पश्चिमी दुनिया नारी स्वतंत्रता की अग्रदूत मानी जाती है। परन्तु क्या इतिहास में कोई ऐसी महान विभूति भी गुज़री है जिसने महिलाओं को उनके अधिकार इस प्रकार दिलाए हों कि वह आज भी सभ्य से सभ्य क़ौम तथा राष्ट्र के लिए मार्गदर्शक हैं?
जमाअत अहमदिय्या के दूसरे खलीफा हज़रत मिर्ज़ा बशीरुद्दीन महमूद अहमदर ज़ का बुद्धिमत्ता और ज्ञान से भरपूर यह लेख अल फज़ल कादियान, 12 जून 1928 (सीरत-उन-नबी विशेषांक) में प्रकाशित है। इसका हिंदी अनुवाद हम पाठकों केलिए प्रस्तुत करते हैं।
लाइट ऑफ़ इस्लाम ट्रांसलेशन टीम द्वारा अनुवादित
25 अगस्त 2021
मुझसे इच्छा प्रकट की गई है कि मैं भी अल-फ़ज़ल के विशेष अंक के लिए लेख लिखूं। मैं समझता हूँ कि इस अंक में लेख लिखना पुण्य का कार्य है जो रसूल-ए- करीमस अ व के उच्च व्यक्तित्व और सम्मान को व्यक्त करने के लिए प्रकाशित होने जा रहा है। बावजूद इस के कि इन दिनों मैं बहुत व्यस्त हूँ और साथ ही बीमार भी हूं, फिर भी एक छोटा लेख लिखना ज़रूरी समझता हूँ।
रसूल-ए-करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन का हर पहलू इतना अद्भुत है कि मनुष्य आश्चर्यचकित रह जाता है कि कौन सा पहलू अपनाना है और कौन सा छोड़ना है। और इंसानी आँख चुंध्या जाती है, लेकिन मैं इस समय की आवश्यकताओ को ध्यान में रखते हुए अपने लेख के लिए आपस अ व के जीवन के सबसे अच्छे हिस्सा को लेता हूं, कि किस प्रकार आपस अ व ने दुनिया को उस गुलामी से मुक्ति दिलाई जो हमेशा से ही दुनियाँ के गले का हार हो रही थी और वह महिलाओं की गुलामी है। पवित्र पैगंबरस अ व के आगमन से पहले, महिलाएं हर देश में गुलाम और बांदियों की तरह थीं और उनकी गुलामी पुरुषों को भी प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती थी, क्योंकि गुलामों के बच्चे स्वतंत्रता की भावना को पूरी तरह से अवशोषित नहीं कर सकते थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्त्री हमेशा अपनी सुंदरता या अच्छे चरित्र के आधार पर कुछ पुरुषों पर शासन करती चली आई है लेकिन यह स्वतंत्रता वास्तविक स्वतंत्रता नहीं थी क्योंकि इसे अधिकार के रूप में नहीं बल्कि अपवाद के रूप में प्राप्त किया गया था और ऐसी स्वतंत्रता का अधिकार कभी भी अच्छी भावनाओं की उत्पत्ति का कारण नहीं बन सकता।
रसूल-ए-करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आज से तेरह सौ पचास साल पहले आगमन हुआ। उस समय तक किसी धर्म तथा जाति में स्त्री को ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त न थी कि वह उसे अधिकार के रूप में प्रयोग करे। निःसंदेह कुछ देश जहां कानून नहीं थे, वे सभी तरह के प्रतिबंधों से मुक्त थे लेकिन उसे भी स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता है, इसे आवारगी कहा जाएगा। स्वतंत्रता वह है जो संस्कृति और सभ्यता के नियमों को पूरा करते हुए प्राप्त होती है। इन नियमों को तोड़कर जो स्थिति उत्पन्न हो उसे स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह उच्च साहस का कारण नहीं बल्कि कम साहस पैदा करने का कारण होती है।
रसूल-ए-करीम (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में और उससे पहले, औरत की स्थिति यह थी कि वह अपनी संपत्ति की मालिक नहीं थी, उसके पति को उसकी संपत्ति का मालिक समझा जाता था। उसे उसके बाप की संपत्ति में से हिस्सा नहीं दिया जाता था। वह अपने पति की संपत्ति की भी वारिस नहीं समझी जाती थी।, हालाँकि कुछ देशों में वह अपने जीवनकाल में उसकी ट्रस्टी रहती थी। औरत का विवाह जब किसी पुरुष से हो जाता था तो या तो वह हमेशा के लिए उसी की घोषित कर दी जाती थी और किसी स्थिति में उससे अलग नहीं हो सकती थी या फिर उसके पति को तो अधिकार होता था कि उसे छोड़ दे लेकिन उसे अपने पति से अलग होने का कोई अधिकार प्राप्त न था। चाहे उसे कितना भी कष्ट क्यों न हो। यदि पति उसे छोड़ दे और उससे सद व्यवहार न रखे या कहीं भाग जाए तो उसके अधिकारों की सुरक्षा का कोई कानून निश्चित न था। उसका कर्तव्य समझा जाता था कि वह अपने बच्चों को और अपने आप को लेकर बैठी रहे और मेहनत मज़दूरी करके अपने आपको भी पाले और अपने बच्चों को भी पाले। पति का अधिकार समझा जाता था कि वह नाराज़ होकर उसे मार-पीट ले और उसके विरुद्ध वह आवाज़ नहीं उठा सकती थी। और पति की मृत्यु हो जाए तो कुछ देशों में वह पति के रिश्तेदारों की संपत्ति समझी जाती थी। वह जिससे चाहें उसका विवाह कर दें चाहे उपकारस्वरूप या कीमत लेकर। बल्कि कुछ स्थानों पर वह पति की संपत्ति समझी जाती थी कुछ पति, पत्नियों को बेच देते थे या जूए या शर्तों में हार जाते थे और वे बिल्कुल अपने अधिकारों के अंतर्गत समझे जाते थे। औरत का बच्चों पर कोई अधिकार नहीं समझा जाता था न पति से विवाह के रूप में न उससे अलग होने की स्थिति में। औरत घरेलू मामलों में कोई अधिकार नहीं रखती थी और धर्म के मामले में भी माना जाता था कि वह कोई स्थान नहीं रखती, जन्नत की नेमतों में उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं होगी। इसका परिणाम यह था कि पति औरतों की संपत्ति उड़ा देते थे और उसको बिना किसी गुज़ारे के छोड़ देते थे। उस बेचारी को अपने माल में से दान-दक्षिणा या रिश्तेदारों की सेवा करने का अधिकार न था जब तक कि पति की आज्ञा न हो और वह पति जिसके दाँत उसकी संपत्ति पर गड़े होते थे कभी इस बात पर राज़ी न होता था। माँ – बाप जिनका बहुत गहरा और प्रेम का रिश्ता है उनके माल से वह वंचित कर दी जाती थी। हालाँकि जिस प्रकार लड़के उनके प्रेम के हक़दार होते हैं उसी प्रकार लड़कियाँ होती हैं। जो माँ बाप इस दोष को देख कर अपनी लड़कियों को अपने जीवन में कुछ दे देते थे उनके खानदानों में झगड़ा पड़ जाता था। क्योंकि लड़के यह तो न सोचते थे कि माँ-बाप के मरने के बाद वे उनकी समस्त जायदाद के वारिस होंगे हाँ यह ज़रूर महसूस करते थे कि उनके माँ-बाप उनकी तुलना में लड़कियों को ज़्यादा देते हैं। इसी प्रकार पति जिससे पूर्ण प्रेम का सम्बन्ध होता था उसके माल से भी उसे वंचित रखा जाता। पति के दूर – दूर के रिश्तेदार तो उसकी सम्पत्ति के वारिस हो जाते और वह औरत जो उसकी हमराज़ और उम्र भर की साथी होती जिसके परिश्रम और काम का बहुत सा भाग पति की कमाई में था वह उसकी सम्पत्ति से वंचित कर दी जाती थी या फिर वह पति की समस्त सम्पत्ति की संरक्षक घोषित कर दी जाती परन्तु उसके किसी हिस्से का उपयोग नहीं कर सकती थी और इस प्रकार बहुत सी दान-दक्षिणा में अपनी इच्छानुसार भाग लेने से वंचित रहती थी। पति उस पर चाहे कितना ही अत्याचार करे वह उससे अलग नहीं हो सकती थी या जिन क़ौमों में अलग हो सकती थी तो ऐसी शर्तों पर कि बहुत सी सज्जन औरतें अलग होने से मृत्यु को अधिक प्रिय समझतीं उदाहरणतया अलग होने की यह शर्त थी कि पति या पत्नी का कुकर्म सिद्ध किया जाए और इससे बढ़कर अत्याचार यह था कि बहुत सी अवस्थाओं में जब औरत का पति के साथ रहना असम्भव होता था तो उसे पूर्ण रूप से अलग करने की बजाए केवल अलग रहने का अधिकार दिया जाता था जो स्वयं एक दण्ड है। क्योंकि इस प्रकार वह अपने जीवन को लक्ष्यहीन व्यतीत करने पर विवश होती है या फिर यह होता था कि पति जब चाहे औरत को अलग कर दे लेकिन औरत को अपने अलग होने की मांग करने का किसी स्थिति में अधिकार न था। यदि पति उसे निलंबित छोड़ देता या देश छोड़ जाता और कोई ख़बर न लेता तो औरत को विवश किया जाता कि वह जीवनभर उसकी प्रतीक्षा करती रहे और उसे अपने जीवन को देश और क़ौम के लिए लाभदायक रूप से व्यतीत करने का अधिकार न था। विवाहित जीवन आराम की जगह उसके लिए समस्या बन जाता था। उसका काम होता था कि वह पति और पत्नी दोनों का कार्य करे और पति की प्रतीक्षा भी करे। पति का कर्तव्य अर्थात घर के खर्चों के लिए कमाना भी उसका दायित्व हो जाता और पत्नी का दायित्व कि बच्चों की देख-भाल और उनका पालन-पोषण यह भी उसका दायित्व होता। एक ओर दिल की तकलीफ दूसरी और सांसारिक दायित्व यह सब उस असहाय औरत से सलूक किया जाता था। औरत को मारा पीटा जाता और इसे पति का वैध अधिकार समझा जाता। पतियों की मृत्यु के पश्चात् औरतों का बलपूर्वक पति के रिश्तेदारों से विवाह कर दिया जाता था या और किसी व्यक्ति के पास कीमत लेकर बेच दिया जाता। बल्कि पति स्वयं अपनी औरतों को बेच डालते। पांडवों जैसे बड़े राजकुमारों ने अपनी पत्नी को जूए में हार दिया और देश के कानून के समक्ष द्रोपदी जैसी चरित्रवती राजकुमारी उफ्फ न कर सकी। बच्चों की शिक्षा या पालन -पोषण में माओं से परामर्श न किया जाता और उनका बच्चों पर कोई अधिकार स्वीकार न किया जाता था और यदि माँ -बाप अलग हों तो बच्चों को बाप को सौंप दिया जाता था औरत का घर से कोई सम्बन्ध न समझा जाता था न पति के जीवनकाल में न उसके बाद। पति जब चाहता उसे घर से निकाल देता था और वह बेआसरा होकर इधर-उधर फिरती रहती।
रसूल-ए-करीमस अ व के द्वारा इन समस्त अत्याचारों को एक साथ ही मिटा दिया गया। आपने यह फैसला किया कि ख़ुदा तआला ने मुझे औरतों के अधिकारों का सरक्षण विशेष रूप से सौंपा है। मैं ख़ुदा तआला की ओर से यह घोषणा करता हूँ कि मर्द और औरत मानवता की दृष्टि से समान हैं। और जब वे मिल कर काम करें तो जिस प्रकार मर्द को कुछ अधिकार औरत पर प्राप्त होते हैं उसी प्रकार औरत को मर्द पर कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं। औरत उसी प्रकार सम्पत्ति की मालिक हो सकती है जिस प्रकार मर्द हो सकता है और पति का कोई अधिकार नहीं कि औरत के माल का प्रयोग करे जब तक कि औरत ख़ुशी से उपहारस्वरूप उसे कुछ न दे उससे बलपूर्वक माल लेना या इस प्रकार लेना कि इस बात का सन्देह हो कि औरत ने लज्जावश इन्कार नहीं किया, सही नहीं है। पति भी जो कुछ उपहारस्वरूप उसे दे वह औरत का ही माल होगा और पति उसे वापिस नहीं ले सकेगा। औरत अपनी माँ और अपने बाप के माल की उसी प्रकार वारिस होगी जिस प्रकार बेटे अपने माँ बाप के वारिस होते हैं हां क्योंकि पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ मर्द पर होती हैं और औरत पर केवल अपना भर होता है इसलिए उसे मर्द से आधा हिस्सा मिलेगा। इसी प्रकार माँ भी अपने बेटे के माल से उसी प्रकार हिस्सा पाएगी जिस प्रकार बाप, लेकिन विभिन्न परिस्थितियों और ज़िम्मेदारियों के अनुसार कभी बाप के समान और कभी कम हिस्सा उसे मिलेगा। वह अपने पति की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति की भी वारिस होगी, चाहे सन्तान हो या न हो। क्योंकि उसे किसी दूसरे के अधीन नहीं किया जा सकता। उसका विवाह निःसंदेह एक पवित्र प्रण है जिसका टूटना बहुत ही बुरा है जबकि मर्द और औरत एक दूसरे से अत्यधिक मिल जुल गए हों। लेकिन यह नहीं कि यदि औरत और मर्द के स्वभाव में हानिकारक मतभेद सिद्ध हों या धार्मिक, शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, स्वभाविक भिन्नताओं के होते हुए भी उन्हें विवश किया जाए कि वे उस प्रण के कारण अपने जीवन को बर्बाद करें और अपनी उत्पत्ति के वास्तविक उद्देश्य को खो दें। जब ऐसे मतभेद उत्पन्न हो जाएं और मर्द तथा औरत इच्छुक हों कि अब वे इकट्ठे नहीं रह सकते तो वे इस प्रण को परस्पर सहमति से तोड़ दें। और यदि मर्द इस विचारधारा का हो और औरत न हो और आपस में अगर किसी प्रकार समझौता न हो सके तो एक पंचायत उनके बीच निर्णय करे, पंचायत के दो मेम्बर हों एक मर्द की ओर से और एक औरत की ओर से। फिर अगर वे निर्णय करें कि अभी औरत तथा मर्द को और कुछ और समय मिलकर साथ रहना चाहिए तो चाहिए कि उनके बताए हुए मार्गदर्शनानुसार मर्द और औरत मिल कर रहें लेकिन जब इस प्रकार भी प्यार मुहब्बत न पैदा हो तो मर्द औरत को अलग कर सकता है। लेकिन इस स्थिति में उसने जो माल उसे दिया है वह उससे वापिस नहीं ले सकता बल्कि हक़ मेहर भी उसे पूरा अदा करना होगा। इसके विपरीत यदि औरत मर्द से अलग होना चाहे तो वह क़ाज़ी से निवेदन करे और यदि क़ाज़ी देखे कि कोई अनैतिकता इसके पीछे प्रेरक नहीं है तो वह उसे अलग होने का आदेश दे और इस स्थिति में उसे चाहिए कि पति का ऐसा माल जो उसके पास सुरक्षित हो या मेहर उसे वापस कर दे। और यदि औरत का पति उसके विशेष अधिकारों का हनन करे या उससे वार्तालाप छोड़ दे या उसको अलग सुलाए तो इसकी अवधि निर्धारित होनी चाहिए और यदि वह चार माह से अधिक इस कृत्य को करता रहे तो उसे विवश किया जाए कि या सुलह करे या तलाक़ दे। और यदि वह उसको खर्च इत्यादि देना बन्द कर दे या कहीं चला जाए और उसकी सूचना न ले तो उसका विवाह तोड़ दिया जाए (तीन वर्ष की अवधि फुक़हा ए इस्लाम ने वर्णन की है) और उसे स्वतन्त्र किया जाए कि वह दूसरी जगह विवाह कर ले। पति को सदैव अपनी पत्नी और बच्चों के खर्च का उत्तरदायी घोषित किया जाए। पति को अपनी पत्नी को उचित डाँट डपट करने का अधिकार है परन्तु उसके लिए आवश्यक है कि जब वह डाँट-डपट दण्ड का रूप धारण कर ले तो उस पर लोगों को साक्षी के रूप में नियुक्त करे और अपराध को ज़ाहिर करे और गवाही पर इसकी नींव रखे और दण्ड ऐसा न हो कि जिसके निशान लम्बे समय रहें। पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है वह उसे बेच नहीं सकता न उसे सेवकों की भाँति रख सकता है, उसकी पत्नी उसके खाने पीने में उसके साथ शामिल है और उसके साथ व्यवहार अपनी हैसियत अनुसार उसे करना होगा और जिस श्रेणी का पति है उससे कम व्यवहार उसके लिए उचित न होगा। पति की मृत्यु के पश्चात् उसके रिश्तेदारों को भी उस पर कोई अधिकार नहीं। वह स्वतन्त्र है, सज्जन व्यक्ति देख कर अपना विवाह कर सकती है इससे उसे रोकने का किसी को अधिकार नहीं और न उसे विवश किया जा सकता है कि वह एक विशेष स्थान पर रहे, केवल चार महीने दस दिन तक उसे पति के घर अवश्य रहना चाहिए ताकि उस समय तक वह तमाम परिस्थितियाँ प्रकट हो जाएँ जो उसके तथा पति के दूसरे सम्बन्धियों के अधिकारों पर प्रभाव डाल सकती हैं। औरत को उसके पति की मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष तक उसके निजी अधिकार के अतिरिक्त पति के मकान में से नहीं निकालना चाहिए ताकि इस अवधि में वह अपने हिस्सा से अपने रहने का प्रबन्ध कर सके। पति भी नाराज़ हो तो स्वयं घर से अलग हो जाए औरत को घर से न निकाले क्योंकि घर औरत के कब्ज़ा में समझा जाता है। बच्चों के पालन पोषण में औरत का भी हिस्सा है अतः उससे सुझाव ले लेना चाहिए और उसे बच्चे से सम्बन्धित कोई कष्ट नहीं देना चाहिए। दूध पिलवाने निगरानी इत्यादि से सम्बन्धित समस्त विषयों में उससे पूछ लेना चाहिए और यदि औरत और मर्द आपस में निभाव को असंभव पाकर अलग होना चाहें तो छोटे बच्चे माँ ही के पास रहें। हां जब बड़े हो जाएं तो शिक्षा इत्यादि के लिए बाप के हवाले कर दिए जाएं जब तक बच्चे माँ के पास रहें उनका खर्च बाप दे बल्कि माँ को उनके लिए जो समय व्यतीत करना पड़े और काम करना पड़े तो उसकी भी आर्थिक सहायता पति को करनी चाहिए औरत स्थाई हैसितयत रखती है और धार्मिक इनाम भी वह हर प्रकार के प्राप्त कर सकती है। मरने के पश्चात् वह उच्च कोटि के इनाम पाएगी और इस संसार में भी शासन के विभिन्न क्षेत्रों में वह भाग ले सकती है और इस स्थिति में उसके अधिकारों का वैसा ही ख्याल रखा जाएगा जिस प्रकार कि मर्दों के अधिकारों का।
यह वह शिक्षा है जो रसूल ए करीमस अ व ने उस समय दी जब इसके बिल्कुल विपरीत विचारधाराएँ संसार में प्रचिलित थीं। आपने इन आदेशों के द्वारा औरत को उस ग़ुलामी से स्वतन्त्र करा दिया जिसमें वह हज़ारो वर्षों से पीड़ित थी, जिसमें वह हर देश में बाध्य की जाती थी, जिसकी बेड़ियाँ हर धर्म उसके गले में डालता था। एक व्यक्ति ने एक ही समय में लम्बी अवधि से चली आ रही कैद को समाप्त कर दिया और दुनियाँ भर की औरतों को आज़ाद कर दिया। और माँओ को आज़ाद करके बच्चों को भी गुलामी के विचारधाराओं से सुरक्षित कर लिया। और उच्च विचार तथा ऊंचे होंसले के उभरने के प्रबन्ध कर दिए।
परन्तु दुनिया ने इस सेवा की सराहना नहीं की। जो बात उपकारस्वरूप थी उसने उसे अत्याचार कहा और तलाक तथा ख़ुला को फसाद क़रार दिया, विरासत को खानदान की बर्बादी का कारण, औरत के स्थायी अधिकारों को पारिवारिक जीवन को नष्ट करने वाला। और दुनिया निरंतर ऐसा ही करती चली गई और 1300 वर्ष तक वह अपने अन्धेपन से उस सुजाखे की बातों पर हँसती चली गई और उसकी शिक्षा को प्रकृति के सिद्धांतों के विरुद्ध घोषित करती चली गई। यहाँ तक कि समय आ गया कि ख़ुदा के शब्दों की विशेषता प्रकट हो। और जो सभ्यता और विनम्रता के दावेदार थे वे रसूल ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सभ्यता सिखाने वाले आदेशों का अनुसरण करें उनमें से प्रत्येक हुकूमत अपने अपने कानूनों को बदलें और रसूल ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बताए हुए सिद्धांतों का अनुसरन करें।
अंग्रेज़ी कानून जो तलाक और खुला के लिए किसी एक पक्ष के दुराचार और साथ ही अत्याचार और मार-पीट को आवश्यक बताता था 1923 ईस्वी में बदल दिया गया और केवल व्यभिचार भी तलाक और खुला का कारण स्वीकार कर लिया गया।
न्यूज़ीलैण्ड में 1912 ईस्वी में निर्णय ले लिया गया कि सात वर्ष से जो व्यक्ति पागल है उसकी पत्नी का विवाह तोड़ा जा सकता है और 1925 ईस्वी में फैसला किया गया कि यदि पति या पत्नी, मर्द और औरत के अधिकारों को पूरा न करें तो तलाक या खुला हो सकता है और तीन वर्ष तक खबर न लेने पर तलाक को उचित घोषित किया गया। (बिल्कुल इस्लामी फुक़्हा की नक़ल की है मगर तेरह सौ वर्ष इस्लाम पर आपत्ति जताने के बाद)
ऑस्ट्रेलिया के राज्य क्वींज़लैण्ड में पाँच वर्षीय पागलपन को तलाक का कारण स्वीकार कर लिया गया है। तस्मानिया में सन 1919 ईस्वी में क़ानून पास कर लिया गया है कि व्यभिचार, चार वर्ष तक खबर न लेना, अनैतिकता और तीन वर्ष तक ध्यान न देना, कैद, मार-पीट और पागलपन को तलाक का कारण घोषित किया गया है। विक्टोरिया के क्षेत्र में 1923 ईस्वी में कानून पारित कर दिया गया है कि पति यदि तीन वर्ष तक सूचना न ले, व्यभिचार करे, खर्च न दे या सख्ती करे, कैद, मार-पीट या औरत की ओर से व्यभिचार या पागलपन या सख्ती या झगडे प्रकट हो तो तलाक और खुला हो सकता है।
पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में, उपरोक्त कानूनों के अलावा, एक गर्भवती महिला का विवाह भी रद्द कर दिया गया है (इस्लाम भी इसे अवैध घोषित करता है)। 1918 में क्यूबा में, यह निर्णय लिया गया कि व्यभिचार के लिए मजबूर करना, दुर्व्यवहार, गाली गलोच, दोष सिद्धि, जुए की आदत, हक़ अदा न करना, खर्च न देना, संक्रामक रोग या आपसी सहमति को खुला या तलाक का कारण स्वीकार कर लिया गया है।
इटली में 1919 में एक कानून बनाया गया है कि महिला अपनी संपत्ति की मालिक होगी और उसमें से दान दक्षिणा कर सकेगी या उसे बेच सकेगी (उस समय तक यूरोप में औरत को उसकी संपत्ति का मालिक नहीं माना जाता था) मेक्सिको अमेरिका में भी उपरोक्त वर्णित कारणों को तलाक और खुला के लिए काफी स्वीकार कर लिया गया है। और साथ ही आपसी सहमति को भी इसके औचित्य के लिए पर्याप्त समझा गया है। यह कानून 1917 में पारित हुआ है, 1915 में पुर्तगाल में, 1909 में नॉर्वे में, 1920 में स्वीडन में और 1912 में स्विट्ज़रलैंड में ऐसे कानून पारित कर दिए गए हैं जिनसे तलाक और खुला कि अनुमति मिल गई है। स्वीडन में बाप को विवश किया जाता है कि वह 18 वर्ष तक की उम्र तक बच्चे का खर्च उठाए।
संयुक्त राज्य अमेरिका में हालांकि कानून अभी भी कहता है कि बच्चे पर पिता का अधिकार है, लेकिन व्यवहारिक रूप से इस्लामी तरीक़े पर सुधार शुरू हो गया है और न्यायाधीशों ने महिला की भावनाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया है और पुरुष को विवश करके खर्च भी दिलवाया जाता है लेकिन अभी तक इस कानून में बहुत कुछ त्रुटियाँ हैं हालाँकि मर्द के अधिकारों की सुरक्षा अधिक सख्ती से की गई है औरत को उसकी संपत्ति पर अधिकार भी दिलाया जा रहा है लेकिन साथ ही कुछ राज्यों में यह भी कानून पारित कर दिया गया है कि यदि पति अपंग हो जाए तो पत्नी पर उसके खर्चे उठाना अनिवार्य होगा।
महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया जा रहा है और उनके लिए राष्ट्रीय मामलों में परामर्श के रास्ते खोले जा रहे हैं, लेकिन यह सब बातें नबी करीम (सल्लाल्लाहु अलैहि वसल्लम) के निर्देशों के तेरह सौ साल बाद हुआ है और अभी कुछ होना बाकी है। कई देशों में महिला को अभी तक अपने पिता, माता और पति की संपत्ति की उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया गया है। और ऐसे और भी कई अधिकार हैं जिनमें इस्लाम अभी भी बाकी दुनिया का मार्गदर्शन कर रहा है, लेकिन अभी उसने इसके मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं किया है। लेकिन वह समय दूर नहीं है जब इन मामलों में पवित्र पैगंबरस अ व के मार्गदर्शन को भी दुनिया स्वीकार करेगी जैसे अन्य मामलों में किया है। और आपस अ व का संघर्ष महिलाओं की आज़ादी के लिए अपना पूरे प्रभाव तथा परिणाम दिखाएगा।
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