13 मार्च, 2021
प्रश्न – एक महिला ने इस्लाम में स्त्री और पुरुष के बीच समानता के विषय पर अपनी कुछ उलझनों का वर्णन करके, इस्लाम के विभिन्न आदेशों के बारे में हुज़ूर अनवर (जमाअत अहमदिया के वर्तमान ख़लीफ़ा) से मार्गदर्शन हेतु निवेदन किया। जिस के उत्तर में हुज़ूर अनवर ने अपने पत्र दिनांक 11 अप्रैल 2016 ईस्वी में इन मामलों के बारे में निम्नलिखित उत्तर दिया।
उत्तर – हुज़ूर ने फरमाया – आपके पत्र में वर्णित आपकी उलझनें इस्लामी शिक्षाओं तथा मानवीय फितरत (प्रकृति) को न समझने के कारण पैदा हुई हैं। इस्लाम ने यह कहीं दावा नहीं किया कि पुरुष और स्त्री हर मामले में बराबर हैं। इस्लाम धर्म तो क्या स्वयं मनुष्य की फितरत भी इस बात का इन्कार करती है कि स्त्री तथा पुरुष को हर मामले में समान ठहरा दिया जाए।
हां, इस्लाम ने यह शिक्षा अवश्य दी है कि नेकियाँ (सत्कर्म) करने के परिणाम स्वरूप जिस प्रकार अल्लाह तआला मर्दों को इनाम तथा अपनी अनुकम्पाओं का वारिस बनाता है उसी प्रकार वह स्त्रियों को भी अपने इनामों और अनुकम्पाओं का वारिस बनाता है। जैसा कि वह पवित्र क़ुरआन में फरमाता है-
فَاسۡتَجَابَ لَہُمۡ رَبُّہُمۡ اَنِّیۡ لَاۤ اُضِیۡعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنۡکُمۡ مِّنۡ ذَکَرٍ اَوۡ اُنۡثٰی ۚ بَعۡضُکُمۡ مِّنۡۢ بَعۡضٍ ۚ فَالَّذِیۡنَ ہَاجَرُوۡا وَ اُخۡرِجُوۡا مِنۡ دِیَارِہِمۡ وَ اُوۡذُوۡا فِیۡ سَبِیۡلِیۡ وَ قٰتَلُوۡا وَ قُتِلُوۡا لَاُکَفِّرَنَّ عَنۡہُمۡ سَیِّاٰتِہِمۡ وَ لَاُدۡخِلَنَّہُمۡ جَنّٰتٍ تَجۡرِیۡ مِنۡ تَحۡتِہَا الۡاَنۡہٰرُ ۚ ثَوَابًا مِّنۡ عِنۡدِ اللّٰہِ ؕ وَ اللّٰہُ عِنۡدَہٗ حُسۡنُ الثَّوَابِ (आले इमरान – 3/196)
अनुवाद – अतः उनके रब्ब ने उनकी दुआ स्वीकार कर ली (और कहा) कि मैं तुम में से किसी कर्म करने वाले का कर्म कदापि व्यर्थ नहीं करूंगा चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। तुम में से कुछ-कुछ से समानता रखते हैं। अतः वे लोग जिन्होंने हिजरत की और अपने घरों से निकाले गए और मेरे मार्ग में उनको कष्ट दिया गया, उन्होंने जंग लड़ी और मारे गए, मैं अवश्य उनसे उनके दोष दूर कर दूंगा और अवश्य उन्हें ऐसी जन्नतों में प्रविष्ट करूंगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं। यह अल्लाह की ओर से प्रतिफल के तौर पर है और अल्लाह ही के पास उत्तम प्रतिफल है।
जहां तक पुरुष तथा स्त्री की गवाही का संबंध है तो ऐसे मामले जो पुरुषों से संबंधित हैं और स्त्रियों से प्रत्यक्ष रूप से उन मामलों का संबंध नहीं उनमें अगर गवाही के लिए निर्धारित पुरुष मौजूद न हो तो एक मर्द के साथ दो स्त्रियों को इसलिए रखा गया है कि चूंकि उन मामलों का स्त्रियों से प्रत्यक्ष रूप से संबंध नहीं, अतः यदि गवाही देने वाली स्त्री अपनी गवाही भूल जाए तो दूसरी स्त्री उसे याद दिला दे। मानो इसमें भी गवाही एक औरत की ही है, केवल उस (स्त्री) के इस प्रकार के मामलों से संबंध न होने के कारण उसके भूल जाने की आशंका को दृष्टिगत रखते हुए, सावधानी के तौर पर दूसरी स्त्री उसकी सहायता के लिए और उसे वह गवाही याद कराने के लिए रख दी गई है। क़ुरआन करीम का वाक्य भी इसी भावार्थ का समर्थन कर रहा है। जैसा कि फरमाया –
یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡۤا اِذَا تَدَایَنۡتُمۡ بِدَیۡنٍ اِلٰۤی اَجَلٍ مُّسَمًّی فَاکۡتُبُوۡہُ… وَ اسۡتَشۡہِدُوۡا شَہِیۡدَیۡنِ مِنۡ رِّجَالِکُمۡ ۚ فَاِنۡ لَّمۡ یَکُوۡنَا رَجُلَیۡنِ فَرَجُلٌ وَّ امۡرَاَتٰنِ مِمَّنۡ تَرۡضَوۡنَ مِنَ الشُّہَدَآءِ اَنۡ تَضِلَّ اِحۡدٰہُمَا فَتُذَکِّرَ اِحۡدٰہُمَا الۡاُخۡرٰی۔ (सूरह अल बक़रः – 2/283)
अनुवाद – हे ईमान लाने वालो! (अर्थात् हे मुसलमानो) जब तुम एक निर्धारित समय सीमा के लिए क़र्ज़ का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो और अपने पुरुषों में से दो लोगों को (उस लेन-देन का) गवाह ठहरा लिया करो और यदि दो मर्द उपलब्ध न हों तो एक मर्द और दो स्त्रियों को (ऐसे) गवाहों में से जिन पर तुम राज़ी हो। (यह) इसलिए (है) कि उन दो स्त्रियों में से एक यदि भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे।
और जहां तक स्त्रियों से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित मामलों का संबंध है तो हदीस से सिद्ध है कि हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने केवल एक स्त्री की गवाही पर कि – उसने उस शादीशुदा जोड़े में से लड़के और लड़की दोनों को दूध पिलाया था, परस्पर अलगाव करवा दिया। जैसा कि हज़रत अक़्बा बिन हारिस रज़ि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्होंने अबू अहाब बिन उज़ैर रज़ि की लड़की से विवाह किया, उसके बाद एक स्त्री ने आकर बताया कि मैंने अक़्बा बिन हारिस को और इस लड़की को जिस से अक़्बा ने विवाह किया है, दोनों को दूध पिलाया है। अतः यह दोनों रज़ाई बहन-भाई (एक ही माँ का दूध पीने वाले) हैं, उनमें निकाह होना सही नहीं। अक़्बा ने कहा कि मुझे ज्ञात नहीं कि तुम ने मुझे दूध पिलाया है और न तुम ने इससे पहले कभी मुझे यह बात बताई। फिर अक़्बा सवारी पर बैठे और रसूलल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सेवा में उपस्थित हुए और आप से इस विषय के बारे में पूछा। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि अब जबकि यह बात कह दी गई है तो तुम किस प्रकार उसे अपने विवाह में रख सकते हो? अतः अक़्बा ने उस लड़की को छोड़ दिया और उसने दूसरे व्यक्ति से विवाह कर लिया। (सही बुख़ारी, किताबुल इल्म, बाब रिहलते फिल मसअलतिन्नाज़िलते व तालीम अहलिही)
जहां तक ‘तलाक़’ और ‘ख़ुलअ’ का संबंध है तो इसमें भी कोई अंतर नहीं बल्कि यह इस्लाम का एहसान है कि उसने पुरुष को तलाक का अधिकार देने के साथ-साथ स्त्री को ‘ख़ुलअ’ लेने का अधिकार दिया और उसमें भी पुरुष तथा स्त्री को बराबर के अधिकार दिए गए हैं। जब पुरुष तलाक़ देता है तो उसे स्त्री को हर प्रकार के आर्थिक अधिकार देने पड़ते हैं और साथ ही यह कि जो कुछ वह पत्नी को पहले आर्थिक सहायताएं दे चुका है उसमें से कुछ भी वापस नहीं ले सकता। उसी प्रकार जब स्त्री अपनी इच्छा से पति की किसी ग़लती के बगैर ख़ुलअ लेती है तो उसे भी मर्द के कुछ आर्थिक अधिकार उदाहरण स्वरूप ‘हक़ मेहर’ आदि वापस करने पड़ते हैं परंतु यदि औरत के ख़ुलअ लेने में मर्द की कोई ग़लती साबित हो तो इस अवस्था में औरतों को यह अधिक लाभ दिया गया है कि उसे ‘मेहर’ का भी हक़दार क़रार दिया जाता है, जिसका फैसला बहरहाल क़ज़ा (न्यायालय) समस्त हालात देखकर करती है।
अहले किताब (यहूदियों तथा ईसाइयों) से शादी करने, वली (अभिभावक) की आवश्यकता और पुरुष के एक से अधिक शादियां कर सकने के मामले में वास्तव में स्त्रियों की सुरक्षा, गरिमा और सम्मान को दृष्टिगत रखा गया है। स्त्री को अल्लाह तआला ने पुरुष की अपेक्षा सामान्यता नाज़ुक (कोमल) बनाया और उसकी फितरत में प्रभाव स्वीकार करने का तत्व रखा है।
अतः एक मुसलमान स्त्री को ‘अहले किताब’ पुरुष से शादी करने से रोक कर उसके धर्म की सुरक्षा की गई है। शादी के मामले में लड़की की रज़ामन्दी के साथ उसके वली (अभिभावक) की रज़ामन्दी रखकर अन्य बहुत से लाभों में से एक लाभ स्त्री को एक सहायक तथा संरक्षक उपलब्ध करना भी है कि स्त्री के ब्याहे जाने के बाद उसके ससुराल वाले इस बात से सचेत रहें कि स्त्री अकेली नहीं बल्कि उसकी ख़बर रखने वाले मौजूद हैं।
स्त्री को एक समय में एक ही शादी की अनुमति देकर इस्लाम ने उसके सतीत्व की सुरक्षा की है और मानवीय स्वाभिमान और इंसानी सम्मान के बिल्कुल अनुकूल यह आदेश दिया है।
जिस हदीस में औरतों के नर्क में अधिक होने का वर्णन है वहां लोगों ने उस हदीस का अनुवाद समझने में गलती की है। उस हदीस का यह अर्थ कदापि नहीं कि नर्क में औरतों की अधिकता होगी बल्कि हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फरमाया-
اُرِیْتُ النَّارَ فَاِذَا اَکْثَرُ أھْلِھَا النِّسَاءُ یَکْفُرْنَ
अर्थात – मुझे नर्क दिखाया गया। मैंने देखा कि उसमें ऐसी स्त्रियों की अधिकता है जो अपने पतियों के प्रति अकृतज्ञ (नाशुक्र गुज़ार) हैं। अर्थात जो स्त्रियां अपने कर्मों के कारण नर्क में मौजूद थीं उनमें से अधिकतर वे स्त्रियां थीं जो अपने पतियों कि नाशुक्रगुज़ार थीं। अतः एक तो इस हदीस का कदापि यह अर्थ नहीं कि नर्क में स्त्रियां-पुरुषों की अपेक्षा अधिक होंगी, दूसरे यहां उन स्त्रियों के नर्क में जाने का कारण भी बता दिया कि वे ऐसी स्त्रियां हैं जो बात-बात पर ख़ुदा तआला के उन एहसानों की नाशुक्री करने वाली हैं जो उनके पतियों के द्वारा अल्लाह तआला ने उन पर किए हैं। फिर उसके मुक़ाबले हदीसों में नेक और पवित्र महिलाओं के पांव के नीचे स्वर्ग होने का भी तो ऐलान किया गया है जो किसी पुरुष के बारे में वर्णन नहीं हुआ।
इसके अतिरिक्त इस्लाम ने पुरुषों तथा स्त्रियों के कुछ अधिकार और कर्तव्य उनके स्वभाव के अनुसार अलग-अलग वर्णन किए हैं। पुरुष को पाबंद किया है कि वह मेहनत मज़दूरी करे और घर की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करे और स्त्री को कहा कि वह घर और बच्चों की सुरक्षा और उनका प्रशिक्षण करे। मानो बाहर की दौड़-धूप के लिए मर्द को उसकी योग्यताओं को देखते हुए पाबन्द किया और स्त्री के स्वभाव के अनुसार और उसकी गरिमा को देखते हुए घर की ज़िम्मेदारी उसके सुपुर्द कर दी।
आंहुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का यह कथन कि स्त्री में धार्मिक तथा बौद्धिक दृष्टिकोण से एक प्रकार की कमी है। इसमें किसी संशय की गुंजाइश नहीं, क्योंकि यह भी स्त्री के स्वभाव के बिल्कुल अनुकूल कही गई बात है। धर्म की कमी तो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने स्वयं वर्णन कर दी कि उसकी उम्र के एक बड़े भाग में उस पर हर महीने कुछ ऐसे दिन आते हैं जिनमें उसे हर प्रकार की इबादत (उपासना) से छूट होती है और देखा जाए तो यह भी एक प्रकार से उस पर ख़ुदा तआला का एहसान है। जबकि बौद्धिक कमी की बात में भी औरत का अपमान नहीं किया गया बल्कि उससे अभिप्राय औरत की सादगी (भोलापन) है जिसका प्रमाण आज की दुनिया में औरत ने स्वयं उपलब्ध करा दिया है कि वह बहुत सादा है। क्योंकि पश्चिमी देशों के पुरुष ने उसे स्वतंत्रता का झांसा देकर जिस प्रकार अपने लाभ के लिए प्रयोग किया है, वह महान सत्यवादी हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के इस कथन की सच्चाई का मुंह बोलता सबूत है-
पुरुष ने अपनी हवस के लिए उसे घर की चारदीवारी से निकाल कर बाहर बाज़ार में ला खड़ा किया है और इस्लाम ने रोज़ी-रोटी की जो ज़िम्मेदारी पुरुष पर डाली थी उसमें भी पुरुष ने स्त्री की सादगी से लाभ उठाते हुए अपनी यह ज़िम्मेदारी उसे बांट कर, उसे अपने लाभार्थ प्रयोग किया है। जहां पुरुषों के समान परिश्रम करने के साथ-साथ उसका विभिन्न प्रकार के मर्दों से वास्ता पड़ता है जो कभी-कभी अपनी नज़रों की हवस पूरी करने के लिए विभिन्न बहानों से उस पर नज़र डालने का प्रयत्न करते हैं।
फिर यदि विचार किया जाए तो पश्चिमी देशों का ‘स्त्री तथा पुरुष’ की बराबरी का ऐलान करना, केवल एक खोखला दावा ही है, उन्हीं पश्चिमी देशों में कोई एक देश भी ऐसा नहीं जिसकी सत्ता चलाने वाली संसदीय प्रणाली में पुरुषों के बराबर स्त्रियां मौजूद हों। उन्हीं पश्चिमी देशों में बीसियों स्थानों पर किसी नौकरी के लिए जो पैकेज (वेतन) एक पुरुष को दिया जाता है वह सामान्यतया उसी नौकरी के लिए स्त्री को नहीं दिया जाता। और यह सारी बातें स्त्री की सादगी का मुंह बोलता सबूत हैं।
जहाँ तक पवित्र क़ुरआन द्वारा पुरुष को क़व्वाम क़रार देने की बात है तो स्वयं पवित्र क़ुरआन ने उसके कारण भी वर्णन कर दिए हैं। एक कारण यह बताया कि घरेलु व्यवस्था को चलाने के लिए एक पक्ष को दूसरे पर कुछ बड़ाई दी गई है और दूसरा कारण यह बताया कि वह अपना माल स्त्री पर ख़र्च करता है।
एक पक्ष को दूसरे पर बड़ाई देने का कारण इंसान की फितरत के बिल्कुल अनुकूल है क्योंकि यदि हम संसार की व्यवस्था पर दृष्टि डालें तो हर जगह एक पक्ष ऊपर और एक पक्ष अपेक्षाकृत नीचे होता है। यदि दुनिया में सब लोग बराबर होते या यों कहें कि अगर सब लोग बादशाह बन जाते तो संसार एक दिन भी न चल सकता। इसलिए अल्लाह तआला ने कुछ लोगों को बड़ा और कुछ को छोटा, कुछ को अमीर और कुछ को ग़रीब बनाया। हम देख सकते हैं कि हर देश में हुकूमत की व्यवस्था को चलाने के लिए एक मंत्रिमंडल होता है। अगर उस देश के सारे लोग ही मंत्रिमंडल का हिस्सा बन जाएं तो वह देश चल ही नहीं सकता। बिल्कुल उसी प्रकार अल्लाह तआला ने घरेलू व्यवस्था को चलाने के लिए पुरुष को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दिए हैं परंतु जिस प्रकार हुकूमत के एक प्रधान और देश के मंत्रिमंडल के अधिक अधिकारों के साथ-साथ अपेक्षाकृत अधिक कर्तव्य भी होते हैं, उसी प्रकार इस्लाम ने पुरुष पर स्त्री की अपेक्षा अधिक ज़िम्मेदारियां भी डाली हैं।
अतः पुरुष तथा स्त्री के अधिकारों एवं कर्तव्यों के दृष्टिकोण से इस्लामी व्यवस्था फितरत (प्रकृति) के बिल्कुल अनुकूल है और इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं।
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