स.अ.व. के विवाहों पर बहुत संगीन आरोप लगाए गए हैं और हर व्यक्ति ने अपने आचरण और विचारानुसार आप स.अ.व. के बहुविवाह के विषय को देखा है परन्तु सत्य ने कभी कभी विरोधियों के कलम और ज़ुबान पर भी नियंत्रण पाया है और उन्हें यदि पूर्णरूप से नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से सत्य को स्वीकार करना पड़ा है। अतःएव मिस्टर मर्गोलेस भी जिनकी आँख समान्यतः हर सीधी बात को उल्टा देखने की अभ्यस्त है इस मामले में सत्य को स्वीकार करने पर मजबूर हुए हैं। वह अपनी किताब “मुहम्मद” में लिखते हैं :-
“मुहम्मद स.अ.व. के बहुत से विवाह जो खदीजा र.अ. के बाद हुए अधिकांश यूरोपियन लेखकों की दृष्टि में वासना पर आधारित बताए जाते हैं परन्तु गौर करने से मालूम होगा कि वे आकांशा पर आधारित नहीं थे। मुहम्मद स.अ.व. के बहुत से विवाह राष्ट्रीय व राजनैतिक हितों के लिए थे क्योंकि मुहम्मद स.अ.व. यह चाहते थे कि अपने विशेष-विशेष सहाबियों को विवाह के माध्यम से अपने साथ प्रेम के सम्बन्ध में अधिक से अधिक जोड़ लें। अबू बकर र. अ. तथा उमर र.अ. की पुत्रियों के विवाह अवश्य ही इसी विचार से किए गए थे। इसी प्रकार प्रतिद्वंदी शत्रुओं तथा पराजित सरदारों की पुत्रियों के साथ भी मुहम्मद स.अ.व. के विवाह राजनैतिक हितों के कारणों से हुए …. शेष विवाह इस नीयत से थे कि इसके द्वारा आप स.अ.व. को पुत्र प्राप्ति हो जाए जिसकी आप स.अ.व. को बहुत आशा थी।
यह उस व्यक्ति की राय है जो आँहज़रत स.अ.व. की जीवनी लिखने वालों में शत्रुता एवं पक्षपात के लिहाज़ से सम्भवतः प्रथम श्रेणी में हैं और यद्यपि मर्गोलिस साहिब की राय दोषरहित तो बिलकुल नहीं है परन्तु इससे यह प्रमाण तो अवश्य मिलता है कि सत्य किस प्रकार एक शत्रु के हृदय को भी परास्त कर सकता है।”  (सीरत खातमुन नबीय्यीन पृष्ठ 445-446)


इसी प्रकार तपस्विन प्रोफेसर केरन आर्मस्ट्रांग जो कहीं कहीं विरोधी भी दिखाई देती हैं वह भी इस वास्तविकता का गुणगान करने पर विवश हुई हैं और बहुविवाह की आड़ में पश्चिम वालों के व्यभिचार के आरोप का खण्डन करते हुए अपनी किताब “मुहम्मद” में लिखा :
“परन्तु यदि बहुविवाह को उसकी पृष्ठभूमि में देखा जाए तो इसे लड़कों की सेक्स लाइफ में सुधार करने के लिए नहीं रचा गया बल्कि यह समाज के विधि निर्माण का एक अंग था। अनाथ बच्चे बच्चियों की समस्या से आँहज़रत स.अ.व. आरम्भ से ही जूझ रहे थे लेकिन उहद के युद्ध में बहुत से मुसलमानों की शहादत ने इसमें और वृद्धि कर दी। शहीद होने वालों ने केवल विधवाएँ ही अपने पीछे नहीं छोड़ी बल्कि बेटियाँ, बहनें और अन्य रिश्तेदार जिन्हें नए सहारों की आवश्यकता थी उन अनाथ बच्चों के नए अभिभावक उनकी सम्पत्ति का प्रबंध करने में न्यायसंगत नहीं हो सकते थे। कई ऐसी औरतों का विवाह इसलिए नहीं होने देते ताकि अभिभावक उनकी सम्पत्तियाँ अपने अधिकार में रख सकें। एक पुरुष के लिए अपने अधीन औरतों से विवाह करना कोई असाधारण बात न थी जिसके द्वारा वे उनकी सम्पत्तियां भी अपने अधिकार में ले लें।”
(उस्वा-ए-इन्सान-ए-कामिल, पृष्ठ- 458-459 से उद्धरित)

बहुविवाह पर कुछ महत्वपूर्ण नोट
इस युग के इमाम हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम बहुविवाह के सम्बन्ध में फरमाते हैं-
“ख़ुदा के विधान का उपयोग उसकी इच्छा से विपरीत कदापि नहीं करना चाहिए और न उससे ऐसा लाभ उठाना चाहिए जिससे वह केवल इच्छापूर्ति के लिए एक ढाल बन जाए। स्मरण रहे कि ऐसा करना पाप है। ख़ुदा तआला बार-बार फरमाता है कि वासना का तुम पर नियंत्रण न हो बल्कि तुम्हारी मंशा हर एक बात में तक़वा (सदाचार) हो। यदि शरीयत को ढाल बनाकर वासनापूर्ति के लिए पत्नियाँ रखी जाएंगी तो इसके अतिरिक्त और क्या निष्कर्ष निकलेगा कि अन्य समाज के लोग आरोप लगाएंगे कि मुसलमानों को पत्नियाँ करने के अतिरिक्त और कोई कार्य ही नहीं। व्यभिचार का नाम ही पाप नहीं बल्कि वासना का खुले तौर पर हृदय में पड़ जाना भी पाप है। सांसारिक भाव का अंश मानव जीवन में बहुत ही कम होना चाहिए ताकि –
فَلْيَضْحَكُوا قَلِيلًا وَلْيَبْكُوا كَثِيرًا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ (सुरःअल-तौबा:82)
अर्थात ‘हँसो थोड़ा और रोओ अधिक’ का साक्ष्य बनो लेकिन जिस व्यक्ति की विलासिता अधिक है और वह दिन रात पत्नियों में ही ग्रस्त रहता है उसे करुणा व रोना कब नसीब होगा? अधिकांश लोगों का यह हाल है कि वे एक विचार के समर्थन तथा अनुसरण में समस्त प्रबंध करते हैं और इस प्रकार ख़ुदा तआला की वास्तविक इच्छा से दूर जा पड़ते हैं। ख़ुदा तआला ने यद्यपि कुछ वस्तुएँ वैध तो घोषित कर दीं परन्तु उससे यह अभिप्राय नहीं है कि सम्पूर्ण जीवन ही उसमें व्यतीत किया जाए। ख़ुदा तआला तो अपने भक्तों की विशेषता में फरमाता है:
وَالَّذِينَ يَبِيتُونَ لِرَبِّهِمْ سُجَّدًا وَقِيَامًا  (अल-फ़ुरक़ान: 65)
अर्थात वे अपने रब के लिए पूरी पूरी रात सजदा और क़ियाम की अवस्था में व्यतीत करते हैं। अब देखो रात दिन पत्नियों में ग्रस्त रहने वाला ख़ुदा तआला की इच्छानुसार रात कैसे इबादत में काट सकता है? वह पत्नियाँ क्या करता है समझो खुदा के लिए साझीदार पैदा करता है। आँहज़रत स.अ.व. की 9 पत्नियाँ थीं इसके बावजूद आप स.अ.व.सारी सारी रात ख़ुदा की इबादत (उपासना) में व्यतीत करते थे।

खूब याद रखो कि ख़ुदा तआला की वास्तविक इच्छा यह है कि इच्छाएं तुमको परास्त न कर सकें और वास्तव में यदि सदाचार की पराकाष्ठा हेतु आवश्यकता पड़े तो और विवाह कर लो। अतैव जानना चाहिए कि जो व्यक्ति इच्छाओं का अनुसरण करते हुए अधिक पत्नियाँ रखता है वह इस्लाम के सार से दूर रहता है। हर एक दिन जो चढ़ता है और रात जो आती है यदि वह सादगी से जीवन व्यतीत नहीं करता और रोता कम अथवा बिल्कुल ही नहीं रोता और हँसता अधिक है तो ज्ञात रहे कि उसका विनाश निश्चय है।”          
(मलफ़ूज़ात खण्ड 4 ,पृष्ठ 50-51, संस्करण 1988)

हज़रत मुस्लेह मौऊद र.अ. बहुविवाह के सम्बन्ध में फरमाते हैं :
“रसूल-ए-करीम स.अ.व. पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनकी अनेक पत्नियाँ थीं और यह कि आप स.अ.व. का यह कार्य इच्छापूर्ति के लिए था (अल्लाह की पनाह) परन्तु जब हम उस सम्बन्ध को देखते हैं जो आप स.अ.व. की पत्नियों का आप के साथ था तो हमें मानना पड़ता है कि आप स.अ.व. का सम्बन्ध ऐसा पवित्र, निस्वार्थ तथा ऐसा आध्यात्मिक था कि किसी एक पत्नी वाले पुरुष का सम्बन्ध भी अपनी पत्नी से ऐसा नहीं होता। यदि रसूलुल्लाह स.अ.व. का सम्बन्ध अपनी पत्नियों से अय्याशी का होता तो उसका अवश्य ही निष्कर्ष यह निकलता कि आपस.अ.व.की पत्नियों के दिल किसी आध्यात्मिक भाव से प्रभावित न होते। परन्तु आप स.अ.व. की पत्नियों के दिल में आप के लिए जो प्रेम था और आप का उत्तम प्रभाव जो उन पर पड़ा वह अनेक ऐसी घटनाओं से प्रकट होता है जो आपस.अ.व.की मृत्यु के पश्चात् आप की पत्नियों के सम्बन्ध में इतिहास से सिद्ध है। उदहरण के लिए यह घटना कितनी छोटी सी थी कि मैमूना र.अ. रसूलुल्लाह स.अ.व. से पहली बार हरम (मक्का) से बाहर एक शिविर में मिलीं। यदि रसूलुल्लाह स.अ.व. का सम्बन्ध उनसे केवल शारीरिक सम्बन्ध होता और यदि आप स.अ.व. किसी एक पत्नी पर दूसरी को प्राथमिकता देते तो मैमूना र.अ. इस घटना को अपने जीवन की कोई अच्छी घटना न समझतीं बल्कि प्रयास करतीं कि यह घटना उनकी स्मृति से मिट जाए। परन्तु मैमूना र.अ. रसूलुल्लाह स.अ.व. की मृत्यु के पश्चात् 50 वर्ष तक जीवित रहीं और 80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई परन्तु इस कृपालु सम्बन्ध को वह जीवनभर भुला न सकीं। 70 वर्ष की आयु में जब जवानी के भाव सब ठण्डे हो चुके होते हैं रसूलुल्लाह स.अ.व.की मृत्यु के पश्चात् 50 वर्ष का जो समय है जो एक स्थिर आयु कहलाने योग्य है मैमूना र.अ. का निधन हुआ और उस समय उन्होंने अपने आस पास के लोगों से आग्रह किया कि जब मेरी मृत्यु हो जाए तो मक्का के बाहर एक मंजिल की दूरी पर उस स्थान पर जहाँ रसूल-ए-करीम स.अ.व. का शिविर था और जहाँ मैं पहली बार आप स.अ.व. की सेवा में प्रस्तुत हुई मेरी क़ब्र बनाई जाए और मुझे वहाँ दफन किया जाए। संसार में सत्य कथाएँ भी होती हैं और किस्से कहानियां भी परन्तु क्या सत्य कथाओं में से भी और किस्से कहानियों में से भी क्या कोई घटना इस अमर प्रेम से अधिक प्रभावशाली प्रस्तुत की जा सकती है।”
(दीबाचा तफसीरुल क़ुरआन, पृष्ठ- 205)


फ़रमाया: “कुछ लोग एक से अधिक विवाह को अत्याचार कहते हैं परन्तु यह निर्दयता नहीं क्योंकि ऐसी आवश्यकताएं प्रकट हो सकती हैं जब विवाह न करना अत्याचार हो जाता है। एक औरत जो पागल हो जाए या कोढ़ी हो जाए या उससे बच्चे न हों तो उस समय उसका पति क्या करे ? अगर वह दूसरा विवाह न करेगा और किसी बुराई में पड़ जाएगा तो यह उसका स्वयं पर और समाज पर अत्याचार होगा? और यदि वह कोढ़ी है तो खुद की जान पर अत्याचार होगा? यदि बच्चे नहीं तो समाज पर अत्याचार होगा? और यदि वह पहली पत्नी को छोड़ दे तो यह बहुत ही बेशर्मी और बेवफाई होगी कि जब तक वह स्वस्थ रही यह उसके साथ रहा तथा जब उस पत्नी को उसकी सहायता की सर्वाधिक आवश्यकता थी उसने उसे छोड़ दिया। अतः बहुत से अवसर ऐसे आते हैं कि दूसरा विवाह वैध ही नहीं अपितु आवश्यकता से भी बढ़कर एक सामाजिक दायित्व बन जाता है।
पति-पत्नि के सम्बन्ध के फलस्वरूप सन्तानोत्पत्ति होती है जो सभ्यता की एक प्रकार से दूसरी ईंट है। बच्चों के सम्बन्ध में इस्लाम का यह आदेश है कि उनका भली-भाँति पालन पोषण किया जाए फिर फ़रमाया कि बच्चों को ज्ञान और अच्छे आचरण सिखाए जाएँ और बचपन से ही उन्हें प्रशिक्षित किया जाए ताकि बड़े होकर सार्थक बनें।”
(अहमदिय्यत यानि हक़ीक़ी इस्लाम, अनवारुल-उलूम खण्ड 8,पृष्ठ 276)


फ़रमाया:- “अब रहा बहुविवाह का विषय इस ओर अभी तक पश्चिम ने गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया परन्तु अंत में ऐसा करना पड़ेगा क्योंकि प्रकृति के कानून से देर तक संघर्ष नहीं किया जा सकता। लोग कहते हैं कि यह एक अय्याशी का साधन है परन्तु यदि इस्लाम के आदेशों पर चिन्तन किया जाए तो हर एक व्यक्ति समझ सकता है कि यह अय्याशी नहीं बल्कि त्याग है और त्याग भी बहुत महान। अय्याशी किसको कहते हैं ? इसी को कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूरा करे परन्तु इस्लामी आदेशों के अंतर्गत एक से अधिक विवाह का पालन करने से मन की इच्छाएँ कैसे पूर्ण हो सकती हैं ? इस्लाम का आदेश है कि एक पत्नी चाहे कितनी भी प्रिय क्यों न हो उसके साथ व्यवहार में अन्तर न करो। तुम्हारा मन चाहे उसे अच्छे वस्त्र पहनाने को चाहता हो परन्तु तुम उसे वह वस्त्र नहीं पहना सकते जब तक कि दूसरी पत्नियों को भी वैसा ही वस्त्र न पहनाओ। तुम्हारा मन चाहे उसे अच्छा भोजन कराना चाहता हो अथवा उसके लिए नौकर का प्रबन्ध करना चाहता हो परन्तु इस्लाम कहता है कि तुम ऐसा कदापि नहीं कर सकते तब तक कि ऐसा ही व्यवहार दूसरी पत्नि से न करो। तुम्हारा मन एक पत्नि के घर चाहे कितना भी रहने को चाहता हो परन्तु इस्लाम कहता है कि तुम कदापि ऐसा नहीं कर सकते जब तक उतना ही समय दूसरी पत्नि के साथ न बिताओ अर्थात बराबरी की बारी निर्धारित करो। फिर तुम्हारा मन एक पत्नि से मिलने के लिए चाहे कितना भी चाहता हो, इस्लाम कहता है कि निःसंदेह तुम अपने दिल की इच्छा पूरी करो मगर उसी प्रकार तुम को अपनी दूसरी पत्नि के पास जाकर बैठना होगा। अतः दिल के सम्बन्ध के अतिरिक्त जो किसी को मालूम नहीं हो सकता, बर्ताव, व्यवहार, सहायता, संवेदना आदि किसी मामले में भेदभाव करने की आज्ञा नहीं। क्या यह जीवन अय्याशी में लिप्त जीवन कहला सकता है? या यह समाज और राष्ट्र के लिए अथवा उन लाभों के लिए जिनके लिए दूसरा विवाह किया जाता है एक त्याग है और त्याग भी कितना बड़ा? (अहमदिय्यत यानि हक़ीक़ी इस्लाम, अनवारुल उलूम खण्ड 8, पृष्ठ 27)

हज़रत मिर्ज़ा बशीर अहमद र.अ. लिखते हैं:-
“इस्लाम ने बहुविवाह के कुछ विशेष कारण भी बताए हैं, वे तीन हैं: प्रथम अनाथ की सुरक्षा व सरक्षण, द्वितिय विधवाओं का प्रबन्ध, तृतीय सन्तानोत्पत्ति। ….. हर समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि यह एक अत्यन्त उत्तम प्रबन्ध है जो अल्लाह तआला ने आँहज़रत स.अ.व. के द्वारा संसार में स्थापित किया है और इसमें मानवजाति के बड़े से बड़े भाग के बड़े-बड़े कल्याण निहित हैं… बात का सार यह है कि इस्लाम में बहुविवाह का प्रबन्ध एक विशेष व्यवस्था है जो मनुष्य की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रख कर जारी की गई है। और यह एक त्याग है जो पुरुष व स्त्री दोनों को अपने आचरण और धर्म और खानदान और समाज और राष्ट्र के लिए विशेष परिस्थितियों में करना पड़ता है। ….. यह भी याद रखना चाहिए कि बहुविवाह की जायज़ आवश्यकता के पैदा होने पर भी इस्लाम ने इसे अनिवार्य घोषित नहीं किया। इस अवसर पर यह उल्लेख भी उपयुक्त मालूम होता है कि इस्लाम से पूर्व अरबों में बल्कि संसार के किसी भी समाज में बहुविवाह की कोई सीमा निर्धारित नहीं थी और प्रत्येक व्यक्ति जितनी भी चाहता पत्नियाँ रख सकता था परन्तु इस्लाम ने दूसरी अन्य शर्तें निर्धारित करने के अतिरिक्त संख्या की दृष्टि से भी इसे अधिक से अधिक चार तक सीमित कर दिया।
अतः इतिहास से पता लगता है कि जिन नए नए धर्मांतरित मुसलमानों की चार से अधिक पत्नियाँ थीं उन्हें यह आदेश था कि चार से अधिक जो भी हों उन को तलाक़ दे दें। उदाहरणस्वरूप गैलान बिन सलमा सक़फ़ी जब मुसलमान हुए तो उनकी 10 पत्नियाँ थीं जिनमें से 06 को आदेशनुसार तलाक़ दिलवा दी गई। (सीरत खातमुन्नबीय्यीन, पृष्ठ 435-441)

Related Topics

0 टिप्पणियाँ

प्रातिक्रिया दे

Avatar placeholder

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Mirza_Ghulam_Ahmad
Hazrat Mirza Ghulam Ahmad – The Promised Messiah and Mahdi as
Mirza Masroor Ahmad
Hazrat Mirza Masroor Ahmad aba, the Worldwide Head and the fifth Caliph of the Ahmadiyya Muslim Community
wcpp
Download and Read the Book
World Crisis and the Pathway to Peace

More Articles

Twitter Feed