अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के विषय में इस्लाम की प्रस्तुत की हुई शिक्षा अत्यधिक उत्तम और हर बुराई से पवित्र और हर अच्छाई से परिपूर्ण है। और इस्लाम की वर्णित सीमाएँ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की खूबी को निखारने वाली और उसकी सुन्दरता को दोबाला करने वाली हैं।
यह लेख सर्वप्रथम अल-फज़ल इंटरनेशनल (उर्दू) में 17 अगस्त 2021 को प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी अनुवाद लाईट ऑफ़ इस्लाम के लिए शाह हारून सैफी ने किया है।
मुहम्मद ताहिर नदीम, यू के
2 दिसम्बर 2021
इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग करने का सही वातावरण प्रदान करता है ताकि उम्मत के हर व्यक्ति को इस अधिकार को ठीक ढंग से उपयोग करने का अभ्यास होता रहे। इस विषय में इस्लाम कहता है कि
کنْتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ[1]
وَقُلْ لِعِبَادِي يَقُولُوا الَّتِي هِيَ أَحْسَنُ إِنَّ الشَّيْطَانَ يَنْزَغُ بَيْنَهُمْ إِنَّ الشَّيْطَانَ كَانَ لِلْإِنْسَانِ عَدُوًّا مُبِينًا[2]
इन्सान को आज़ाद पैदा किया गया है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इन्सान का जन्मजात और बुनियादी अधिकार है। इसीलिए दुनिया के समस्त धर्मों ने इसे स्वीकार किया है और समस्त क़ौमों ने इसे स्वीकार करके अपने संविधान में इसकी ज़मानत दी है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का साधारण सा अर्थ यह है कि हर व्यक्ति अपने भाषण, लेख और कार्य द्वारा अपने विचारों को व्यक्त करने में स्वतन्त्र है। परन्तु आज के आधुनिक समाज ने इसका अर्थ माता-पिता की स्वतंत्रता ले लिया है।
अर्थात यह कहा जा रहा है कि हर व्यक्ति जो चाहे, जिस प्रकार चाहे और जिस के विरुद्ध चाहे अपने भाषण, लेख या कार्यों द्वारा इसे व्यक्त कर सकता है। चाहे इसके द्वारा किसी का दिल ही क्यों ना दुखता हो। चाहे उससे दूसरों की इज़्ज़त और सम्मान पर आक्रमण ही क्यों ना होता हो। और चाहे उसके कारण पवित्र और सम्मानित व्यक्तियों का अपमान ही क्यों ना हो रहा हो। और चाहे उसके कारण लाखों, करोड़ों लोगों की भावनाएँ ही क्यों ना आहत हो रही हों। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ऐसे अप्राकृतिक और अवास्तविक नारों के व्यवहारिक दृश्यों को देख कर एक व्यक्ति यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इन्सान का बुनियादी अधिकार कहा जा सकता है जो धरती पर बिगाड़ का कारण बने? जिस से सामाजिक शान्ति भंग होती हो और इन्सान की इज़्ज़त और मानवता का सम्मान जैसे उच्च मूल्यों को कुचल दिया जाए।
क्या अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता को इंसान का बुनियादी अधिकार कहा जा सकता है जिससे समाज टुकड़े टुकड़े होकर रह जाए और आपसी सम्बन्ध की ज़मीन में प्रेम, मुहब्बत और इज़्ज़त और सम्मान के पुष्पों के बजाए घृणा और झूठ और अभद्रता और बदनामी के काँटे उगें।
क्या अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता एक व्यक्ति की आवश्यक स्वतंत्रता हो सकती है जिसको आधार बना कर मासूमों की इज़्ज़त को उछाला जाए, सम्मानित व्यक्तियों की हँसी उड़ाई जाए और और शालीनता के सुन्दर लिबास को तार तार करके नैतिकता का जनाज़ा निकाला जाए?
निःसंदेह ऐसी खुली और बेलगाम स्वतंत्रता को इन्सान का बुनियादी अधिकार व्यक्त नहीं किया जा सकता।
इस विषय में हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह राबे र.अ फरमाते हैं:
समाज के परिदृश्य में मात्र स्वतंत्रता का उद्घोष बिल्कुल खोखला, निरर्थक, अस्वाभाविक और अवास्तविक उद्घोष है। स्वतंत्रता के कभी-कभी ऐसे ग़लत अर्थ लिए जाते हैं और उसकी कल्पना को इतना ग़लत प्रयोग किया जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सुन्दर सिद्धान्त अत्यन्त भद्दा और कुरूप बन कर रह जाता है। गाली-गलौज, दूसरों के मान-सम्मान पर प्रहार तथा पवित्र और पुनीत अस्तित्वों का निरादर यह कहां की स्वतंत्रता है?[3]
इस्लाम ना केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का दावेदार है बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के सिद्धांत का जिस बहादुरी और निडरता से पक्ष रखता है उसका उदहारण किसी और सैद्धांतिक प्रणाली या धर्म में दूर दूर तक नज़र नहीं आता।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के विषय में इस्लाम एक उत्तम और पूर्ण नियमावली प्रस्तुत करता है। जिसकी रूप रेखा में साधारणतया तीन बातें नज़र आती हैं:
1. इस्लाम ने एक ओर तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इमारत को अत्यंत सकारात्मक और रचनात्मक नींव पर उठाया है ताकि यह स्वतन्त्रता अपने वास्तविक लक्ष्य को पूरा करने वाली हो अर्थात साधारण लोगों के लिए अच्छाई का कारण बने और इसके द्वारा समाज के हर व्यक्ति को समुदाय और धर्म की रचना में मुख्य भूमिका निभाने का अवसर प्रदान हो।
2. दूसरी ओर इस्लाम ऐसा वातावरण स्थापित करता है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का सही ढंग से उपयोग करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति का प्रशिक्षण होता रहता है।
3. और तीसरी बात यह है कि इस्लाम ने इस स्वतन्त्रता की कुछ सीमाएँ निर्धारित की हैं ताकि किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता किसी दूसरे व्यक्ति या क़ौम के दिल दुखाने या शोषण करने का कारण ना बने और यह स्वतन्त्रता सार्वजनिक हित को चोटिल करने वाली ना हो।
सबसे पहली बात अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को सकरात्मक और रचनात्मक नींव पर उठाने और उसे सार्वजानिक हित के लिए सुरक्षात्मक बनाने के लिए इस्लाम एक अत्यंत सुन्दर सिद्धांत और खूबसूरत नियम को प्रस्तुत करते हुए कहता है कि
[4]وَقُولُوا لِلنَّاسِ حُسْنًا
अर्थात लोगों से सदैव अच्छी बात ही कहा करो।
क्योंकि यदि बात अच्छी ना हो अच्छे प्रकार से ना की जाए या इसमें बढ़-चढ़ कर अपमान और हास्यास्पदता की मिलावट हो जाए तो यह शैतानी कार्य होता है इसलिए अल्लाह तआला ने नबी करीम स.अ.व. को आदेश दिया है कि
قُلْ لِعِبَادِي يَقُولُوا الَّتِي هِيَ أَحْسَنُ إِنَّ الشَّيْطَانَ يَنْزَغُ بَيْنَهُمْ إِنَّ الشَّيْطَانَ كَانَ لِلْإِنْسَانِ عَدُوًّا مُبِينًا[5]
अर्थात (ऐ पैग़म्बर) तू मेरे बन्दों से कह दे कि ऐसी बात किया करें जो सबसे अच्छी हो। क्योंकि शैतान बुरी बात कहलवाकर लोगों में शत्रुता डलवाता है।
हुस्न ए कलाम और वार्तालाप में الَّتِي هِيَ أَحْسَنُ का इतना पास करने पर इस्लाम इतना अधिक ज़ोर देता है की धार्मिक विचार विमर्श और वाद विवाद के विषय में भी आदेश देता है।
وَجَادِلْهُمْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ[6]
अर्थात दूसरे धर्म के लोगों के साथ वाद विवाद के समय भी अच्छे मार्ग और अच्छे प्रमाण से बात करो।
यही नहीं इस्लाम तो कहता है कि वास्तविक मुसलमान ही वही है जिसकी ज़ुबान और हाथ से दूसरे व्यक्ति सुरक्षित हों।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इमारत को सकरात्मक और रचनात्मक नीवों पर खड़ी करने के लिए इस्लाम एक और सिद्धान्त प्रस्तुत करते हुए कहता है कि
قُولُوا قَوْلًا سَدِيدًا[7]
अर्थात साफ़ सीधी और सच्ची बात कहा करो। बल्कि जो बात करो सच्ची हो और झूठ बोलने और झूठी गवाही देने से बचो।
इस्लाम सच्ची बात कहने पर इतना ज़ोर देता है कि कुछ परिस्थितियों में इसे जिहाद बल्कि सबसे अच्छा जिहाद घोषित करता है।
अतः नबी करीम स.अ.व ने फ़रमाया है कि –
सब से अच्छा जिहाद एक अत्याचारी राजा के समक्ष सच्ची बात कहना है।[8]
फिर इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के वृक्ष की आबकारी के लिए एक और नियम प्रस्तुत करते हुए कहता है कि
وَإِذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوا[9]
अर्थात जब भी बात करें न्याय और सच पर आधारित बात करें।
न्याय नहीं होगा तो अत्याचार फैलेगा और जिस समाज में अत्याचार फैलेगा वहाँ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का खून होता रहेगा।
दूसरी बात यह है कि इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का उपयोग करने का सही वातावरण प्रदान करता है ताकि हर व्यक्ति का इस अधिकार को सही ढंग से उपयोग करने का अभ्यास होता रहे। इस विषय में इस्लाम कहता है कि
كُنْتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ[10]
अर्थात उम्मत के हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वो अच्छी बातों की प्रेरणा दे और बुराई की बातों से मना करे। अर्थात हर एक का दायित्व है कि वह अपनी बात और कार्य और लेख और भाषण से अच्छाई के दीपक प्रकाशित करे और बुराई से रोक कर बुराई के अन्धकार को मिटाने का प्रयास करता रहे। अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने को ना केवल उम्मत के हर व्यक्ति का अधिकार बल्कि मुसलमानों का व्यक्तिगत और सामाजिक कर्तव्य घोषित किया गया है।
फिर इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का सही ढंग से उपयोग करने के लिए परामर्श प्रणाली को प्रस्तुत करता है। इस्लाम हर व्यक्ति को सुझाव देने का अवसर और अनुमति देता है। फरमाया:
وَشَاوِرْهُمْ فِي الْأَمْرِ[11]
उपरोक्त आयत में अल्लाह के रसूल स. अ. व. को आदेश दिया गया है कि महत्त्वपूर्ण कार्यों में (जिन में राज-पाट से सम्बन्धित कार्य भी सम्मिलित हैं) सहाबा र.अ. से सुझाव लिया करें। अतः जंग-ए-उहद के अवसर पर रसूल अल्लाह स.अ.व. के कुछ बड़े सहाबा का सुझाव यह था कि शहर के अन्दर मोर्चे बनाए जाएँ परन्तु नौजवानों का सुझाव यह था कि बाहर निकल कर खुले मैदान में शत्रु का मुक़ाबला किया जाए। अतः रसूल अल्लाह स.अ.व. ने नौजवानों के सुझाव के अनुसार निर्णय लिया और उहद पहाड़ के नीचे जंग की मोर्चाबन्दी की।
इसी प्रकार जंग-ए-अहज़ाब में भी आप स.अ.व.ने सहाबा र.अ. से सुझाव लिया और समस्त सुझावों में से हज़रत सलमान फ़ारसी र.अ. के सुझाव को वरीयता दी और मदीना के आस पास खन्दक (खाई) खुदवाई।
शूरा (अर्थात परामर्श लेने की प्रक्रिया) द्वारा स्वतन्त्रता के साथ अपनी राय को व्यक्त करने के इस प्रशिक्षण का सहाबा पर इतना अधिक प्रभाव था कि वे जहाँ और जब किसी सुझाव को लाभदायक समझते बिना झिझक प्रस्तुत कर देते थे।
इस का एक उदाहरण जंग-ए-बदर का किस्सा है। इस जंग में आप स.अ.व. ने एक स्थान पर पड़ाव डाला। एक सहाबी हुबाब बिन अलमुनज़र ने स्वयं नबी करीम स.अ.व. की सेवा में उपस्थित होकर कहा कि जिस स्थान पर आप ठहरे हैं यह किसी ईश्वरीय वाणी के अंतर्गत है या यह स्थान आपने स्वयं पसन्द किया है? आप स.अ.व. ने फ़रमाया कि जंग की रणनीति के हिसाब से मेरा यह विचार था कि यह स्थान ऊँचा है इसलिए अच्छा होगा। यह सुन कर हुबाब बिन अलमुनज़र ने निवेदन पूर्वक कहा कि फिर शायद यह स्थान ठीक नहीं है।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यह कितना उच्च उदाहरण है कि एक साधारण व्यक्ति मदीना शहर के शासक और नबी करीम स.अ.व. के समक्ष बिना किसी भय के अपना सुझाव व्यक्त करता है और नबी करीम स.अ.व. ने भी इस धृष्टता के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की बल्कि साधारणतः केवल यह पूछा कि तुम्हारी यह राय किस बुनियाद पर है? और जब उसने अपनी राय का महत्व बताया तो आपने तुरन्त इसे स्वीकार कर लिया।
फिर इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पोषण के लिए एक आदर्श वातावरण प्रदान करते हुए दया और नम्रता के व्यवहार को अपनाने की शिक्षा देता है। अतः इस विषय में अल्लाह तआला फरमाता है।
[12]فبِمَا رَحْمَةٍ مِنَ اللَّهِ لِنْتَ لَهُمْ وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوا مِنْ حَوْلِكَ فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمْ
अर्थात लोगों को एकजुट रखने के लिए और उनके सामाजिक तथा धार्मिक रिश्तों की इमारत को फूट और घृणा की दरारों से बचाने के लिए लोगों से नर्म ज़ुबान से बात करें। सख्ती ना करें। यदि उनसे कुछ कठोर बात हो भी जाए तो क्षमादान से काम ले कर बात समाप्त कर दें और उनकी गलतियों के विषय में अल्लाह तआला से क्षमा याचना हेतु दुआ करें।
इस ईश्वरीय आदेश पर कार्यबद्ध रहते हुए रसूल ए करीम स.अ.व. ने भी नसीहत फ़रमाई कि ان اللہ یحب الرفق فی الامر کلہ अर्थात अल्लाह तआला समस्त कार्यों में नम्रता को पसन्द फरमाता है यही नहीं बल्कि आप स.अ.व. ने अपने आदर्श द्वारा इसके उदाहरण भी स्थापित किए।
ज़ैद-बिन-सआना एक यहूदी विद्वान था इससे किसी अवसर पर हज़रत मुहम्मद स.अ.व ने क़र्ज़ लिया था और क़र्ज़ लेते समय वापसी की एक तारीख निर्धारित की थी परन्तु ज़ैद निर्धारित समय से दो तीन दिन पहले ही क़र्ज़ माँगने लगा और बड़ी ढिटाई तथा अभिमानी शैली में आपकी चादर खींची और बड़ी भद्दी भाषा में कहने लगा कि “तुम बनी अब्दुल मुतल्लिब क़र्ज़ चुकाने के मामले में बहुत ही बुरे और टाल मटोल से काम लेने वाले हो।” हज़रत उमर र.अ. वहाँ उपस्थित थे उन्होंने कहा यदि मुझे आप स.अ.व का भय न होता तो मैं इस अशिष्टता के कारण अपनी तलवार से तेरा सर उड़ा देता। यह सुनकर हज़रत मुहम्मद स.अ.व. मुस्कुराए और फ़रमाया ”ऐ उमर ! उसे झिड़कने की बजाए सही यह था कि तुम मुझे क़र्ज़ चुकाने और वादा पूरा करने के लिए कहते और उसे नम्रतापूर्वक क़र्ज़ माँगने की नसीहत करते। यह कह कर आप स.अ.व. ने हज़रत उमर को आदेश दिया कि इसका क़र्ज़ अदा कर दो और उससे सख्त व्यवहार करने के बदले बीस साअ (लगभग सात किलो) खजूरें उसे अधिक दो”
स अच्छे व्यवहार, नम्रता और सुन्दर नैतिकता से यहूदी बहुत प्रभावित हुआ और अंततः मुसलमान हो गया।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यह कैसा उच्च उदाहरण है कि स्वतन्त्रता के दुरूपयोग करने वाले को नम्रतापूर्वक ना केवल अच्छी नसीहत की बल्कि अपनी नैतिकता के आधार पर उसका व्यवहारिक उदाहरण भी प्रस्तुत कर दिया जिस का सुपरिणाम भी तुरन्त प्रकट हो गया।
इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का इतना अधिक समर्थक है कि हर प्रकार की ज़बरदस्ती और धमकी और धौंस को नकारते हुए धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए
لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ[13]
अर्थात- धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं है।
وَقُلِ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكُمْ فَمَنْ شَاءَ فَلْيُؤْمِنْ وَمَنْ شَاءَ فَلْيَكْفُرْ[14]
अर्थात – और कह दे कि यह मेरे रब की ओर से सच्चाई है, अतः जो चाहे इस को स्वीकार करे और जो चाहे इन्कार करे।
ऐसे महान सिद्धांतों की घोषणा करता है। अर्थात धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं और सच्चाई तो वही है जो तुम्हारे रब की ओर से हो अतः अब जो चाहे वो स्वीकार करे और जो चाहे इन्कार करे।
हज़रत मुहम्मद स.अ.व. का जीवन सहनशीलता और धार्मिकता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के असंख्य उदाहरणों से भरा पड़ा है।
इस्लाम के शत्रु अकर्मा का किस्सा बहुत प्रसिद्ध है। जंगी अपराधों के कारण उसके क़त्ल का आदेश पारित हो चुका था। उसकी पत्नी रसूल अल्लाह स.अ.व की सेवा में उसकी क्षमा याचना हेतु उपस्थित हुई तो आप स.अ.व ने बड़ी दया करते हुए उसे क्षमा कर दिया। अकर्मा की पत्नी उसे लेकर नबी करीम स.अ.व. की सेवा में उपस्थित हुई तो अकर्मा ने पूछा: क्या आपने सचमुच मुझे क्षमा कर दिया ? आप स.अ.व ने फ़रमाया- सच में मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है। अकर्मा ने फिर पूछा कि क्या अपने धर्म पर रहते हुए? अर्थात मैं मुसलमान नहीं हुआ इस शिर्क की अवस्था में मुझे आपने क्षमा किया है? तो आपने फ़रमाया कि हाँ। रसूल अल्लाह स.अ.व. की नैतिकता और उपकार का यह चमत्कार देख कर अकर्मा मुसलमान हो गया।[15]
इस घटना का वर्णन करके हज़रत खलीफ़तुल मसीह अलखामिस फरमाते हैं:
इस्लाम नैतिकता और अभिव्यक्ति तथा धार्मिक स्वतन्त्रता से फैला है। नैतिकता और धार्मिक स्वतन्त्रता का यह तीर एक मिनट में अकर्मा जैसे व्यक्ति को घायल कर गया।
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़ैदियों और गुलामों तक को यह आज्ञा दी थी कि जो धर्म चाहो स्वीकार करो।
समामा बिन उसाल बनु हनीफ़ा का मुख्या था। यह व्यक्ति नबी करीम स.अ.व. को क़त्ल करने के अवसर में रहा। फिर सहाबा की एक जमाअत को घेर कर उस ने शहीद कर दिया। जब यह गिरफ्तार होकर नबी करीम स.अ.व. के पास लाया गया तो आपने उसे फ़रमाया कि ऐ समामा! तेरा क्या ख्याल है कि तुझसे क्या सलूक (व्यवहार) किया जाएगा? उसने कहा यदि आप मुझे क़त्ल कर दें तो आप एक खून बहाने वाले व्यक्ति को क़त्ल करेंगे और यदि आप उपकार करें तो एक ऐसे व्यक्ति पर उपकार करेंगे जो उपकार की सराहना करने वाला है।
तीन दिन तक आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आते रहे और समामा से यही प्रश्न पूछते रहे और समामा भी यही उत्तर देता रहा। अंततः तीसरे दिन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया समामा को आज़ाद कर दो। इस पर वह मस्जिद के निकट खजूरों के बाग़ में गया और गुसल किया (नहाया) और मस्जिद में प्रवेश करके कलमा पढ़कर कहने लगा। ऐ मुहम्मद! ख़ुदा की क़सम मुझे दुनिया में सबसे अधिक नापसन्द आपका चेहरा हुआ करता था और अब यह स्थिति है कि मुझे सबसे अधिक प्रिय आपका चेहरा है। ख़ुदा की क़सम मुझे दुनिया में सबसे नापसन्दीदा धर्म आपका धर्म हुआ करता था परन्तु अब यह स्थिति है कि मुझे सबसे अधिक प्रिय धर्म आपका लाया हुआ धर्म है। ख़ुदा की क़सम मैं सबसे अधिक नापसन्द आपके शहर को करता था और अब यही शहर मेरा सबसे प्रिय शहर है।(सही बुखारी, किताब अल-मगाज़ी बाब वफद बनु हनीफ़ा-समामा बिन उसाल- 4372)
हज़रत खलीफ़तुल मसीह अलखामिस फरमाते हैं:
[नबी करीम स.अ.व. ने] क़ैदी समामा से यह नहीं कहा कि अब तुम हमारे काबू में हो तो मुसलमान हो जाओ। तीन दिन तक उनके साथ सद व्यवहार होता रहा और फिर…. आज़ाद कर दिया।…. समामा भी बुद्धि रखते थे इस स्वतन्त्रता को प्राप्त करते ही उन्होंने स्वयं को नबी करीम स.अ.व.की ग़ुलामी में जकड़े जाने के लिए प्रस्तुत कर दिया कि इसी गुलामी में मेरे धर्म और संसार की भलाई है।[16]
इस्लाम समस्त दुनिया को अपने बारे में आलोचना की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है बल्कि आलोचना की अन्तिम स्थिति की स्वतंत्रता के साथ क़ुरआन और इस्लाम खड़ा है परन्तु अवैध और अनावश्यक आलोचना के विपरीत वह बुद्धि, चेतना और प्रमाण का प्रयोग करने पर उभारता है और هَاتُوا بُرْهَانَكُمْ (अर्थात इस बात पर अपनी कोई दलील तो प्रस्तुत करो। अलबकर:- 112) का आमंत्रण देता है।
यहूदियों और ईसाइयों ने जब यह दावा किया कि केवल वही स्वर्ग में प्रवेश करेंगे तो इस्लाम ने यह नहीं कहा कि तुम्हें इस दावे की घोषणा का कोई अधिकार नहीं बल्कि उन्हें कहा कि
هَاتُوا بُرْهَانَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ (البقرة 112) अर्थात हर बात कहने की स्वतंत्रता है परन्तु यदि सच्चे हो तो प्रमाण से बात करो।
यूँ इस्लाम ने आलोचना की पूर्ण स्वतंत्रता को नैतिकता की सीमा में रखने का सिद्धान्त प्रदान किया है क्योंकि सीमाओं के सम्मान से चेतना जन्म लेती है। जहाँ स्वस्थ आलोचना की सीमा समाप्त होती है वहाँ से अनचाही कमी और हँसी ठट्टा आरम्भ हो जाता है। इसलिए यह कहना सही है कि इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थक और उसकी ओर बुलाने वाला है परन्तु बिल्कुल स्वतंत्र और अनंत और असीमित स्वतंत्रता का पक्षधर नहीं। अतः इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सम्मान, मानवता के सम्मान, इन्सानियत का सम्मान, न्याय और इन्साफ, मान सम्मान और अमन शान्ति के दायरे में रखने के लिए सीमाएँ और नियम व्यक्त करता है जो इस अधिकार के महत्त्व को चार चाँद लगा देते हैं और इसकी महानता और खूबी को बढ़ाने वाले और उसकी सुन्दरता को दोगुना करने वाले हैं। इस सम्बन्ध में इस्लाम यह व्यापक नियम प्रस्तुत करता है कि
وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ[17]
और अल्लाह फसाद करने वालो को पसन्द नहीं करता। अर्थात सदैव यह ख्याल रहे कि आप का सुझाव, बात या कार्य या भाषण या लेख धरती पर फसाद का कारण ना हो।
इस बात को पैगम्बर-ए-इस्लाम स.अ.व. ने एक प्रकार से यूँ व्यक्त किया है कि لا ضرر ولا ضرار (सुनन इब्न माजा किताब अल-अहकाम) अर्थात किसी के सुझाव या अधिकार या बात या कार्य से यदि स्वयं उसका या किसी दूसरे का सम्मान, माल, जान और अधिकार की हानि होती हो तो ऐसी स्वतंत्रता पाप और अपराध बन जाएगी।
फिर इस्लाम एक और नियम स्थापित करते हुए कहता है कि सुनी सुनाई बातें और राष्ट्रिय सुरक्षा से सम्बन्धित कार्यों को बिना छान बीन के फैलाना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में नहीं आता।
इस्लाम ऐसे कार्यों को हतोस्ताहित करते हुए कहता है कि
وَإِذَا جَاءَهُمْ أَمْرٌ مِنَ الْأَمْنِ أَوِ الْخَوْفِ أَذَاعُوا بِهِ وَلَوْ رَدُّوهُ إِلَى الرَّسُولِ وَإِلَى أُولِي الْأَمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِينَ يَسْتَنْبِطُونَهُ مِنْهُم[18]
अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विभिन्न प्रकार के भय से संबन्धित कार्यों और राष्ट्रीय शान्ति से सम्बन्धित समाचार को फैलाने के विषय में सावधानी न की जाए तो अशान्ति फैलेगी और राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक शान्ति नष्ट हो जाएगी। ऐसे कार्यों को सम्बन्धित अधिकारियों से आश्वासन के बिना फैलाने से बचना चाहिए।
इस बात की एक और प्रकार से व्याख्या करते हुए नबी करीम स.अ.व. ने फ़रमाया कि
کفی بالمرء کزباً ان یحدث بکل ما سمع[19]
अर्थात किसी इन्सान के झूठा होने के लिए यही बात काफी है कि वह हर सुनी सुनाई बात को बिना छान-बीन के आगे फैलाता फिरे।
इस्लाम कहता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निराधार प्रोपगेंडा का हिस्सा न बनो। अल्लाह ताआला का आदेश है:
وَلَا تَقْفُ مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ[20]
अर्थात और जिस बात का तुम्हें ज्ञान ना हो उसके पीछे ना पड़ो। अर्थात यदि कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी बातें फैला रहा हो जिन के सही होने के विषय में तुम्हें जानकारी नहीं तो तुम इस प्रोपगेंडा का हिस्सा ना बनो।
आज इस बात की अत्यधिक आवश्यकता है। आज कोई व्यक्ति कहीं से कोई खबर उड़ाता है और देखते ही देखते वो ट्रेन्ड बन जाती है। अब यदि वह खबर सही ना हो तो उसके परिणाम में अपूरणीय क्षति होने का अनुमान है। इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस प्रकार के प्रोपगेंडा का हिस्सा बनने से कठोरता पूर्वक मना करता है।
राय व्यक्त करने के विषय में इस्लाम एक और नियम स्थापित करते हुए कहता है कि
قل إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ وَالْإِثْمَ وَالْبَغْيَ [21]
अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह ध्यान रहे कि आपकी बात-चीत गन्दगी से पवित्र होनी चाहिए। आपकी राय और आपकी बात चीत पाप को आमंत्रित करने वाली ना हो। आपकी राय लोगों को विद्रोह पर उकसाने वाली ना हो। यह सब बातें फसाद का कारण हैं। इसलिए इस्लाम ने इनसे मना फ़रमाया है।
फिर इस्लाम राय व्यक्त के सन्दर्भ में وَيْلٌ لِكُلِّ هُمَزَةٍ لُمَزَةٍ (الهمزة 2) कह कर समस्त प्रकार की चुगलखोरी और दोषारोपण से मना करता है। और रसूल अल्लाह स.अ.व. ने फ़रमाया है:
[22]لیس المومن بالطعان ولا اللعانولالفاحش ولاالبذیٔ
अर्थात मोमिन ना तो कटाक्ष करने वाला होता है, ना कोसने वाला, ना गाली गलौज करने वाला होता है और ना अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाला।
अर्थात इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में किसी की बुरी प्रसिद्धि, कटाक्ष, गाली-गलौज और बदनामगी की आज्ञा नहीं देता।
इस्लाम यह भी कहता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि किसी की अवमानना की जाए। अल्लाह तआला फरमाता है:
يُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا يَسْخَرْ قَوْمٌ مِنْ قَوْمٍ عَسَى أَنْ يَكُونُوا خَيْرًا مِنْهُمْ وَلَا نِسَاءٌ مِنْ نِسَاءٍ عَسَى أَنْ يَكُنَّ خَيْرًا مِنْهُنَّ وَلَا تَلْمِزُوا أَنْفُسَكُمْ وَلَا تَنَابَزُوا بِالْأَلْقَابِ[23]
ना कोई पुरुष दूसरे पुरुष का उपहास करे और ना महिलाएँ दूसरी महिलाओं का उपहास करें। ना एक दूसरे पर दोष लगाएँ ना दूसरों को बुरे नाम लेकर और बुरे उपनामों से पुकारें।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लोगों की अवमानना करना उनसे उपहास और हँसी ठट्ठे का व्यवहार करना उनकी बुरी तस्वीरें बनाना और अपमानजनक चित्र बना कर उनके बुरे नाम रखना सब मना है क्योंकि यह तरीका समाज में घृणा, बैचैनी और अशान्ति का कारण बनेगा।
फिर इस्लाम कहता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में किसी व्यक्ति के निजी सम्मान को ठेस ना पहुंचाई जाए। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि:
وَلَقَدْ كَرَّمْنَا بَنِي آدَمَ[24]
र्थात हमने समस्त आदम की औलादों की इज़्ज़त और मानवता का सम्मान स्थापित किया है जो हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। नबी करीम स.अ.व. ने फ़रमाया है कि
[25]یا ایھا الناس ان دماءکم و اموالکم و اعراضکم علیکم حرام
र्थात हे लोगो ! तुम्हारा खून, तुम्हारा माल, तुम्हारा सम्मान एक दूसरे पर हराम है।
इस्लाम ने दूसरे धर्मों और समुदाय की भावनाओं का ध्यान रखने के लिए विशेष मार्गदर्शन किया है।
एक हदीस में आता है कि मदीना के राज्य में एक मुसलमान और यहूदी का झगड़ा हो गया। मुसलमान कहता था कि मुहम्मद स.अ.व. समस्त नबियों से महान हैं और यहूदी कहता था कि मूसा अ.स. को यह महानता प्राप्त है। इस पर मुसलमान ने हाथ उठाया और यहूदी को थप्पड़ मार दिया। यहूदी शिकायत लेकर मुहम्मद स.अ.व. की सेवा में उपस्थित हुआ और मुहम्मद स.अ.व. ने झगड़े का विवरण सुनने के पश्चात् फ़रमाया:
[26]لا تخیرنی علی موسیٰؑ
र्थात- मुझे मूसा पर महानता ना दो।
हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह अल-खामिस यह हदीस प्रस्तुत करने के बाद फरमाते हैं:
यह थी आप स.अ.व. की अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता की गुणवत्ता कि अपना राज्य है परन्तु इस राज का यह अर्थ नहीं था कि दूसरी समाज के दूसरे लोगों की भावनाओं का ध्यान ना रखा जाए। क़ुरआन करीम की इस गवाही के बावजूद कि आप समस्त रसूलों से महान हैं आपने यह पसन्द ना किया कि नबियों के मुक़ाबले के कारण वातावरण को गन्दा किया जाए। आप ने उस यहूदी की बात सुनकर मुसलमान ही को डाँट-डपट की कि तुम लोग अपनी लड़ाइयों में नबियों को ना लाया करो। ठीक है तुम्हारे निकट में समस्त रसूलों से महान हूँ। अल्लाह तआला भी इसका साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है परन्तु हमारे राज्य में एक व्यक्ति का दिल इसलिए नहीं दुखना चाहिए कि उसके नबी को किसी ने कुछ कहा है। इसकी में आज्ञा नहीं दे सकता। मेरा सम्मान करने के लिए तुम्हें दूसरे नबियों का भी सम्मान करना होगा।
फ़रमाया:
यह थी आपके न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गुणवत्ता जो अपनों तथा गैरों सबका ध्यान रखने के लिए आपने स्थापित फ़रमाई थी बल्कि कभी कभी गैरों की भावनाओं का ध्यान अधिक रखा जाता था।[27]
इस्लाम दूसरे धर्मों का अपमान और उनकी पवित्रता को गाली देने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध समझता है।
इस्लाम यह कहता है कि यह ठीक है कि तुम अपना मत व्यक्त करने में स्वतन्त्र हो और यह भी सही है कि ख़ुदा के अतिरिक्त जिनकी उपासना की जाती है वे झूठे ख़ुदा या पत्थर, उन्हें भी बुरा भला ना कहो और दूसरे धर्मों और समुदाय की भावनाओं का ध्यान रखो।
एक हदीस में आता है खैबर की फतह के समय तौरात की कुछ प्रतियां मुसलमानों को मिलीं। यहूदी आप स.अ.व. की सेवा में उपस्थित हुए कि हमारी पवित्र पुस्तक हमें वापस की जाए और रसूल-ए-करीम स.अ.व. ने सहाबा को यह आदेश दिया कि यहूद की धार्मिक पुस्तकें उनको वापस कर दो।[28]
थोड़ा विचार करें कि जंग की परिस्थितियाँ हैं यहूद किलाबंद हैं और मुसलमानों ने उनको घेरा हुआ है ऐसी स्थिति में भी आप स.अ.व. ने यह सहन नहीं किया कि शत्रु से भी ऐसा व्यवहार किया जाए जिस से उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचे।
इस्लाम की इस महान और सुन्दर शिक्षा के विपरीत आज के समय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में सोशल मीडिया के बाग़ी घोड़े को ऐसा बेलगाम छोड़ दिया गया है कि इसने आस्था के साथ इन्सानों की नैतिकता को भी पैरों तले रौंद कर रख दिया है यह साहस इस सीमा तक पहुँच गया कि पवित्र स्थान, विभूतियाँ और नबी अवतार भी इससे सुरक्षित नहीं रहे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपमानजनक कार्यों की यह लहर आज की नहीं बल्कि यह प्रयास अन्दरूना बाईबल और उम्महातुल मोमिनीन जैसी पुस्तकों की शक्ल में सामने आई तो कभी रंगीला रसूल जैसी अपमानजनक लेख के रूप में प्रकट हुई। कभी शैतानी आयात के रूप में तो कभी कार्टूनों और गन्दी फिल्मों द्वारा इस घिनौने कार्य को किया गया। और हर समय अहमदिया जमाअत के संस्थापक और खुलफ़ा-ए-कराम ने इन फ़ितनों का इस्लामी शिक्षा के आलोक में सबसे प्रभावशली और भरपूर उत्तर दिया।
पिछले वर्षों में जब यह अपमानजनक कार्य किए गए तो जिस एक व्यक्ति ने इस्लामी शिक्षा की रौशनी में इसका यथोचित, व्यापक और अत्यधिक सुन्दर उत्तर दिया वह जमाअत-ए-अहमदिया के इमाम हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद ख़लीफ़तुल मसीह अल-खामिस हैं।
आपने जहाँ अहमदियों को नबी करीम स.अ.व. की जीवनी के उच्च गुणों को अपनाने और उन्हें दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने की नसीहत फ़रमाई वहाँ मुसलमानों की गलत प्रतिक्रिया को इस्लामी शिक्षा से जोड़ने से भी मना फ़रमाया।
आपने एक ओर जमाअत के लोगों को नसीहत की कि अपने अपने इलाक़े और देश के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को ऐसे अपमानजनक कार्यों के दुष्प्रभावों से सचेत करें तो दूसरी ओर आपने स्वयं अपने ख़ुत्बों (प्रवचनों) में इन विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला।
एक ओर आपने इस्लामिक राज्यों का कुछ प्रयासों की ओर ध्यान केंद्रित किया तो दूसरी ओर पश्चिमी राज्यों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी ऐसे क़ानून बदलने के विषय में चिन्तन करने के लिए आमन्त्रित किया।
जमाअत-ए-अहमदिया के इमाम हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद ख़लीफ़तुल मसीह अल-खामिस ने अपने एक खुत्बा-ए-जुमा में आयत
وَلَا تَسُبُّوا الَّذِينَ يَدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ فَيَسُبُّوا اللَّهَ عَدْوًا بِغَيْرِ عِلْمٍ[29]
प्रस्तुत करके फ़रमाया।
ख़ुदा तआला फरमाता है कि दूसरों की मूर्तियों को भी बुरा ना कहो कि इससे समाज की शान्ति भंग होती है। तुम मूर्तियों को बुरा कहोगे तो वह अज्ञानतावश तुम्हारे समस्त शक्तियों वाले ख़ुदा के विषय में अपशब्द प्रयोग करेंगे जिससे तुम्हारे दिलों में दुःख पैदा होगा। दिलों में कड़वाहट बढ़ेगी। लड़ाईयाँ और झगड़े होंगे। देश में फसाद होगा। अतः यह सुन्दर शिक्षा है जो इस्लाम का ख़ुदा देता है।[30]
फिर हुज़ूर-ए-अनवर ने मुसलमान राज्यों को सम्बोधित करते हुए फ़रमाया:
क़ुरआन-ए-करीम की शिक्षा के अनुसार क्यों दुनिया के समक्ष यह प्रस्तुत नहीं करते कि धार्मिक भावनाओं से खेलना और अल्लाह के नबियों (अवतारों) का अपमान करना या उसका प्रयास करना भी अपराध है बल्कि बहुत बड़ा अपराध और पाप है। और दुनिया की शान्ति के लिए आवश्यक है कि इसको भी यू०एन०ओ० के शान्ति चार्टर का हिस्सा बनाया जाए कि कोई देश का मेम्बर अपने किसी निवासी को आज्ञा नहीं देगा कि दूसरों की धार्मिक भावनाओं से खेला जाए। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर दुनिया की शान्ति भंग करने की आज्ञा नहीं दी जाएगी।[31]
हुज़ूर-ए-अनवर ने पश्चिमी दुनिया को सचेत करते हुए फ़रमाया:
किसी भी धर्म की पवित्र विभूतियों के विषय में किसी भी प्रकार से अपमानजनक विचार को व्यक्त करना किसी भी प्रकार की स्वतन्त्रता की श्रेणी में नहीं आता।
तुम जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के चैम्पियन बनकर दूसरों की भावनाओं से खेलते हो, यह ना ही लोकतंत्र है ना ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। हर चीज़ की एक सीमा होती है और कुछ नियम तथा नैतिकता होती है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का कदापि यह अर्थ नहीं कि दूसरों की भावनाओं से खेला जाए, उनको कष्ट पहुँचाया जाए। यदि यही स्वतंत्रता है जिसपर पश्चिमी देशों को गर्व है तो यह स्वतंत्रता विकास की ओर ले जाने वाली नहीं अपितु विनाश की ओर ले जाने वाली स्वतंत्रता है।[32]
फिर हुज़ूर-ए-अनवर ने पश्चिम और यू०एन०ओ० को सम्बोधित करते हुए फ़रमाया:
स्वतंत्रता से सम्बन्धित क़ानून कोई आसमानी क़ानून नहीं है अतः अपने क़ानून को ऐसा पूर्ण ना समझें कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क़ानून तो है लेकिन ना किसी देश के क़ानून में ना यू०एन०ओ० के चार्टर में यह नियम है कि किसी व्यक्ति को यह स्वतंत्रता नहीं होगी कि दूसरे की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाए। यह कहीं नहीं लिखा कि दूसरे धर्म के बुज़ुर्गो का उपहास करने की आज्ञा नहीं होगी क्योंकि इससे दुनिया की शान्ति भंग होती है, इससे घृणा के लावे उबलते हैं, इससे समुदाय और धर्मों के मध्य दरारें बढ़ती चली जाती हैं।
अतः यदि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का क़ानून बनाया है तो अवश्य बनाएँ परन्तु दूसरे व्यक्ति की भावनाओं से खेलने का क़ानून ना बनाएँ।[33]
हज़रत मसीह मौऊद अ.स. ने ऐसे अपमानजनक प्रयासों को रोकने और शान्ति को स्थापित रखने के कारण आज से लगभग 124 वर्ष पूर्व इस्लामी सिद्धान्तों और क़ुरआनी शिक्षाओं के आलोक में एक सुझाव देते हुए फ़रमाया था कि:
यह सिद्धान्त बहुत सही और बहुत पवित्र और इसके बावजूद सन्धि की नींव डालने वाला है कि हम ऐसे समस्त नबियों को सच्चे नबी समझें जिनका धर्म जड़ पकड़ गया और उम्र पा गया और करोड़ों लोग उस धर्म में आ गए।
यह सिद्धान्त बहुत अच्छा सिद्धान्त है और यदि इस वास्तविकता की समस्त दुनिया पाबन्द हो जाए तो हज़ारों झड़गे और धार्मिक अपमान जो दुनिया की शान्ति के विपरीत हैं समाप्त हो जाएँ। यही सिद्धान्त है जो क़ुरआन ने हमें सिखाया है। शान्ति को दुनिया में फैलाने वाला केवल यही एक सिद्धान्त है जो हमारा सिद्धान्त है।[34]
इस्लाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषय में कहता है कि नम्रता के साथ लोगों से अच्छी बात करो। न्याय और सत्य से हटी हुई बात ना करो। ऐसी बात ना करो जिस से धरती पर झगड़े या अशान्ति फैले। किसी की बुरी प्रसिद्धि ना करो। कटाक्ष और गाली-गलौज ना करो, किसी की अवमानना ना करो और हँसी-ठट्टा ना करो।
इस्लाम कहता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में किसी साधारण से साधारण व्यक्ति के सम्मान को ठेस ना पहुँचाओ।
इस्लाम कहता है कि दूसरे धर्मों और दूसरों की पवित्रता और सम्मानित लोगों का अपमान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है।
निःसन्देह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के विषय में इस्लाम की प्रस्तुत की हुई शिक्षा अत्यधिक उत्तम और हर बुराई से पवित्र और हर अच्छाई से परिपूर्ण है। और निःसन्देह इस्लाम की वर्णित सीमाएँ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की खूबी को निखारने वाली और उसकी सुन्दरता को दोबाला करने वाली हैं। और आज या कल, शीघ्र या देर से दुनिया की क़ौमों को इन सीमाओं को अपनाना पड़ेगा और इन सिद्धान्तों को लागू करना पड़ेगा क्योंकि दुनिया को विकास की ओर ले जाने वाली वास्तविक स्वतन्त्रता यही स्वतन्त्रता है जो इस्लाम ने वर्णन की है। और दुनिया में शान्ति फैलाने वाले सफल सिद्धान्त यही सिद्धान्त हैं जो इस्लाम ने प्रस्तुत किए हैं।
सन्दर्भ
[1] पवित्र क़ुरआन सूरः आल इमरान आयत 111
[2] पवित्र क़ुरआन सूरः अल इसरा आयत 54
[3] इस्लाम और वर्तमान युग की समस्याओं का समाधान पृष्ठ: 47
[4] पवित्र क़ुरआन सूरः अल बक़रः आयत 84
[5] पवित्र क़ुरआन सूरः अल इसरा आयत 54
[6] पवित्र क़ुरआन सूरः अन्नहल आयत 126
[7] पवित्र क़ुरआन सूरः अल अहज़ाब आयत 71
[8] मुसनद अहमद बिन हन्बल
[9] पवित्र क़ुरआन सूरः अल अनआम आयत 153
[10] पवित्र क़ुरआन सूरः आल इमरान आयत 111
[11] पवित्र क़ुरआन सूरः आल इमरान आयत 160
[12] पवित्र क़ुरआन सूरः आल इमरान आयत 160
[13] पवित्र क़ुरआन सूरः अल बक़रः आयत 257
[14] पवित्र क़ुरआन सूरः अल कहफ़ आयत 30
[15] अल-सीरत अल-हलबिया जिल्द 3 पृष्ठ 109
[16] खुत्बा जुमा दिनाँक 10 मार्च 2006 ई
[17] पवित्र क़ुरआन सूरः अल बक़रः आयत 206
[18] पवित्र क़ुरआन सूरः निसा आयत 84
[19] सहीह मुस्लिम, किताब अल-मुक़द्दमा
[20] पवित्र क़ुरआन सूरः अल इसरा आयत 37
[21] पवित्र क़ुरआन सूरः अल अ’राफ आयत 34
[22] सुनन अल-तिरमिज़ी
[23] पवित्र क़ुरआन सूरः अल हुजरात आयत 12
[24] पवित्र क़ुरआन सूरः अल इसरा आयत 71
[25] मुसनद अहमद बिन हन्मल
[26] सहीह बुखारी किताब अल-खसूमात हदीस: 2411
[27] खुत्बा जुमा 10 मार्च 2006 ई
[28] अल-सीरत अल-हल्बीया ज़िक्र मगाज़िया ज़िक्र गज़वा-ए-खैबर जिल्द 3 पृष्ठ 49
[29] पवित्र क़ुरआन सूरः अल अनआम आयत 109
[30] खुत्बा जुमा 21 सितम्बर 2012
[31] ख़ुत्बा जुमा 21 सितम्बर 2012
[32] खुत्बा जुमा 17 फ़रवरी 2006
[33] खुत्बा जुमा 21 सितम्बर 2012
[34] तोहफ़ा-ए-कैसरिया, रूहानी ख़ज़ाइन जिल्द 12 पृष्ठ 258-262
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