नियाज़ अहमद नाइक
MAY 30, 2021
प्रिय पाठको !
हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी अलैहिस्सलाम, क़ादियान की बस्ती में पैदा हुए जो विभिन्न धर्मों का आश्रयगृह है। यह बस्ती एक सुन्दर वाटिका की भाँति है जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल खिल रहे हैं। विभिन्न प्रकार के ये फूल इस वाटिका के सुन्दर और रंगीन होने का कारण हैं।
जैसा कि एक कवि ने कहा है कि:
गुलहाय रंगारंग से ज़ीनत चमन की है,
ऐ ज़ौक़! इस चमन को है ज़ैब इख्तिलाफ से।
क़ादियान की बस्ती में अमन, शान्ति और धार्मिक सदभाव के इस वातावरण को बनाने में अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद अलैहिस्सलाम की मुख्य भूमिका रही है। अल्लाह तआला ने आपको ऐसे समय में इस्लाम धर्म के सुधार तथा नवीनीकरण के लिए भेजा जब इस्लाम विभिन्न धर्मों के आक्रमण का लक्ष्य बना हुआ था और उपमहाद्वीप हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में धार्मिक घृणा अपनी चरम सीमा पर थी। ऐसे समय में इस्लाम की शान्तिप्रिय शिक्षाओं और अपने उत्तम आदर्श के द्वारा आपने न केवल हिन्दुस्तान बल्कि पूरे विश्व में धार्मिक सद्भाव का प्रचार-प्रसार किया। और क़ादियान में आपने हिन्दू भाइयों के साथ प्रेम, हमदर्दी, उपकार और अच्छे व्यवहार का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया। आपने दूसरे धर्मों विशेषकर हिन्दु धर्म के दो बड़े अवतारों हज़रत राम चन्द्र जी महाराज और हज़रत श्री कृष्ण जी महाराज के प्रति आस्था और उनसे प्रेम को अपने अनुयायियों के ह्रदयों में बिठाया।
आप फरमाते हैं
‘‘अतः यह सिद्धांत बहुत ही सुन्दर और शान्तिपूर्ण और सुलह की नींव डालने वाला और नैतिक अवस्थाओं को सहायता देने वाला है कि हम उन समस्त नबियों (अवतारों) को सच्चा समझ लें जो दुनियाँ में आए। चाहे हिन्द में प्रकट हुए या फारस में या चीन में या किसी अन्य देश में और खुदा ने करोड़ों हृदयों में उनका सम्मान और महानता को बिठा दिया और उनके धर्म की जड़ स्थापित कर दी। और कई सदियों तक वह धर्म चला आया। यही सिद्धांत है जो क़ुरआन ने हमें सिखाया। इसी सिद्धांत के आलोक में हम हर एक धर्म के संस्थापक को, जिनकी जीवनी इस परिभाषा के अन्तर्गत आ गई हैं सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। चाहे वे हिन्दुओं के धर्म के संस्थापक हों या फारसियों के धर्म के या चीनियों के धर्म के या यहूदियों के धर्म के या ईसाइयों के धर्म के।”
(तोहफ़ा ए कैसरिया, रूहानी ख़ज़ाइन जिल्द 12, पृष्ठ-259)
धर्मों के मध्य वार्तालाप करने के लिए कक्ष बनाने का सुझाव
आपने धर्मों के मध्य सद्भाव की ऐसी नींव डाली कि विभिन्न धर्मों के अनुयायी एक ही मंच पर इकट्ठे होना आरम्भ हुए। अतः मीनारतुल मसीह जो अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के पवित्र स्थलों में से एक है, के सम्बन्ध में आप ने फ़रमाया कि-
“अंततः मैं एक आवश्यक बात की ओर अपने मित्रों को ध्यान दिलाता हूँ कि इस मीनार से हमारा यह भी उद्देश्य है कि मीनार के अन्दर या जैसा कि उपयुक्त हो एक गोल कक्ष या किसी और स्थिति का कक्ष बना दिया जाए जिसमें कम से कम सौ व्यक्ति बैठ सकें और यह कक्ष उपदेश और धार्मिक भाषणों के लिए काम आएगा।
क्योंकि हमारा इरादा है कि वर्ष में एक या दो बार क़ादियान में धार्मिक भाषणों का एक जलसा हुआ करे और इस जलसे में हर एक व्यक्ति मुसलमानों और हिन्दुओं और आर्यों और ईसाइयों और सिखों में से अपने धर्म के गुणों को व्याख्यान करेगा। परन्तु यह शर्त होगी कि दूसरे धर्म पर किसी प्रकार से आक्रमण न करे, केवल अपने धर्म और अपने धर्म के समर्थन में जो चाहे सभ्यता पूर्वक कहे।
(रूहानी ख़ज़ाईन जिल्द 16, पृष्ठ30)
आपने समान्य सहानुभूति की शिक्षा दी
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम, अल्लाह के अधिकार तथा मानवजाति के अधिकारों की ओर ध्यान दिलाने के लिए प्रकट हुए थे। आप अल्लाह की सृष्टि की सेवा और सहानुभूति के लिए धर्म एवं राष्ट्र का भेदभाव किए बिना सर्वदा प्रयासरत रहे और आजीवन इसका उपदेश देते रहे।
अतः आप फरमाते हैं-
“मैं समस्त मुसलमानों और ईसाइयों और हिन्दुओं और आर्यों पर यह बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि संसार में कोई मेरा शत्रु नहीं है। मैं मानवजाति से ऐसा प्रेम करता हूँ कि जैसे एक दयालु माँ अपने बच्चों से बल्कि उससे भी बढ़ कर। मैं केवल उन झूठी मान्यताओं का शत्रु हूँ जिनसे सच्चाई का खून होता है। इन्सान की सहानुभूति मेरा कर्तव्य है और झूठ तथा अनेकेश्वरवाद और अत्याचार और हर एक कुकर्म और अन्याय और अनैतिकता से विमुखता मेरा सिद्धान्त।” (रूहानी ख़ज़ाइन जिल्द 17, पृष्ठ 343 से 344)
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की पवित्र जीवनी के अध्ययन में दो हिन्दु मित्रों लाला मलावामल और लाला शरमपत का काफी वर्णन मिलता है जो आरम्भ से ही आपके साथी थे। उनका निःसंकोच आपके घर आना जाना था और वे आपके बहुत से चमत्कारों के गवाह भी बने। इन्हीं दो हिन्दू मित्रों के समक्ष आने वाले कुछ वृत्तांतों का यहाँ वर्णन करना अभीष्ट है। प्रिय पाठको पर स्वयं स्पष्ट हो जाएगा कि आप समाज में ग़ैर मुस्लिमों के साथ किस प्रकार मित्रता के सम्बन्ध रखते थे और उनके साथ किस प्रकार प्रेम और भाईचारे का व्यवहार करते थे।
हिन्दु मित्र लाला मलावामल के उपचार के लिए हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम का निजी प्रयास
हज़रत शैख़ याक़ूब अली इरफ़ानी र वर्णन करते हैं –
लाला मलावामल साहब, जब उनकी आयु 22 वर्ष थी, अरकुन्निसा(रेंगन का दर्द) नामक बीमारी से ग्रस्त हो गए। हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम का प्रतिदिन का कार्य था कि सुबह शाम उनका समाचार एक सेवक के द्वारा मँगवाया करते और दिन में एक बार स्वयं जाकर देखते। स्पष्ट है कि लाला मलावामल साहब एक गैर क़ौम और ग़ैर धर्म के व्यक्ति थे लेकिन चूँकि वह हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम के पास आते-जाते रहते थे और इस प्रकार एक मित्रता का सम्बन्ध था, और आपको मानवीय सहानुभूति और मित्रता का इतना ख्याल था कि उनकी बिमारी में स्वयं उनके मकान पर जाकर देखते और स्वयं उपचार भी करते थे। एक दिन लाला मलावामल साहब वर्णन करते हैं कि चार माशा सब्र उनको खाने के लिए दे दिया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि रातभर में 19 बार लाला साहब को दीर्घशंका के लिए जाना पड़ा और अंत में खून आने लग गया और कमज़ोरी बहुत हो गई। सुबह सवेरे रोज़ाना की भाँति मिर्ज़ा साहिब का सेवक हालचाल पूछने आया तो उन्होंने अपनी रात की व्यथा कही और कहा कि वह स्वयं पधारें। मिर्ज़ा साहिब तुरन्त उनके मकान पर चले गए। और लाला मलावामल की स्थिति को देख कर दुःख हुआ और फ़रमाया कुछ मात्रा अधिक ही थी परन्तु तुरन्त आपने इस्बगोल का जल निकलवाकर लाला मलावामल साहब को दिया जिससे वह जलन और खून का आना भी बन्द हो गया और उनके दर्द में भी आराम आ गया।
(सीरत हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम, द्वारा हज़रत शैख़ याक़ूब अली इरफ़ानी र पृष्ठ 170 ,171)
हिन्दु मित्र लाला मलावामल का दुआ से उपचार
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम अपने घनिष्ट मित्र का हर प्रकार से ख्याल रखते थे और उनके दुःख को अपना दुःख समझकर उसको दूर करने का हर सम्भव प्रयास करते थे और खुदा से उनके लिए दुआएँ करते और गिड़गिड़ाते थे। अतः एक बार आपकी दुआ के परिणामस्वरूप उस हिन्दु मित्र यानि लाला मलावामल एक दर्दनाक रोग से चमत्कारी तौर पर ठीक हुए। यह घटना हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम के अपने पवित्र शब्दों में कुछ इस प्रकार है
“एक बार एक आर्य मलावामल नामक दिक रोग (टीबी) से पीड़ित हो गया और निराशा का प्रभाव बढ़ता जाता था और उसने सपने में देखा कि एक विषैला साँप उसे काट गया। वह एक दिन अपने जीवन से निराश होकर मेरे पास आकर रोया। मैंने उसके लिए दुआ की तो उत्तर आया قلنا یا نار کونی برداً و سلاماً अर्थात हमने बुखार की आग को कहा कि ठण्डी हो जा और सलामती हो जा। अतः इसके पश्चात् वह एक सप्ताह में ठीक हो गया और अब तक वह जीवित उपस्थित है।” (हक़ीक़तुल वह्यी पृष्ठ 277)
हिन्दु मित्र लाला मलावामल की बारात में उपस्थिति
1884 ईस्वी में हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम का विवाह दिल्ली के प्रसिद्ध सय्यद ख्वाजा मीर दर्द के परिवार में हुआ। बारात के लिए हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने केवल अपने घनिष्ठ मित्रों को चुना। उनमें से एक हज़रत हामिद अली साहब थे, दूसरे आपके पुराने मित्र लाला मलावामल। हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम का निक़ाह अहल-ए-हदीस के प्रसिद्ध ज्ञानी और मोहम्मद हुसैन बटालवी के अध्यापक मौलवी सय्यद नज़ीर हुसैन ने पढ़ाया। हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने मौलवी साहब को उपहार में एक मुसल्ला और पाँच रूपए दिए।
اَلَیْسَ اللّٰہُ بِکَافٍ عَبْدَہٗ की अँगूठी में लाला मलावामल की भूमिका
اَلَیْسَ اللّٰہُ بِکَافٍ عَبْدَہٗ की अँगूठी का अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह इल्हाम (देववाणी) वास्तव में हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम के पिताजी की मृत्यु पर सन 1887 ईस्वी में हुआ था। यह इल्हाम हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने अपने दो हिन्दु मित्रों लाला मलावामल और लाला शरमपत को भी सुनाया और लाला मलावामल को अमृतसर भिजवा कर इस इल्हाम को नगीने पर खुदवाया। अतः लाला मलावामल इस ऐतिहासिक इल्हाम की मोहर बनवाकर लाए। और आज यह अँगूठी अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के वर्तमान इमाम और खलीफ़ा हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद साहिब अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ पहनते हैं। ख़लीफ़ा चुने जाने के बाद सबसे पहले ख़लीफ़तुल मसीह को यह अँगूठी पहनाई जाती है। और जमाअत के अधिकतर लोग اَلَیْسَ اللّٰہُ بِکَافٍ عَبْدَہٗ की अँगूठिया पहनते हैं। और यह एक अहमदी की निशानी बन गई है। आज हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की जो भी सहायता और समर्थन का अवलोकन हो रहा है वह वास्तविकता में इसी इल्हाम का व्यवहारिक चित्र है। और जब भी इस इल्हाम का वर्णन होता है तो उस हिन्दु मित्र का ख्याल भी मन में घूमने लगता है।
लाला मलावामल के लिए कुन्डी खोलना
हज़रत मिर्ज़ा बशीर अहमद साहब र.अ. ने सीरतुल महदी में एक रिवायत मौलवी अब्दुल्लाह सनौरी साहब के सन्दर्भ से लिखी है कि हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम बैतुल फ़िक्र (मस्जिद मुबारक़ के साथ वाला कक्ष जो हज़रत साहब के मकान का भाग है) में लैटे हुए थे और मैं पाँव दबा रहा था कि कक्ष की खिड़की पर लाला शरमपत या शायद लाला मलावामल ने खटखटाया। मैं उठकर खिड़की खोलने लगा परन्तु हज़रत साहब ने बड़ी शीघ्रता से उठकर और तेज़ी से जाकर मुझसे पहले ज़ंजीर खोल दी और फिर अपने स्थान पर बैठ गए और फ़रमाया आप हमारे अतिथि हैं और मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अतिथि का सम्मान करना चाहिए।(सीरत हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम जिल्द 1 पृष्ठ 160 लेखक शैख़ याक़ूब अली इरफ़ानी र)
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम का लाला शरमपत की इयादत(अर्थात बीमारी में हाल पूछने जाना)के लिए प्रतिदिन जाना और उनके उपचार के लिए एक चिकित्सक नियुक्त करना
हज़रत शैख़ याक़ूब अली इरफ़ानी र. वर्णन करते हैं कि एक लाला शरमपत राय होते थे। क़ादियान के रहने वाले थे और हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की सेवा में आपके अवतरण के दिनों से भी पहले आया करते थे। और आपके बहुत से चमत्कारों के गवाह थे। एक बार वह बीमार हुए तो इरफ़ानी साहब कहते हैं कि मैं उस समय हिजरत (प्रवास) करके क़ादियान आ चुका था। उनके पेट पर एक फोड़ा निकला था बहुत गहरा फोड़ा था और उसने भयावह रूप ले लिया था। हज़रत साहिब को इसकी खबर हुई। आप स्वयं लाला शरमपत राय के मकान पर पधारे जो बहुत संकीर्ण और अन्धकारमय छोटा सा मकान था। अधिकतर मित्र भी आपके साथ थे, इरफ़ानी साहब कहते हैं कि मैं भी साथ था। जब आपने लाला शरमपत राय को जाकर देखा तो वह बहुत घबराए हुए थे और उनको विश्वास था कि मेरी मृत्यु निकट है। बड़ी बेचैनी से बातें कर रहे थे जैसे इन्सान मृत्यु के निकट करता है। तो हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने उनको बड़ी सांत्वना दी कि घबराओ नहीं और एक चिकित्सक अब्दुल्लाह साहब हुआ करते थे फ़रमाया कि मैं उनको नियुक्त करता हूँ वह भली भाँति उपचार करेंगे। अतः दूसरे दिन हज़रत साहिब चिकित्सक को साथ ले गए और उनको विशेष तौर पर लाला शरमपत राय के उपचार के लिए नियुक्त किया। और इस उपचार का बोझ या खर्च लाला साहब पर नहीं डाला। और प्रतिदिन आप उनको देखने जाते थे और जब ज़ख्म ठीक होने लगे और उनकी वह नाज़ुक हालत अच्छी स्थिति में परिवर्तित हो गई तो फिर आपने रुक-रुक कर जाना शुरू किया। और उस समय तक यह सिलसिला जारी रहा जब तक वह बिल्कुल ठीक नहीं हो गए।
(सीरत हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम पृष्ठ 169-170 लेखक शैख़ याक़ूब अली इरफ़ानी)
लाला शरमपत के भाई की हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की दुआ से रिहाई
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की दुआओं पर इन दो हिन्दू मित्रों को पूर्ण विश्वास था और वे अधिकतर आप से अपनी आवश्यकताओं के लिए दुआ का निवेदन करते थे। अतः लाला शरमपत राय ने एक बार अपने भाई के अपराधिक मुक़द्दमे में रिहाई के लिए हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम से दुआ के लिए निवेदन की। इस घटना का विस्तृत वर्णन हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम इस प्रकार करते हैं –
“शरमपत का एक भाई बिशंबरदास नामक, एक आपराधिक मामले में संभवतः डेढ़ साल के लिए क़ैद हो गया था। तब शरमपत ने अपनी व्याकुलता की स्थिति में, मुझसे दुआ के लिए निवेदन किया। अतः जब मैंने उसके लिए दुआ की, तो उसके बाद मैंने स्वप्न में देखा कि मैं उस कार्यालय में गया हूँ जिस स्थान पर क़ैदियों के नामों के रजिस्टर थे और इन रजिस्टरों में प्रत्येक क़ैदी की क़ैद की अवधि लिखी थी। तब मैंने वह रजिस्टर खोला जिसमें बिशंबरदास के सम्बन्ध में लिखा था कि इतनी क़ैद है और मैंने अपने हाथ से उसके कारावास की आधी क़ैद काट दी। और जब उसके कारावास की अपील मुख्य अदालत में की गई तो मुझे दिखाया गया कि मुक़द्दमे का परिणाम यह होगा कि मिस्ल ज़िले में वापस आएगी और आधा कारावास बिशंबरदास का कम हो जाएगा लेकिन बरी नहीं होगा। और मैंने यह सारे हालात उसके भाई लाला शर्मापत को मुक़द्दमे का परिणाम सामने आने से पहले बता दिए थे और अंततः वही हुआ जो मैने कहा था। (हक़ीक़तुल वही रूहानी ख़ज़ाइन जिल्द 22 पृष्ठ 232)
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की अंतिम पुस्तक में हिंदू मुस्लिम एकता का प्रस्ताव:
हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम अपने जीवन की अन्तिम साँस तक हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयासरत रहे। “पैग़ाम-ए-सुलह” नामक पुस्तक आपकी अन्तिम पुस्तक है जो आपने अपनी मृत्यु से केवल दो दिन पहले लाहौर में लिखी थी। हिन्दु-मुस्लिम एकता तथा हिन्दुस्तान में धार्मिक सद्भाव के इतिहास में यह पुस्तक एक उज्जवल अध्याय है।
हिंदू भाइयों द्वारा ग्रामोफोन देखने की इच्छा व्यक्त करना:
आविष्कारों के पिता थॉमस एडिसन और अमेरिकी संचार प्रणाली के संस्थापक अलेक्जेंडर ग्राहम बेल हुज़ूर अलैहिस्सलाम के समकालीन थे। 1877 में, एडिसन ने फोनोग्राफ का आविष्कार किया, एक ध्वनि रिकॉर्डिंग उपकरण जिसे 1887 में ग्रामोफोन ट्रेडमार्क के साथ पंजीकृत किया गया था। 1880 में ग्राहम बेल की वोल्टा प्रयोगशाला में नए सुधार और परिवर्धन से इस तकनीक में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
उन दिनों हज़रत अक़दस (अ) को एक ऐसे उपकरण के आविष्कार की सूचना मिली जो मलेरकोटला (पंजाब) के नवाब हज़रत मुहम्मद अली खान साहिब रज़ि० के पास मौजूद था। हुज़ूर के कहने पर, नवाब साहब ने फोनोग्राफ लिया और क़ादियान आ गए।
जब क़ादियान के आर्य भाइयों को इस बात का पता चला तो उन्होंने आप से ग्रामोफोन देखने की इच्छा व्यक्त की। अपने पड़ोसी हिंदू भाइयों की इच्छा का सम्मान करते हुए, हुज़ूर ने एक कविता लिखी जो 20 नवंबर, 1901 ई० को इस ग्रामोफोन में रिकॉर्ड की गई और इन हिंदु भाइयों को सुनाई गई। इस कविता का पहला शेर यह था:-
आवाज़ आ रही है यह, फोनोग्राफ से,
ढूंडो खुदा को दिल से, न लाफ़-ओ-गज़ाफ़ से।।
(अर्थात- फोनोग्राफ से यह आवाज़ आ रही है कि खुदा को, अपने पैदा करने वाले को दिल से तलाश करो और उसके लिए प्रयत्न करो न यह कि व्यर्थ की और इधर-उधर की खुराफ़ात दिल में रखते हुए उसे तलाश करने की कोशिश करो, इस प्रकार खुदा नहीं मिलेगा बल्कि जब आप दिल से प्रयत्न करोगे तो अवश्य खुदा को प्राप्त कर लोगे।)
यद्यपि इस रिकॉर्डिंग को संरक्षित नहीं किया जा सका, तथापि हुज़ूर की इस कविता में वर्णित, एक गहरा हिकमत से भरा हुआ संदेश हमेशा के लिए सुरक्षित हो गया, कि दुनिया की इन उपलब्ध सुविधाओं और विलासिता में खुद को विसर्जित करके, उनके निर्माता (खुदा) से दूर न हो जाना। अपने दिल को हमेशा उसी से जोड़े रखना।
आज जब दुनिया में कोरोना की महामारी बड़ी तीव्रता से फैल रही है, हम समस्त देशवासियों को इस संदेश को सुनना चाहिए और अपने निर्माता ईश्वर के साथ एक अपने संबंध को मज़बूत बनाना चाहिए।
अल्लाह तआला हमारे इस देश को अमन और शान्ति का गहवारा बनाए और इस देश में हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने जो वैश्विक शान्ति की जोत जलाई है अल्लाह तआला इस प्रकाश से सबको प्रकाशित करे। आमीन
लेखक जामिआ अहमदिय्या क़ादियान, में प्रोफ़ेसर हैं।
0 टिप्पणियाँ