शाह हारून सैफी, सहारनपूर
इस्लाम धर्म समस्त मानवजाति के उद्धार, कल्याण ,आपसी प्यार मुहब्बत, भाईचारे और शान्ति का सन्देश देता है परन्तु इस्लाम की वास्तविक शिक्षा से अनभिज्ञ लोग अज्ञानता वश बार – बार यह प्रश्न उठाते हैं कि यदि इस्लाम एक शान्तिप्रिय धर्म है तो इस्लाम ने अपने उत्थान एवं प्रचार व प्रसार के लिए तलवार का सहारा क्यों लिया और क्यों इस्लाम ने जंगे लड़ीं? इसका उत्तर यह है कि इस्लाम ने कभी भी अपने प्रचार प्रसार के लिए किसी भी प्रकार के अत्याचार का ना तो आदेश दिया है और ना ही उसे उचित ठहराया है । जब हम इस्लामी इतिहास का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वह क्या कारण थे जिनकी वजह से इस्लाम को विवश होकर अपनी आत्म रक्षा और आत्म सम्मान के लिए ना कि अपने उत्थान एवं प्रसार के लिए तलवार का सहारा लेना पड़ा। जिन कारणों से इस्लाम ने अपनी आत्म रक्षा करने और तलवार उठाने का आदेश दिया उनका वर्णन करते हुए अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद(अ.स.) फरमाते हैं।
“हमारे नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने मक्का में और इसके पश्चात् भी काफ़िरों द्वारा कष्ट उठाया और विशेष तौर पर मक्का के तेरह वर्ष इस संकट तथा भिन्न -भिन्न प्रकार के अत्याचार सहन करने में गुज़रे कि जिसकी कल्पना से भी रोना आता है किन्तु आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने उस समय तक शत्रुओं के मुकाबले पर तलवार न उठाई और न उनके कठोर शब्दों का कठोर उत्तर दिया, जब तक कि बहुत से सहाबा रज़ि .और प्रिय मित्र बड़ी निर्दयता से वध किए गए तथा विभिन्न प्रकार से आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को भी शारीरिक कष्ट दिया गया। कई बार विष भी दिया गया तथा आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का वध करने के लिए कई प्रकार की योजनाएं भी बनाई गईं जिनमें शत्रुओं को निराशा हाथ लगी। जब ख़ुदा के प्रतिशोध का समय आया तो ऐसा हुआ कि मक्का के समस्त रईसों तथा जाति के प्रमुख लोगों ने एकमत होकर यह निर्णय किया कि इस व्यक्ति का बहरहाल वध कर देना चाहिए।उस समय ख़ुदा ने जो अपने प्रियजनों, सिद्दीक़ों (सत्यनिष्ठों ) तथा ईमानदारों का समर्थ क होता है आप को सूचना दे दी कि इस शहर में अब बुराई के अतिरिक्त कुछ नहीं और वध करने पर कटिबद्ध हैं,यहां से शीघ्र भाग जाओ। तब आप ख़ुदा के आदेश से मदीना की ओर प्रवास (हिजरत) कर गए, कि न्तु फर भी शत्रुओं ने पीछा न छोड़ा अपितु पीछा किया तथा इस्लाम को बहरहाल पैरों तले रोंदना चाहा। जब उन लोगों की धृष्टता इस सीमा तक बढ़ गई और कई निर्दोषों का वध करने के अपराध ने भी उनको दण्ड-योग्य बनाया तब उनके साथ लड़ने के लिए प्रतिरक्षा तथा स्वयं की रक्षा के तौर पर अधिकृत आज्ञा दी गई।”[1]
अतः अल्लाह तआला ने पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया:
“उन लोगो को जिनके विरुद्ध युद्ध किया जा रहा है (युद्ध करने की ) अनुमति दी जाती है क्योकि उनपर अत्याचार किया गया और निश्चित रुप से अल्लाह उनकी सहायता करने पर पूर्ण सामर्थ्य रखता है। (अर्थात ) वे लोग जिन्हे उनके घरो से अन्यायपूर्वक निकाला गया केवल इस आधार पर कि वे कहते थे कि अल्लाह हमारा रब है। और यदि अल्लाह की ओर से उनमे से कुछ को कुछ अन्यों से भिड़ा कर लोगो का बचाव ना किया जाता तो मठ और गिरजे और यहूदियों के उपासना ग्रह तथा मस्जिदें भी ध्वस्त कर दी जाती जिनमे अधिकतापूर्वक अल्लाह का नाम लिया जाता है और अल्लाह अवश्य उसकी सहायता करेगा जो उसकी सहायता करता है। निःसंदेह अल्लाह बहुत शक्तिशाली (और) पूर्ण प्रभुत्व वाला है।”[2]
उपरोक्त आयतों में निम्नलिखित बातें चिंतन करने योग्य हैं।
- मुस्लमानो को जंग करने की आज्ञा इस आधार पर दी गई क्योकि उन पर अत्याचार किया गया और बिना कारण उन्हें उनके घरो से निकाला गया। यानि प्रतिरक्षा के तौर पर अर्थात् अपनी स्वायत्तता की रक्षा के तौर पर।
- मुस्लमानो पर यह अत्याचार इसलिए किया गया क्योकि उन्होंने कहा कि अल्लाह हमारा रब है अर्थात मुसलमानों पर धर्म के आधार पर अत्याचार किया गया ना कि मुस्लमानो ने धर्म के आधार पर अत्याचार किया।
- इस्लाम के तलवार उठाने का एक कारण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना था। जैसे की फ़रमाया, यदि अल्लाह की ओर से उनमे से कुछ को कुछ अन्यों से भिड़ा कर लोगो का बचाव ना किया जाता तो मठ और गिरजे और यहूदियों के उपासना ग्रह तथा मस्जिदें भी ध्वस्त कर दी जाती जिनमे अधिकतापूर्वक अल्लाह का नाम लिया जाता है।
उपरोक्त आयत से स्पष्ट है कि अल्लाह तआला ने जंग करने का आदेश आत्मरक्षा के लिए दिया है ना कि इस्लाम धर्म के प्रचार – प्रसार के लिए और यदि पवित्र कुरआन, हदीस और इतिहास की समस्त पुस्तकों को ध्यानपूर्वक देखा जाए और जहां तक इंसान के लिए संभव है चिंतन से पढ़ा या सुना जाए तो इतनी विशाल जानकारियों के पश्चात् ठोस विश्वास के साथ ज्ञात होगा कि यह आपत्ति कि इस्लाम ने धर्म को बल प्रयोग फैलाने के लिए तलवार उठाई है नितान्त निराधार तथा लज्जाजनक आरोप है और यह उन लोगों का विचार है जिन्होंने पक्षपात एवं द्वेष भावना से अलग होकर क़ुरआन , हदीस तथा इस्लाम के विश्वसनीय इतिहासों को नहीं देखा अपितु झूठ और लांछन लगाने से पूरा-पूरा काम लिया है।
इसी प्रकार अल्लाह तआला फरमाता है कि:
“क्या तुम ऐसे लोगो से युद्ध नहीं करोगे जो अपनी क़समों को तोड़ बैठे हों और रसूल को (देश से) निकाल देने का संकल्प किए हुए हों और वही हैं जिन्होंने पहले पहल तुम पर (अत्याचार) का आरम्भ किया। क्या तुम उनसे डर जाओगे यदि तुम मोमिन हो तो अल्लाह अधिक हक़दार है कि तुम उससे डरो।”[3]
उपरोक्त आयत से भी स्पष्ट है की पहले पहल इस्लाम के दुश्मनो की ओर से इस्लाम को मिटाने के असफल प्रयास किए गए उसके बाद अपनी आत्म रक्षा और अपने अस्तित्व के लिए इस्लाम ने जंग का मार्ग अपनाया।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार हर समय इस्लाम को हानि पहुँचाने के असफल प्रयास किए जाते थे और कोई अवसर मुस्लमानो और इस्लाम को मिटाने का हाथ से ना जाने दिया जाता था उसका वर्णन करते हुए अल्लाह त आला पवित्र क़ुरआन में फरमाता है:
“कैसे (उनका वचन भरोसे योग्य )हो सकता है जब्कि परिस्तिथि ये है कि यदि वे तुम पर विजयी हो जाएं तो तुम से सम्बन्धित किसी वचन अथवा कर्तव्य की परवाह नहीं करते। (केवल) वे तुम्हे अपने मुँह की बातो से प्रसन्न कर देते हैं जबकि उनके दिल (उन बातो के) इन्कारी होते हैं और उनमे से अधिकतर दुराचारी लोग हैं।”[4]
इसी प्रकार फ़रमाया:
“किसी मोमिन के विषय में वे ना किसी प्रतिज्ञा की परवाह करते हैं और ना किसी उत्तरदायित्व की और यही लोग सीमा का उल्लंघन करने वाले हैं।”[5]
उपरोक्त आयत से स्पष्ट है कि किस प्रकार इस्लाम के शत्रु मोहम्मद(स.अ.व) और इस्लाम को ख़त्म करने के लिए हर समय तैयार रहते थे और अपने वचनों , सधियो और प्रतिज्ञाओं को भी तोड़ देते थे जो उन्होंने मुसलमानों के साथ की होती थीं।
इसके विपरीत इस्लाम ने जिस पवित्र शिक्षा का वर्णन किया है और मुसलमानों को अपनी संधियों और वचनों को पूरा करने के लिए जो आदेश दिया है वह भी आपके समक्ष प्रस्तुत है। अल्लाह तआला फरमाता है:
“और यदि वह सन्धि के लिए झुक जाएँ तो तू भी उसके लिए झुक जा और अल्लाह पर भरोसा कर। निःसंदेह वही बहुत सुनने वाला (और) स्थायी ज्ञान रखने वाला है।”[6]
इसी प्रकार वर्णन है कि:
“मुश्रिकों में से ऐसे लोगो को छोड़ कर जिनके साथ तुमने समझौता किया फिर उन्होंने तुमसे कोई प्रतिज्ञाभंग नहीं किया और तुम्हारे विरुद्ध किसी और की सहायता भी नहीं की। अतः तुम उनके साथ समझौते को तय की हुई अवधि तक पूरा करो। निःसंदेह अल्लाह मुत्तक़ियों से प्रेम करता है।”[7]
इसी प्रकार हज़रत मुहम्मद(स.अ.व) ने फ़रमाया:
“इस्लाम ने तय किया है कि जो व्यक्ति उस गैर मुस्लिम को क़त्ल करेगा जिस से संधि हो चुकी है वह स्वर्ग की खुशबु से वंचित रहेगा जबकि स्वर्ग की खुशबु चालीस वर्ष की दूरी तक पहुँचती है।”[8]
हदीस में वर्णन है कि मुहम्मद(स.अ.व) ने फ़रमाया:
“सुनो! जो किसी ऐसे गैर मुस्लिम पर अत्याचार करे जिससे संधि हो या उसके अधिकार में कमी करेगा या उसकी ताकत से अधिक दुःख देगा या उसकी कोई वस्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध लेगा तो मै क़यामत के दिन उसकी ओर से दावेदार बनूँगा।”[9]
क्या इस्लाम समस्त काफिरो को क़त्ल करने का आदेश देता है?
विस्तारपूर्वक वर्णन हो चुका है कि इस्लाम की शिक्षा समस्त मानवजाति के कल्याण उनके साथ प्रेम आपसी भाईचारे और शान्ति का आदेश देती है। इसी प्रकार मुस्लमान समस्त प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध गैर मुस्लिमों के साथ रखते थे और किसी भी स्थिति में इस्लाम ने धर्म, समुदाय या रंग व नस्ल के आधार पर भेदभाव की शिक्षा नहीं दी। इस्लाम ने केवल आत्म रक्षा के लिए मुसलमानों को जंग करने की अनुमति दी। जिससे यह प्रमाणित होता है कि यह झूठा आरोप कि इस्लाम समस्त काफिरो को क़त्ल करने का आदेश देता है यह उन लोगों का विचार है जिन्होंने पक्षपात एवं द्वेष भावना से अलग होकर क़ुरआन , हदीस तथा इस्लाम के विश्वसनीय इतिहासों को नहीं देखा अपितु झूठ और लांछन लगाने से पूरा-पूरा काम लिया है। अतः वह काफ़िर जिन्होंने मुसलमानों पर अत्याचार नहीं किए और ना ही मुसलमानों से धर्म के आधार पर शत्रुता की उनके विषय में अल्लाह त आला पवित्र क़ुरआन में फरमाता है:
“अल्लाह तुम्हे उनसे भलाई और न्यायपूर्ण व्यवहार करने से मना नहीं करता जिन्होंने तुमसे धार्मिक विषय में युद्ध नहीं किया। और ना तुम्हे निर्वासित किया। निसंदेह अल्लाह न्याय करने वालो से प्रेम करता है।”[10]
इसी प्रकार अल्लाह तआला फरमाता है:
“यदि मुशरिको में से कोई तुझसे शरण मांगे तो उसे शरण दे। यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दे। यह इस कारण है कि वे ऐसे लोग हैं जो ज्ञान नहीं रखते।”[11]
इसी प्रकार वर्णन हो चुका है कि मुस्लमान अपने गैर मुस्लिम रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार करते थे अतः वर्णन है कि:
हज़रत इब्न-ए-अब्बास(र.अ) फरमाते हैं कि सहाबा अपने ग़ैर मुस्लिम रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करना पसन्द नहीं करते थे फ़िर हज़रत मुहम्मद(स.अ.व) से इस विषय में प्रश्न किया गया तो अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी:
“उनको हिदायत देना तेरा दायित्व नहीं, परन्तु अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है और जो भी धन तुम खर्च करो तो वह तुम्हारे अपने ही हित में है जब्कि तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्ति के सिवा (कभी) खर्च नहीं करते और जो भी तुम धन में से खर्च करो वह तुम्हे भरपूर वापिस कर दिया जाएगा और तुम पर कदापि कोई भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।”[12]
अर्थात एक ओर इस्लाम के वे शत्रु हैं जो प्रत्येक क्षण इस्लाम और इस्लाम के संस्थापक को मिटाने के लिए तैयार रहते थे और अपने इस असफ़ल प्रयास में अपनी प्रतिज्ञाओं, संधियों और वचनों को भी तोड़ देते थे। दूसरी ओर इस्लाम है जो प्रत्येक स्थिति में न्याय को अपने समक्ष रखने और अपनी प्रतिज्ञाओं और संधियों को पूरा करने का आदेश देता है। इसके बावजूद कि इस्लाम और मुसलमानों पर निरन्तर आक्रमण हुए उनपर अत्याचार किया गया इस्लाम ने इन जंगो में जो आदेश दिए वर्तमान काल में सभ्य से सभ्य देश या समुदाय भी उसका उदाहरण प्रस्तुत करने में असफ़ल है और रहेगा।
उदाहरणतः
- इस्लाम ने जंग में पहल करने से रोका।[13]
- अत्याचार करने से रोका।[14]
- उस समय तक जंग की आज्ञा दी जब तक उपद्रव समाप्त ना हो जाए।[15]
- शरण में आने वाले गैर मुस्लिमों को शरण देने एवं शान्ति प्रदान करने का आदेश दिया।[16]
- यदि शत्रु स्वयं को कमज़ोर समझ कर सन्धि करने का आग्रह करें तो सन्धि करने का आदेश दिया।[17]
- किसी भी बुराई का बदला केवल इतना लेना है जितनी बुराई की गई है ।[18]
- शत्रुओ से भी न्याय करने का आदेश दिया।[19]
- शत्रुओ की स्त्रियों , बच्चों और अपंग लोगो को मारने से रोका।[20]
- शत्रुओ की फसलों और फलदार पेड़ो को काटने से मना किया।[21]
- धार्मिक स्थलों को तोड़ने या धार्मिक पेशवाओं को क़त्ल करने से मना किया।[22]
- धार्मिक भावनाओ का आदर किया और धार्मिक त्योहारों के समय जंग ना करने का आदेश दिया।[23]
- शत्रुओं की लाशो को क्षतिग्रस्त करने से मना किया।[24]
इस्लाम की इस शान्ति प्रिय और न्याय से परिपूर्ण शिक्षा की उपस्थिति में कोई बुद्धिमान व्यक्ति इस्लाम पर यह आरोप लगा सकता है की इस्लाम अन्याय या अत्याचार की शिक्षा देता है ? कदापि नहीं। यही कारण है कि जब मुस्लमानो ने ” शाम ” देश पर विजय प्राप्त की तो मुस्लमानो ने शाम के वासियों से जो कि ईसाई थे टेक्स वसूल किया थोड़े समय के बाद रोमी साम्राज्य की ओर से जंग का भय हुआ जिस पर शाम के इस्लामी राजदूत हज़रत अबू उबैदा र. अ. ने समस्त टेक्स ईसाईयों को वापिस कर दिया और कहा कि जंग के कारण जब्कि हम तुम्हारे अधिकार अदा नहीं कर सकते तो हमारे लिए उचित नहीं कि यह टेक्स अपने पास रखें। ईसाईयों ने यह देख कर मुस्लमानो को दुआ दी कि तुम रोमियों पर विजय प्राप्त करो और फिर इस देश के हाकिम बनो।[25]
वर्तमान काल और जिहाद
इस्लामी शिक्षा की रौशनी में इस बात का विस्तारपूर्वक वर्णन हो चुका है कि इस्लाम प्यार, मुहब्बत और अमन का धर्म है। और प्रेम सबके साथ और घृणा किसी से नहीं इस्लाम की शिक्षा का सार है। और जो भी जंगे लड़ी गयी वो आत्मरक्षा एवं धार्मिक स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए लड़ी गयी क्योकि उस समय इस्लाम को तलवार से ख़त्म करने का प्रयास किया गया इसलिए इस्लाम ने भी अपनी रक्षा के लिए तलवार उठाई परन्तु वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और यदि किसी व्यक्ति को उसके धर्म या जाती के आधार पर प्रताड़ित किया जाता है तो उसे न्याय दिलाने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय क़ानून मौजूद हैं जिनके द्वारा अत्याचारी के विरुद्ध क़ानूनी करवाई की जा सकती है इसलिए वर्तमान समय में इस्लाम हथियार उठाने की कदापि आज्ञा नहीं देता क्योकि इस्लाम अपने देश और उसके सविधान के विरुद्ध किसी भी प्रकार की गतिविधि को उचित नहीं ठहराता और किसी भी प्रकार की बगावत या उपद्रव को पसन्द नहीं करता। और स्वयं हज़रत मोहम्मद(स.अ.व) ने ये भविष्यवाणी की थी कि एक समय आएगा जब धार्मिक युद्धों की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। जैसा कि फ़रमाया:
“सम्भव है कि तुम में से जो जीवित रहे वह ईसा इब्न मरयम से मिले जो इमाम महदी भी होगे और हकम (फैसला करने वाले) और आदिल (न्याय करने वाले) होंगे। वह सलीब को तोड़ेगे और सूअर को क़त्ल करेंगे और जिज़्या को ख़त्म कर देंगे और जंग अपने हथियार डाल देगी। यानि धार्मिक जंगो का अंत हो जाएगा।[26]
अतः अहमदिय्या मुस्लिम जमाअत के संस्थापक हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी अ.स. ने 1889 ई में ईश्वर से सन्देश प्राप्त करके यह घोषणा की कि आप वही इमाम महदी और मसीह मौऊद हैं जिसकी भविष्यवाणी हज़रत मोहम्मद स अ व ने 1400 वर्ष पूर्व की थी। और आपने हज़रत मोहम्मद स अ व की भविष्यवाणी के अनुसार अल्लाह से सन्देश प्राप्त करके यह घोषणा फ़रमाई कि:
“अब छोड़ दो जिहाद का ऐ दोस्तों ख्याल
दीन के लिए हराम है अब जंग और क़िताल
“अब आ गया मसीह जो दीन का इमाम है
दीन की तमाम जंगो का अब इख्तताम है।”[27]
अंत में हम अल्लाह तआला से दुआ करते हैं कि अल्लाह तआला हमें सत्य एवं निष्ठा के मार्ग पर चलते हुए पक्षपात से मुक्त होकर इस्लाम की वास्तविक शिक्षा का अध्ययन करने और समझने की शक्ति प्रदान करे और समस्त धर्म और समस्त समुदाय मिलकर एक दूसरे की धार्मिक आस्थाओ का सम्मान करने और प्रेम, शान्ति और आपसी भाईचारे के मार्ग पर चलते हुए ऐसे वातावरण की स्थापना करने वाले हों जिससे हमारा देश समृद्ध एवं शक्तिशाली बने।
लेखक जामिआ अहमदिया (अहमदिया धार्मिक संस्थान) से स्नातक हैं और यु.पी. में कार्यरत हैं।
सन्दर्भ
[1] मसीह हिन्दुस्तान में पृष्ठ 10-11
[2] सूरह: अल-हज आयत 40-41
[3] सूरह: अल – तौबा आयत 13
[4] सूरह: अल – तौबा आयत 8
[5] सूरह: अल – तौबा आयत 10
[6] सूरह: अल – अनफाल आयत 62
[7] सूरह: अल-तौबा आयत 4
[8] तफ़्सीर इब्न -ए – कसीर 2/289
[9] मिश्क़ात शरीफ़ पृष्ठ 354
[10] सूरह: अल-मुम्ताहिना आयत 8
[11] सूरह: अल- तौबा आयत 6
[12] तफ़्सीर इब्न-ए -कसीर ,सुरह बकरा आयत 273
[13] सूरह: अल-बकरा : आयत 191
[14] सूरह: अल-बकरा : आयत 190
[15] सूरह: अल-बकरा : आयत 194
[16] सूरह: अल – तौबा : आयत 36
[17] सूरह: अल – अनफाल : आयत 62
[18] सूरह: अल – शूरा: आयत 41
[19] सूरह: अल – मयदा : आयत 9
[20] तारीख इब्न खुल्दून 2 / 489
[21] तारीख इब्न खुल्दून 2 / 489
[22] तारीख इब्न खुल्दून 2 / 489
[23] सूरह: अल – बकरा : आयत 192
[24] सुनन इब्न माजा किताब अल-जिहाद
[25] अबू – युसूफ किताब अल – खराज पृष्ठ 80 – 82
[26] मुसनद अहमद किताब बाक़ी मुसनद अल-मुक़स्सिरीन
[27] रूहानी खज़ाइन जिल्द 17 पृष्ठ 77,78
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