हज़रत मुहम्मद स.अ.व शांति और सुरक्षा के पैगंबर के रूप में

हज़रत मुहम्मद स.अ.व शांति और सुरक्षा के पैगंबर के रूप में

सैयद एहसान अहमद – मुरब्बी अल-फज़ल इंटरनेशनल, लंदन

JULY 08, 2021

وَمَآ اَرْسَلْنٰکَ اِلَّا رَحْمَۃً لِّلْعٰلَمِیْنَ

हमारे आक़ा व मौला, रसूलों के सरदार हज़रत अक़दस मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम को सर्वशक्तिमान खुदा ने दुनिया के लिए साक्षात दया स्वरूप बना कर भेजा था।

आप स.अ.व. की दया का दायरा केवल मानवता तक ही सीमित नहीं था, बल्कि जैसा कि अरबी शब्द ‘आलम’ से स्पष्ट है, यह दया व्यापक थी और दया के इस घेरे में सभी प्रकार के जानदार, पशु-पक्षी इत्यादि भी सम्मिलित थे।
परन्तु अफसोस कि जो नबी साक्षात दयावान बना कर भेज गया उस के पवित्र अस्तित्व के विरुद्ध बार-बार लगाए जाने वाले आरोपों में से एक आरोप यह है कि आप स.अ.व. ने (नऊज़ुबिल्लाह) दुनिया में अशांति, उपद्रव और रक्तपात मचाया तथा अपने विरोधियों पर तलवार उठाई जिस के कारण खून की नदियां बह निकलीं।


लेकिन अगर हम पवित्र कुरान, हदीसों और इतिहास का सही प्रकार से अध्ययन करें और उस धार्मिक ज्ञान से लाभ उठाएं जो इस ज़माने में हमें हज़रत मुहम्मद स.अ.व. के सच्चे ग़ुलाम हज़रत अक़दस मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम के द्वारा दिया गया है तो उससे हमें एक ऐसे नबी की तस्वीर देखने को मिलती है जो न केवल अपनों के लिए बल्कि उनके लिए भी शांति और दया का प्रतीक था जो पहले गुज़र चुके और भविष्य में आने वाले हैं। यही कारण है कि अर्श का ख़ुदा और उसके फ़रिश्ते इस पवित्र नबी पर दुरूद भेजते हैं। और क़यामत के दिन तक, मोमिनों को इस पवित्र पैगंबर पर दुरुद भेजने पर बल दिया गया है।
اللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍوَّعَلٰی اٰلِ مُحَمَّدٍکَمَا صَلَّیْتَ عَلٰی اِبْرَاھِیْمَ وَعَلٰی اٰلِ اِبْرَاھِیْمَ اِنَّکَ حَمِیْدٌ مَجِیْدٌ۔


आपके द्वारा स्थापित की गई शांति और सुरक्षा के बारे में समझने के लिए, हमें 1500 साल पहले के समय में वापस जाना होगा और अपनी आंखों से अज्ञानता के अरब युग की यात्रा करनी होगी। इसलिए जब हम अरब के अज्ञान के युग को देखते हैं, तो हमें नज़र आता है कि अरब निवासी अज्ञानता के अंधकार में फंस गए थे। स्त्री की हैसियत एक ऐसे औज़ार के समान थी जो पुरुष की इच्छाओं को पूरा करती है।
मां के पवित्र रिश्ते का ख्याल नहीं रखा जाता था। अगर घर में बेटी का जन्म होता था तो उसे جلّ وجھہ مسودًّا (अर्थात बेटी के जन्म की सूचना पाकर उसका मुंह काला पड़ जाता) के तहत परिवार के अपमान का कारण माना जाता था। मज़दूरों तथा गुलामों से उनके सामर्थ्य से बढ़ कर काम लिया जाता था और उन पर अत्याचार तथा जानवरों जैसा सलूक जाइज़ समझा जाता था, लेन-देन में अन्याय होता, व्यापार में ईमानदारी तथा विश्वास की जगह क्रूरता और स्वार्थ होता। एक कबीला छोटी-सी बात पर दूसरे से युद्ध की घोषणा कर देता था। इस प्रकार इतिहास में बुआस की लड़ाई का उल्लेख है जो चालीस वर्षों तक चली थी।


हम देखते हैं कि न तो घरेलू स्तर पर शांति थी और न ही सामाजिक स्तर पर। लोग आर्थिक रूप से, गरीबी तथा चिंता से पीड़ित थे। और सबसे बढ़कर, शिर्क (अनेकेश्वरवाद) इतना व्यापक था कि व्यक्तिगत शांति प्राप्त करना असंभव था। इन परिस्थितियों के बावजूद, जब ظَھَرَ الْفَسَادُ فِی الْبَرِّ وَ الْبَحْرِ की स्थिति पैदा हो जाती है और निराशा हर जगह व्याप्त हो जाती है तो क्या यहूदी तथा ईसाई और क्या अन्य, सभी अंधकार के जाल में फंस गए हैं, तो ऐसे समय में सर्वशक्तिमान अल्लाह अपनी विशेष दया से प्रकाश भेजता है।सर्वशक्तिमान अल्लाह ने अरब की भूमि पर एक अद्वितीय प्रकाश भेजा जो दुनिया के इतिहास में बेमिसाल है। मानो نورٌ علیٰ نورٌ की कोई प्रैक्टिकल तस्वीर सामने आई हो।

इस विषय की व्याख्या करते हुए, मसीहे मौऊद अ.स. कहते हैं:
नूर लाए आसमान से खुद भी वो इक नूर थे
क़ौम ए वेह्शी मैं अगर पैदा हुए क्या जाये आर

पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को एक ऐसे धर्म के साथ भेजा गया था जिसे अल्लाह तआला ने इस्लाम नाम दिया था। इस धर्म के नाम का अर्थ ही शांति और सुरक्षा है। इस संबंध में, यह कहना उचित है कि पैगंबर स.अ.व. के आने का एक महान उद्देश्य शांति की स्थापना करना था। शांति की यह सीमा व्यक्तिगत स्तर से लेकर घरेलू, सामाजिक, आर्थिक तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक फैली हुई है।

जीवन के सभी क्षेत्रों में शांति के प्रयास:
हज़रत मुहम्मद स.अ.व. को अल्लाह ने पवित्र कुरान में ‘उस्वा ए हसना’
(सर्वोत्तम आदर्श) के रूप में वर्णित किया है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन में सभी प्रकार की परिस्थितियाँ थीं। ये बदलती परिस्थितियाँ आपकी भिन्न-भिन्न नैतिकताओं को प्रतिबिम्बित करती रहती हैं। इस तरह, पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दुनिया को अपने उदाहरण से दिखाया कि कैसे हर स्थिति में अल्लाह की खुशी को प्राथमिकता दी जाए और वह कौन सा कार्य है जो नेक कार्य कहलाने के योग्य है।

इस विषय में हज़रत मसीह मौऊद अ.स. अपने लेख “इस्लामी सिद्धांतों का दर्शनशास्त्र” में उल्लेख करते हैं:-
“अल्लाह ने हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की जीवन को दो भागों में बांटा है-
एक भाग दुखों तथा मुसीबतों का और दूसरा भाग विजय का। यह इसलिए ताकि मुसीबतों के समय में वे शिष्टाचार प्रकट हों जो मुसीबत के समय में प्रकट होते हैं, और विजय तथा सत्ता के समय में वे शिष्टाचार प्रकट हों जो बिना शक्ति और सामर्थ्य के साबित नहीं होते हैं। तो ऐसा ही दोनों प्रकार के समयों तथा दोनों प्रकार की परिस्थितियों के सम्मुख आने से हुज़ूर स.अ.व. के दोनों प्रकार के शिष्टाचार अत्यंत विस्तार पूर्वक सिद्ध हो गए।”
(इस्लामी सिद्धांतों का दर्शनशास्त्र, रूहानी ख़ज़ाइन, जिल्द 10 पृष्ठ- 447)


पैगंबर (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) की जीवनी पर एक सरसरी नज़र डालने से पता चलता है कि आप ने अपने जीवन के दोनों समय अर्थात् मक्का में रहते हुए और मदीना में रहने के दौरान, शांति की स्थापना और संसार को इसके लिए आमंत्रित करने का प्रयास दिखाई देता है।

मक्का के जीवन में जब आप पर और आप के साथियों पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए तो आपने समाज की शांति बनाए रखना जरूरी समझा और सभी प्रकार के विद्रोह का निषेध किया।
اِنّمَا أشْکُوا بَثِّی و حُزْنِی اِلَى اللہ (कि मैं केवल अपने दुख और शोक के लिए अल्लाह को पुकारता हूं और अपने अनुयायियों का ध्यान सभी परिस्थितियों में दयालु और अति कृपालु अल्लाह की ओर आकर्षित करता हूं।)
صَبْرًا آلَ یَاسِرٍ فَاِنَّ مَوْعِدَکُمْ الْجَنَّۃُ “अर्थात- हे यासिर के परिवार, धैर्य न खोना क्योंकि अल्लाह ने तुम्हारे कष्टों के बदले में तुम्हारे लिए स्वर्ग तैयार किया है।”
एक बार का वर्णन है कि पैग़ंबर स.अ.व. काबा के पास टेक लगाए बैठे थे, हज़रत ख़बाब बिन अलअर्स कुछ अन्य साथियों के साथ आप स.अ.व. के पास आए और कहा: “अल्लाह के रसूल! मुसलमानों को क़ुरैश के हाथों कितनी मुसीबतें आ रही हैं। आप उनके लिए बद्दुआ क्यों नहीं करते? “ये शब्द सुनते ही आप स.अ.व. उठ बैठे और आप का मुख लाल हो गया और आप ने फ़रमाया :
“देखो, तुमसे पूर्व ऐसे लोग गुज़र चुके हैं, जिनका मांस लोहे के काँटों से नोच-नोच कर हड्डियां तक साफ़ कर दी गईं परन्तु वे अपने धर्म से नहीं हटे। और कुछ ऐसे भी हुए हैं जिनके सिर आरी से दो टुकड़े कर दिए गए हैं, परन्तु उनके पांव लड़खड़ाए नहीं हैं। देखो! अल्लाह इस कार्य को पूरा करेगा। एक शुतर सवार भी सना (सीरिया) से हाज़र-ए-मौत तक की यात्रा करेगा। और उसे अल्लाह के सिवा कोई भय न होगा। लेकिन तुम जल्दी करो।” (बुखारी अलामत ए नबुव्वत व बेब माँ लकनंबि व अस्हाबे मुश्रिकीन)

इसी प्रकार, यह उल्लेख भी मिलता है कि हज़रत अब्दुल रहमान बिन औफ पवित्र पैगंबर स.अ.व. के पास आए और कहा: हे अल्लाह के रसूल! जब हम मुशरिक (अनेक बुतों की उपासना करते) थे तो हम सम्मानित थे और कोई भी हमारी ओर नहीं देख सकता था लेकिन जब से हम मुसलमान हो गए हैं हम कमज़ोर और असहाय हो गए हैं और हमें काफिरों की ओर से अपमान सहना पड़ता है। तो हे अल्लाह के रसूल! हमें इन काफिरों से लड़ने की अनुमति दें। इस पर आप स.अ.व. ने फ़रमाया:
“अल्लाह ने मुझे माफ करने का आदेश दिया है। इसलिए मैं तुम्हें लड़ने की अनुमति नहीं दे सकता।”  (निसाई बहवाला तख्लीसुस्सहा जिल्द-1 पृष्ठ-152)
मक्की जीवन में शांति के उदाहरणों में से एक हब्शा (एबीसीनिया) की ओर पलायन है। जब धर्म की खातिर दुख और पीड़ा का दौ लंबा हो गया तो पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सहाबा से समाज को भ्रष्ट करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की बजाय उस देश और राष्ट्र को छोड़ने का आग्रह किया। आप स.अ.व. ने स्वयं इस संबंध में अपनी सुन्नत स्थापित की और मक्का से मदीना चले गए।
कोई कह सकता है कि अन्याय के सामने धैर्य रखना आसान है। लेकिन हमारे आक़ा स.अ.व. वही हैं जिन्हें स्वयं इन मुश्किलों से गुज़रना पड़ा। और दुश्मन केवल इस कारण थे कि वे “रब्बुनाल्लाह” का ऐलान करते थे अर्थात हमारा रब अल्लाह है, और इसी वजह से उन्हें बहुत दर्द और तकलीफ़ भोगनी पड़ी।


एक बार किसी ने पैगंबर स.अ.व. के घर में एक बहुत ही गंदी और बदबूदार वस्तु फेंक दी, जिसे आप स.अ.व. ने अपने हाथ से उठाया। इसी तरह की महान कठिनाइयों में से एक वह थी जिससे उन्हें “शअब-ए-अबी तालिब” में बनू हाशिम और बनू मुत्तलिब की घेराबंदी के दौरान सहना पड़ा था। इस दौरान सभी कबीलों ने आपका बहिष्कार किया। आप स.अ.व. कुरैश के सामाजिक जीवन से पूरी तरह से कट गए थे और आप स.अ.व. तथा आप के साथियों को खाने की समस्या भी थी। लेकिन उन्होंने साढ़े तीन साल की इस अवधि को धैर्य और सहनशीलता के साथ बिताया और किसी भी प्रकार की शरारत और उकसावे का प्रदर्शन नहीं किया बल्कि अपनी सभी आशाओं को सर्वशक्तिमान अल्लाह से जोड़ा।
फिर पैग़ंबर स.अ.व. के जीवन में वह समय आया जब अल्लाह तआला ने उन्हें शक्ति दी और सत्ता एवं हुकूमत आप के हाथों में आ गई। ऐसे अवसर पर भी आप स.अ.व. ने समाज को अशान्ति तथा असुरक्षा से यथासंभव मुक्त कराने तथा शांति एवं भाईचारे का वातावरण स्थापित करने का प्रयास किया। इसके लिए आप स.अ.व. ने मदीना पहुँचते ही यहूदी कबीलों के साथ एक समझौता किया, जिसका उद्देश्य एक दूसरे के साथ शांति बनाए रखना था।
मदनी जीवनकाल के इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जब पैगंबरस.अ.व. ने यहूदियों की भावनाओं का विशेष ध्यान रखा और उनके साथ यथासंभव नम्रता और करुणा का व्यवहार किया।

इस्लामी युद्ध शिक्षा:
यदि हम पैगंबर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं को देखते हैं और जिस शिक्षा के किसी भाग विशेष पर बढ़-चढ़ कर ऐतराज़ किया जाता है वह इस्लामी युद्ध के लिए दी गयी शिक्षा है। लेकिन अगर एक निष्पक्ष व्यक्ति इसे उसके वास्तविक स्वरूप में जांचता और परखता है, तो वह निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि यह शिक्षा वास्तव में अस्थिरता को रोकने और समाज में शांति स्थापित करने में बहुत प्रभावी है।


وَ ھُمْ بَدَءُوْکُمْ اَوَّلَ مَرَّۃٍ
अनुवाद: और ये वही हैं जिन्होंने पहले तुम पर (अत्याचार का) आरम्भ किया। (तौबा- 9/13)
इन शब्दों से साफ है कि इसकी शुरुआत काफिरों ने की थी। आप स.अ.व. ने युद्ध के संबंध में एक स्थायी निर्देश भी जारी किया कि युद्ध के दौरान कोई बूढ़ा, बच्चा या महिला नहीं मारा जाना चाहिए।
दुश्मन के अत्याचारों तथा आक्रमणों से मजबूर होकर पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अपनी रक्षा के लिए तलवार उठानी पड़ी और युद्ध की स्थिति में जहां दुनिया हर चीज़ को वैध मानती है, आप स.अ.व. ने सर्वप्रथम विश्व को युद्ध के तौर-तरीकों से परिचित कराया। इस आचार संहिता के साथ, जब आप स.अ.व. युद्ध के लिए निकलते तो आपका पूरा भरोसा अल्लाह की ज़ात पर होता था। हज़रत अनस ब्यान करते हैं कि जब पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) युद्ध के लिए बाहर गए, तो आप यह दुआ पढ़ते थे :
اللّٰھُمَّ اَنْتَ عَضُدِیْ وَ اَنْتَ نَصِیْرِیْ وَ بِکَ اُقَاتِلُ
अनुवाद: हे अल्लाह, तू ही मेरा बाज़ू है, तू ही मेरे सहायक है। और मैं तेरे भरोसे पर लड़ता हूं।


हज़रत मसीहे मौऊद अ.स. इस्लामी युद्धों के संदर्भ में फरमाते हैं :
“इस्लाम की लड़ाइयाँ इन तीन प्रकार से बाहर नहीं (1) रक्षात्मक रूप से अर्थात स्वराज्य की रक्षा करके, (2) दण्ड के तौर पर अर्थात खून के बदले खून, (3) आज़ादी की स्थापना के तौर पर अर्थात प्रतिरोध की ताकत तोड़ने के लिए जो मुसलमान होने पर क़त्ल करते थे। (मसीह हिंदुस्तान में, रूहानी ख़ज़ाइन जिल्द- 15, पृष्ठ- 12)
निस्संदेह हमारे आक़ा व मौला स.अ.व. ने हमें युद्ध के ऐसे सिद्धांत सिखाए जिनसे दुनिया अपरिचित थी, लेकिन पैग़म्बर स.अ.व. की हार्दिक इच्छा थी कि कोई युद्ध और संघर्ष न हो और शांति का माहौल बना रहे ताकि इस्लाम के प्रचार-प्रसार के सुनहरे अवसर पैदा होते रहें।


لَا تَتَمَنَّوْا لِقَاءَ العَدُوِّ وَاسْئَلُ اللّٰہَ العَافِیۃ इस कथन में इशारा यह है कि कभी भी दुश्मन के साथ मुठभेड़ की उम्मीद न करो और सर्वशक्तिमान अल्लाह से क्षमा मांगो। क्योंकि सबसे अधिक, आप इस तथ्य से अवगत थे कि इस्लाम के प्रचार-प्रसार और इसके फलने-फूलने के लिए एक शांतिपूर्ण वातावरण की आवश्यकता है, न कि युद्ध और संघर्ष की।
हज़रत मुहम्मद स.अ.व. ने हुदैबियाह के मैदान में समझोते के अवसर पर अपनी भावनाओं का एक महान बलिदान देकर शांति और सुलह को प्राथमिकता दी ताकि इस बुलंद लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। यह वह गहन ज्ञान था जिसे उस समय कुछ सहाबा भी नहीं समझ पाए थे, जिसके कारण वे अपने बलि के जानवरों को क़ुर्बान करने से रुक गए। लेकिन जैसे ही मुहम्मद अरबी स.अ.व. ने इस क्षेत्र में क़दम रखा, सहाबा भी दीवानों की तरह इस क्षेत्र में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते नज़र आए।

“हम हुए खेरे उमम् तुझ से ही ए खैर-ए-रुसुल
तेरे बढ़ने से क़दम आगे बढ़ाया हमने”


मक्का विजय:

शांति तथा प्रेम के हवाले से हमारे नबी स.अ.व. का अद्वितीय उदाहरण और आप के जीवनकाल में उसकी पराकाष्ठा मक्का विजय के अवसर पर प्रकट हुई। यह वह मुबारक समय था जब आप स.अ.व. एक ओर तो दिव्य भविष्यवाणियों के आलोक में एक महान विजेता के रूप में मक्का में प्रवेश कर रहे थे लेकिन साथ ही आप स.अ.व. ने शांति और सद्भाव का एक नया अध्याय लिखा। यह आप के जीवन का वह क्षण था जब आप अपने ऊपर हुए अत्याचारों का पूरा-पूरा बदला ले सकते थे। बदला तो आप ने लिया लेकिन एक अजीब शान के साथ। एक ओर हज़रत बिलाल रज़ि जैसे बड़े सहाबी के जज़्बात का भी ख्याल रखा तथा दूसरी ओर आप स.अ.व. ने रसूलों में सर्वश्रेष्ठ और मानवजाति में सर्वोत्तम होने का व्यावहारिक प्रमाण भी दिया। वास्तव में, मक्का की विजय ने यह साबित कर दिया कि वह अमन का शहज़ादा था जिसको अपनों और बेगानों ने स्वीकार किया। हज़रत मसीहे मौऊद अ.स. मक्का की विजय के महान चमत्कार का वर्णन करते हुए फरमाते हैं :
“हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को देखें, जब मक्का के लोगों ने आपस.अ.व. को निकाल दिया और तेरह साल तक आप को हर तरह की यातनाएं पहुंचाते रहे। आपके सहाबा (साथियों) पर घोर अत्याचार किए जिसके बारे में सोचकर भी दिल कांप उठता है। उस समय जितने धैर्य और बर्दाश्त के से आपने काम लिया वह स्पष्ट है, लेकिन जब आप ने अल्लाह तआला की आज्ञा से प्रवास (हिजरत) किया और फिर मक्का को जीतने का अवसर मिला, तो उस समय उन कठिनाइयों, मुसीबतों और अत्याचारों को याद करके जो मक्का वालों ने तेरह वर्ष तक आप स.अ.व. पर और आप की जमाअत पर जो अत्याचार किए थे, आपको अधिकार पहुंचता था कि आप रक्तपात करके मक्का वालों को नष्ट कर देते और इस रक्तपात में कोई विरोधी भी आपका विरोध नहीं कर सकता था। क्यूंकि उस अत्याचार के कारण अब वे मौत के हक़दार हो चुके थे। मगर आपस.अ.व. ने क्या किया ? आप स.अ.व. ने उन सब को क्षमा कर दिया और कहा-  لَا تَثْرِیْبَ عَلَیْکُمُ الْیَوْمَ (अर्थात- आज तुम पर कोई गिरफ्त नहीं) यह कोई छोटी बात नहीं है। मक्का में हुए अत्याचार को देखो कि शक्ति और सामर्थ्य के होते हुए किस प्रकार अपने जानी दुश्मनों को माफ कर दिया जाता है। यह है उदाहरण आपके उत्तम शिस्टाचार का जो दुनिया में अद्वितीय है।…मक्का वाले अपने कुकर्मों और अपराधिक गतिविधियों के कारण इस योग्य थे उनको कठोर दण्ड दिया जाता और उनके वजूद से उस पवित्र भूमि तथा उसके वातावरण को शुद्ध कर दिया जाता, लेकिन رَحْمَۃً لِلْعٰلَمِیْنَ (समस्त ब्राहमांड के लिए रहमत) तथा
 اِنَّکَ لَعَلیٰ خُلُقٍ عَظِیْمٍ (उच्च नैतिकता) वाला वजूद अपने कत्ल के हक़दार दुश्मनों को शक्ति और सामर्थ्य के होते हुए कहता है कि :
  لَا تَثْرِیْبَ عَلَیْکُمُ الْیَوْمَ
 (अल हकम जिल्द नंबर 6, दिनांक 10 अप्रैल 1902, पृष्ठ 4)

“लिया ज़ुल्म का अफु से इंतक़ाम
अलैक सलातु अलैक सलाम”


शांति शिक्षा:
हज़रत मुहम्मद स.अ.व. का शांति दूत होना केवल आपके जीवन की घटनाओं से ही साबित नहीं होता, बल्कि आप ने अपनी उम्मत को जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ऐसे सुनहरे सिद्धांत और ज्ञान भी सिखाए, जिन्होंने वास्तव में आपको शांति का पैगंबर (दूत) बना दिया।
समाज में अमन और सलामती को बढ़ावा देने के लिए, पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने اَفْشُوا السَّلَامَ بَیْنَکُمْ (अर्थात- आपस में एक दूसरे को सलाम करने की आदत डालो) की शिक्षा दी जो कि सब के लिए एक समान थी बिना किसी धर्म तथा क़ौम के मतभेद के। इसका पालन करते हुए स्वयं आपने एक समूह के निकट से गुज़रते हुए जिनमें यहूदी और मुशरिक भी शामिल थे, “अस्सलामु अलैकुम” कहा।
आप स.अ.व. ने आपसी प्रेम और भाईचारे को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे को उपहार देने और निमंत्रण स्वीकार करने का भी निर्देश दिया। इसलिए आप न केवल मुसलमानों के बल्कि गैर-मुसलमानों के भी निमंत्रण को स्वीकार करते और उनके द्वारा दिए गए उपहारों को भी स्वीकार करते थे।

समाज में शांति का वातावरण स्थापित करने के लिए, आप स.अ.व. जाति, धर्म और राष्ट्रीयता का मतभेद किए बिना मानवजाति की सेवा करते। एक गैर-मुस्लिम बूढ़ी औरत का बोझ उठाने की घटना पैगंबर स.अ.व. की जीवनी की प्रसिद्ध घटनाओं में से एक है।

उसी तरह, आप स.अ.व. ने आपसी प्रेम और स्नेह को बढ़ाने के लिए बीमारों के पास उनका हाल चाल पूछने के लिए जाने का आदेश दिया। आप स.अ.व. ने इसे उन पांच बुनियादी अधिकारों में भी शामिल किया जो एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर फ़र्ज़ हैं। इन सभी चीजों का एकमात्र उद्देश्य समाज और लोगों में प्रेम और स्नेह के माहौल में रहने के लिए शांति और सद्भाव का माहौल बनाना था।
पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक बर्बर समाज का सुधार किया और धीरे-धीरे उसमें रहने वाले लोगों को शांति की ओर लाए, और शिष्ट तथा अल्लाह वाले लोग बना दिया जो आकाश में सितारों की तरह चमकते हैं।

इस महान परिवर्तन का उल्लेख करते हुए, हज़रत मसीहे मौऊदअ.स.फरमाते हैं :
दुनिया में एक रसूल आया ताकि बहरों को कान मिलें और वे सुनें जो आज से नहीं बल्कि वर्षों से बेहरे हैं। कौन अंधा है और कौन बहरा? वही जिसने तौहीद को स्वीकार नहीं किया, और न ही उस रसूल को जिसने तौहीद को धरती पर फिर से स्थापित किया। वही रसूल जिसने बर्बरों को मानव बनाया और सच्ची नैतिकता उनको सिखाई और फिर नैतिक मनुष्य को अल्लाह के दिव्य रंग से रंग दिया। वही (संदेशवाहक) रसूल, हाँ, वही सत्य का सूर्य, जिसके चरणों में हज़ारों शिर्क और नास्तिकता, अनैतिकता के मुर्दे जी उठे, और व्यवहारिक तौर पर क़यामत का नमूना दिखाया।
(तब्लीग़-ए-रिसालत, खंड VI, पृष्ठ 9 , मिर्जा गुलाम अहमद अपनी तहरीरों की रू से, पृष्ठ 407)

आज, अल्लाह ताला की इच्छानुसार जमात ए अहमदिया ने सच्चाई की इस उज्ज्वल किरण और इस शांतिपूर्ण संदेश को दुनिया तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया हुआ है। और इसके सर्वोच्च लीडर सैयदना हज़रत अमीर-उल-मोमिनीन, ख़लीफ़तुल मसीह पंचम हैं। आज आपके नेतृत्व और मार्गदर्शन में यह संदेश गांव-गांव और शहर-शहर, दुनिया के सबसे सदनों और विश्व प्रसिद्ध संगठनों तक पहुंच रहा है।
इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम ख़लीफ़तुल मसीह के मार्गदर्शन में इस कारवां को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाते रहें। अल्लाह हम सबको इसकी तौफ़ीक़ दे। आमीन


اللّٰھُمَّ صَلِّ عَلٰی مُحَمَّدٍوَّعَلیٰ اٰلِ مُحَمَّدٍکَمَا صَلَّیْتَ عَلیٰ اِبْرَاھِیْمَ وَعَلیٰ اٰلِ اِبْرَاھِیْمَ اِنَّکَ حَمِیْدٌ مَجِیْدٌ

اللّٰھُمَّ بَارِکْ عَلیٰ مُحَمَّدٍوَّعَلیٰ اٰلِ مُحَمَّدٍ کَمَا بَارَکْتَ عَلیٰ اِبْرَاھِیْمَ وَ عَلیٰ اٰلِ اِبْرَاھِیْمَ اِنَّکَ حَمِیْدٌ مَجِیْدٌ


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