क़ुरआन-ए-मजीद की हिफ़ाज़त करने वाला अल्लाह तआला है (क़िस्त-3)

इस धरती पर बसने वाले करोड़ों मुस्लमानों का यह ईमान और विश्वास क़ियामत तक रहेगा कि क़ुरआन-ए-मजीद अल्लाह का कलाम है और नुज़ूल के दिन से ही अल्लाह तआला ने उसको अपने संरक्षण में रखा हुआ है और क़ियामत तक रखेगा। और यह भी एक हक़ीक़त है कि पिछली चौदह सदियों में शैतानी और पिशाचवृत्त ताक़तों ने इस कलाम इलाही में सैंकड़ों स्थान आपति और संदेह पैदा करने की कोशिशें कीं और यह सिलसिला अब तक जारी है। वर्तमान में ही लखनऊ के वसीम रिज़वी नामी एक व्यक्ति ने सुप्रीमकोर्ट आफ़ इंडिया में एक अर्ज़ी दाख़िल की और 26 क़ुरआन-ए-मजीद की आयतों को हज़फ़ करने का मुतालिबा किया।
quran

क़ुरआन-ए-मजीद की हिफ़ाज़त करने वाला अल्लाह तआला है (क़िस्त-3)

मुहम्मद हमीद कौसर

04 अक्टूबर 2022

 

क़ुरआन-ए-मजीद की 26 आयतों पर आरोपों के उत्तर

(क़िस्त – 3)

आरोप नंबर 3

एतिराज़ करने वाले ने तहरीर किया है कि कई किताबें क़ुरआन-ए-मजीद की सूरः में लिखी गई थीं हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हु ने इन समस्त मुसहफ़ों (जिन पन्नो में क़ुरआन-ए-मजीद लिखा गया तहस) को जलाने का हुक्म दिया और अपना क़ुरआन-ए-मजीद जारी किया जो आज तक पढ़ा जाता है।

उत्तर : यह आरोप ग़लत और बे-बुनियाद है कि हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हो ने अपना क़ुरआन-ए-मजीद जारी किया। इस की मज़ीद तफ़सील यह है कि (1) हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हो का ज़माना ख़िलाफ़त सन् 11 हिज्री ता 13 हिज्री (के अनुसार 632 ता 634 ई. तक तक़रीबन दो वर्ष रहा (2) हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हो का ज़माना ख़िलाफ़त सन् 13 हिज्री ता 24 हिज्री ( के अनुसार 634 ई. ता 645 ई. तक तक़रीबन ग्यारह बारह वर्ष रहा।

(3) हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हो का ज़माना ख़िलाफ़त सन् 24 हिज्री ता35 हिज्री (के अनुसार 645 ई. ता 656 ई. तक़रीबन ग्यारह वर्ष रहा 4) हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का ज़माना ख़िलाफ़त 35 हिज्री ता 40 हिज्री के अनुसार 656 ई. ता 660 ई. चार या पाँच साल रहा।

हज़रत अबू बकर रज़ियल्लाहु अन्हो और हज़रत उमर रज़ियल्लाहु अन्हो का ज़माना ख़िलाफ़त तक़रीबन 13 वर्ष रहा। इन तेराह सालों में हज़ारों हुफ़्फ़ाज़ और लाखों मुसलमानों के हाफ़िज़ा के सीनों में क़ुरआन-ए-मजीद महफ़ूज़ हो चुका था और यह वही क़ुरआन-ए-मजीद था मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम पर नाज़िल हुआ था और उनमें से अक्सर ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम से हिफ़्ज़ किया था।

और यह हुफ़्फ़ाज़ समस्त इस्लामी हकूमत और ग़ैर इस्लामिया में फैल चुके थे। अब प्रश्न यह पैदा होता है क्या हज़रत उस्मान रज़ियल्लाहु अन्हो  के लिए यह सम्भव था कि इन हुफ़्फ़ाज़ के हाफ़िज़ और सीनों से असल क़ुरआन-ए-मजीद मिटा कर अपना जारी करदा क़ुरआन-ए-मजीद डलवा दें?

चौदह सदीयां गुज़रने के बाद भी वही क़ुरआन-ए-मजीद सीना से सीना मुसलमानों में प्रचलित है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम की माध्यम से मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम पर नाज़िल हुआ उसको संदिग्ध बनाने की सैंकड़ों कोशिशें हुईं सबकी सब अल्लाह तआला ने ना-काम-ओ-ना-मुराद फ़रमा दीं। इस लिए एतिराज़ करने वाले को चौदह सदीयों की तारीख़ को पेश-ए-नज़र रखना चाहिए।

इसलिए जिस बुख़ारी की हदीस का एतिराज़ करने वाले ने हवाला दिया है इस में वर्णित है कि असल क़ुरआन-ए-मजीद हज़रत हफ़सा को वापस कर दिया और असल शब्द ये हैं कि

رَدَّ عُثْمَانُ الصُّحُفَ اِلیٰ حَفْصَۃَ وَ اَرْ سَلَ اِلٰی کُلِّ اُفُقٍ بِمُصْحَفٍ مِمَّا نَسَخُوا۔وَ اَمَرَ بِھَا سِوَاہُ مِن الْقُرْاٰنِ فِی کُلِّ صَحِیفَۃِاَوْ مُصْحَفٍ انْ یُّحَرَّ قَ

(صحیح البخاری،کتاب التفسیر،باب جمع القرآن)

अनुवाद : असल नुस्ख़ा हज़रत हफ़सा को वापस कर दिया। फिर नक़ल शूदा नुस्ख़ों से एक एक नुस्ख़ा हर इलाक़े में भेज दिया गया और हुक्म दिया कि असल नुस्ख़ा क़ुरआन-ए-मजीद के अतिरिक्त जो किसी के पास है क़ुरआन-ए-मजीद के नाम से लिखा हुआ है उसे जला दिया जाए। 

जमाअत अहमदिया और जिहाद का अक़ीदा :

हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने यह भविष्यवाणी फ़रमाई थी कि मैं उम्मत-ए- मुहम्मदिया में जिस मसीह की आमद (आने) की खुशखबरी दे रहा हूँ वह “منکم” मुस्लमानों में से ही एक व्यक्ति होगा और वही इमाम मह्दी होगा। आपने फ़रमाया وَلَا المَھدِیُّ اِلَّاعِیْسَی اِبْنُ مَرْیَمَ (सुन्न इब्ने माजा, कीताबुल फितन, बाब शिद्द्तुल अल्ज़मान) अर्थात् मह्दी के अतिरिक्त और कोई ईसा इब्ने-ए-मरियम नहीं आप सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने आने वाले मसीह-ओ-मह्दी के बारे में यह भी ख़बर दी थी कि वह जिज़्या को स्थगित कर देगा। और कुछ रवायात में जिज़्या की जगह “الحرب’’ भी आया है अर्थात् तलवार से जिहाद स्थगित कर देगा। स्पष्ट रहे कि “जिहाद” अरबी भाषा का शब्द है जो “ جُہدٌ” से बना है जिसके अर्थ मशक़्क़त बर्दाश्त करना है और जिहाद के अर्थ हैं किसी काम के करने में पूरी कोशिश करना और किसी किस्म की कमी न छोड़ना हम उर्दू में भी कहते हैं जद्दो जहद करना। क़ुरआन-ए-मजीद और अहादीस में जिहाद की बहुत सी क़िस्में वर्णन हुई हैं। हदीस में आता है।

عن جابر قال قدم النبی صلی اللہ علیہ وسلم من غزاۃ لہ فقال لھم رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم’’قد متم خیر مقدم وقد متم من الجھاد الاصغر اِلی الجھاد الاکبر قالو وماا لجھاد الا کبر یا رسول اللہ قال مجاھد ۃ العبد ھواہ ۔

(تاریخ بغداد ذکرمن اسمہ ھارون ،الجزء6صفحہ171)

हज़रत जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि हज़रत नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम एक ग़ज़वा से वापस तशरीफ़ ला रहे थे आपने वे लोग जो ग़ज़वा से वापस आए थे उनको संबोधित करते हुए फ़रमाया तुम्हारी आमद बहुत अच्छी आमद है और तुम असग़र (अर्थात् छोटे जिहाद से जिहाद) अकबर की तरफ़ आए हो सहाबा ने पूछा कि हे अल्लाह के रसूल जिहाद अकबर किया है आपने उत्तर में फ़रमाया बंदे का अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़ जिहाद।

पहले दर्जे का जिहाद वह है जो इन्सान अपने नफ़स के ख़िलाफ़ करता है। इस्लाम में सबसे बड़ा जिहाद यह है कि इन्सान अपने आप को गुनाहों से बचाए, नेक और अच्छे काम करे और जब एक मुस्लमान अपने आपको पाक कर लेता और बाअमल बन जाता है तो उसे दूसरे दर्जे का जिहाद (कबीर) करने का हुक्म है। जैसा कि फ़रमाया

 جَاہِدْ ہُمْ بِہٖ جِہَادًا کَبِیْرًا

(سورۃ الفرقان ،سورۃ نمبر 25آیت نمبر 53)  

तो क़ुरआन-ए-मजीद की शिक्षा को दूसरों तक प्रेम, तर्कों से पहुंचा। जमाअत अहमदिया के अधिकतर लोगों ख़ुदा तआला के फज़ल से दिन रात जिहाद कबीर में व्यस्त हैं, तीसरे दर्जे का जिहाद सबसे छोटा जिहाद जिहाद असग़र कहलाता है। यह केवल उस वक़्त करने की आज्ञा है जबकि मुस्लमान रुबिना अल्लाह कहने की वजह से ज़ुलम किए जाएं । और ऐसी हालत में यदि मुस्लमान छोटा जिहाद करेंगे तो अल्लाह तआला का वादा है व इन इल्लल्लाह एलाय नस लकदी (सूरः उल-हज्ज ,सूरः नंबर22आयत नंबर40) निसंदेह अल्लाह उनकी सहायता पर पूरी क़ुदरत रखता है, आज के जो मुस्लमान और उनके मौलवी जिहाद, जिहाद का नारा लगा कर मासूम इन्सानों को क़तल करते और करवाते हैं इसका इस जिहाद से दूर का भी ताल्लुक़ नहीं है जिसे क़ुरआनी जिहाद कहा जाता है । यदि यह क़ुरआनी जिहाद होता तो ज़रूर अल्लाह तआला उन्हें अपने वादे के अनुसार प्रभुत्व प्रदान करता। पिछले एक सौ वर्ष में उनकी हर मैदान में शिकस्त और पराजय इस बात का स्पष्ट इशारा बनी है कि यह क़ुरआन का जिहाद नहीं। यदि यह वह होता तो उन्हें ज़रूर विजय नसीब होती। फिर सय्यदना मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का स्पष्ट फ़रमान है मुस्लिम और मोमिन वह है जिसकी भाषा और हाथ से लोगों के जान-ओ-माल महफ़ूज़ रहें। यदि आज अपने आपको मुस्लमान मोमिन कहलाने वालों के हाथों से कहीं मासूम इन्सानों का क़तल होता है तो वही बताएं कि इस फ़रमान-ए-रसूल सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का क्या अर्थ है ? अतः साबित हुआ कि हदीस रसूलुल्लाह अल्लाह अलैहि वसल्लम के अनुसार मुस्लमान और मोमिन तो ऐसा करे गा नहीं। यदि कोई करता है तो फिर वह इस्लाम दुश्मन ताक़तों के इशारे पर इस्लाम और हक़ीक़ी मुस्लमानों को बदनाम करने के लिए ऐसा कर रहा होगा। यह बात भी दरुस्त है कि पिछली सदी में दुनिया के कुछ मुल्कों और इलाक़ों में याजूज-ओ-माजूज और दज्जाल की सियासत और ख़ुद मुस्लमानों की अपनी ग़लतियों के नतीजा में मुस्लमान दूसरी क़ौमों से युद्ध में लड़ते रहे हैं और अब तक यह सिलसिला जारी है। स्पष्ट रहे कि यह सबकी सब सयासी लड़ाईयां झगड़े क़तल-ओ-ग़ारत है। उनका इस्लाम और क़ुरआन से कोई भी ताल्लुक़ नहीं। और यदि उन्हें कोई इस्लाम की तरफ़ मंसूब करता है तो वह सख़्त ग़लती पर है। यहां यह प्रश्न पैदा होता है कि इस्लाम की शांतिपूर्ण शिक्षा के होते हुए, जिहाद का ग़लत मफ़हूम मुस्लमानों में कहाँ से सरायत कर गया। यदि तारीख़ का गहराई से अध्यन किया जाए तो इस प्रश्न का उत्तर आसानी से मिल जाएगा। इस्लाम की इबतिदाई सदियों में इस्लाम की ग़ैरमामूली प्रगतियो को देखकर इस्लाम के दुश्मन समझ गए कि अब इस्लाम का मुक़ाबला हमारे बस की बात नहीं रही। दूसरी तरफ़ वह इस्लाम को तबाह-ओ-बर्बाद और नाकाम-ओ-बदनाम करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मुस्लमानों में शामिल हो कर कुछ ग़लत अक़ायद मुस्लमानों में फैलाने शुरू किए।

जब यहूद और ईसाइयों ने देखा कि तौरात और इंजील में तो इंतिहाई जारिहाना और ज़ालिमाना शिक्षा भी दी गईं हैं और इसके मुक़ाबिल क़ुरआन-ए-करीम में इंतिहाई मुतवाज़िन और शांतिपूर्ण शिक्षा दी गईं हैं तो उन्होंने जिहाद के शब्द की ग़लत तफ़सीर मुस्लमानों में फैलाना शुरू की, और दूसरी तरफ़ मतलब परस्त मुस्लमान कहलाने वाले बादशाहों को अपनी सल्तनतों की वुसअत के लिए जिहाद की ग़लत तफ़सीर की ज़रूरत थी, इसलिए उन्होंने अपने ज़माने के उल्मा के माध्यम से ग़लत तफ़सीर को ख़ूब रिवाज दिया और नतीजा यह निकला कि आज जिहाद की ग़लत तफ़सीर को ही असल तफ़सीर समझ कर इस्लाम के सम्बन्ध में बहुत सी ग़लत-फ़हमियाँ पैदा कर दी गईं। इस ग़लतफ़हमी और इस तरह की और बहुत सी ग़लत-फ़हमियों के अज़ाला के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहिब क़ादियानी अलैहिस्सलाम को मसीह मौऊद और इमाम मह्दी बना कर भेजा। और उन्होंने ऐलान फ़रमाया

“आज से इन्सानी जिहाद जो तलवार से किया जाता था ख़ुदा के हुक्म के साथ बंद किया गया । अब इसके बाद जो व्यक्ति काफ़िर पर तलवार उठाता है और अपना नाम ग़ाज़ी रखता है वह उस रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की न-फ़रमानी करता है जिसने आज से तेराह सौ बरस पहले फ़र्मा दिया है कि मसीह मौऊद के आने पर समस्त तलवार के जिहाद ख़त्म होजाएंगे। सवाब मेरे ज़हूर के बाद तलवार का कोई जिहाद नहीं। हमारी तरफ़ से अमान और सलहकारी का सफ़ैद झंडा बुलंद किया गया है। ख़ुदा तआला की तरफ़ दाअवत करने की एक राह नहीं। अतः जिस राह पर नादान लोग आरोप कर चुके हैं, ख़ुदा तआला की हिक्मत और मस्लिहत नहीं चाहती कि उसी राह को फिर इख़तियार किया जाए। उसकी ऐसी ही उदाहरण है कि जैसे जिन निशानों की पहले तक़ज़ीब हो चुकी वह हमारे सय्यद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को नहीं दिए गए।”

(रुहानी ख़ज़ायन भाग 16 पृष्ठ 28)

واعلموا ان وقت الجهاد السيفی قد مضى ولم يبق الاجهاد القلم و الدعا و آیات عظمی

( حقیقۃ المہدی، روحانی خزائن، جلد 14، صفحہ 457)

अर्थात् जान लो कि अब तलवार के जिहाद का वक़्त नहीं है बल्कि क़लम और दुआ और बड़े बड़े निशानों के माध्यम से जिहाद करने का ज़माना है ।

यहां इख़तिसार से एक और बात का वर्णन भी बहुत ज़रूरी है। आजकल दुनिया में मानों एक फ़ैशन बन गया है कि यदि दुनिया के किसी कोने में दहश्तगर्दी का कोई वाक़िया हो जाएगी तो उसे हमारे मुल्क और दुनिया के कुछ अख़बारात और प्रकाशन के संस्थानों ने तुरंत इस्लामिक दहश्तगर्दी का नाम दे देते हैं। ऐसे अख़बारात पर हैरत होती है, यदि किसी दूसरे मज़हब के लोग इसी किस्म की कार्यवाहीयां करें तो उनकी कार्यवाहियां उनके मज़हब की तरफ़ मंसूब नहीं करते। उदाहरण के तौर पर यदि अमरीका हीरोशीमा व नागा साक़ी पर एटम-बम गिराए या अमरीका और बर्तानिया अफ़्ग़ानिस्तान और इराक़ पर बमबारी करें तो इस कार्रवाई को मसीही दहश्तगर्दी नहीं कहा जाता। यदि जनरल डायर जलियांवाला बाग़ में सैंकड़ों भारतियों को गोलीयों से कतल कर दे तो उसे भी ईसाई दहश्तगर्दी का नाम नहीं दिया जाता।

अतः इस वज़ाहत के बाद कुछ अनपढ़ मुस्लमानों की तरफ़ से अपनी नादानीया किसी के उकसाने पर क़तल-ओ-ग़ारत करना किसी भी सूरः में इस्लाम की तरफ़ मंसूब करना मुनासिब नहीं है।

जमाअत अहमदिया मुस्लिमा की तरफ़ से जिहाद के सम्बन्ध में इस वज़ाहत के साथ इन आयतें की वज़ाहत पेश की जा रही है जो कि दरख़ास्त दहिंदा ने अपनी दरख़ास्त में पेश की हैं।          

(शेष आगे)

लेखक  नाज़िर दावत इलाल्लाह मर्कज़िया, उत्तर भारत, क़ादियान

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