इस्लामी पर्दे से अभिप्राय कैद नहीं

इस्लामी शिक्षा ऐसी पवित्र शिक्षा है जिसने मर्द और औरत को अलग अलग रखकर ठोकर से बचाया है और मानव का जीवन हराम और कड़वा नहीं किया जिससे यूरोप ने आए दिन के गृहयुद्ध और आत्महत्याएं देखीं।

इस्लामी पर्दे से अभिप्राय कैद नहीं


इस्लामी शिक्षा ऐसी पवित्र शिक्षा है जिसने मर्द और औरत को अलग अलग रखकर ठोकर से बचाया है और मानव का जीवन हराम और कड़वा नहीं किया जिससे यूरोप ने आए दिन के गृहयुद्ध और आत्महत्याएं देखीं।


नोट: इस निबंध की रचना में हज़रत मसीह मौऊद (अलैहिस्सलाम) व खुलफ़ा किराम व जमाअत अहमदिय्या की पुस्तकों से सहायता ली गई है।

फज़ल नासिर, क़ादियान

20 अप्रैल 2022

पर्दे का उद्देश्य

पर्दे से प्रायोजन कैद करना नहीं है और न ही इसके द्वारा महिलाओं के अधिकारों का हनन करके उनको उन्नति से वंचित करना है बल्कि इस्लाम धर्म का उद्देश्य इस माध्यम से महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना और एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो पवित्रता और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ-साथ महिलाओं में प्राकृतिक रूप से विद्यमान लज्जा के महत्व को समझने वाला हो। पवित्र क़ुरान में जहां महिलाओं को परदे का हुक्म है उससे ठीक पहली आयत में पहले मर्दो को हुक्म दिया गया है कि वह अपनी नज़रें नीची रखा करें और औरतों को पटर पटर देखते न रहा करें लेकिन अधिकतर पुरुष क्योंकि इस हुक्म पर अमल नहीं करते इसलिए औरतों को हुक्म है कि वह अपनी सुरक्षा के लिए पर्दा करें और क़ुरान से यह भी साबित है कि महिलाओं को बोलचाल में भी अपना रौब रखना चाहिए और लजाकर बात नहीं करनी चाहिए ताकि उनकी नरम बात से कोई गलत मतलब न निकाले अतः पर्दा एक प्रकार की रोक है ताकि गैर मर्द या औरत पश्चिमी संस्कृति की भांति आज़ादाना तौर पर एक-दूसरे से मेल मिलाप न रखें जिससे आगे चलकर अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती है।

पवित्र क़ुरान में अल्लाह तआला फ़रमाता है :

قُلۡ لِّلۡمُؤۡمِنِیۡنَ یَغُضُّوۡا مِنۡ اَبۡصَارِہِمۡ وَیَحۡفَظُوۡا فُرُوۡجَہُمۡ ؕ ذٰلِکَ اَزۡکٰی لَہُمۡ ؕ اِنَّ اللّٰہَ خَبِیۡرٌۢ بِمَا یَصۡنَعُوۡنَ ۔ وَقُلۡ لِّلۡمُؤۡمِنٰتِ یَغۡضُضۡنَ مِنۡ اَبۡصَارِہِنَّ وَیَحۡفَظۡنَ فُرُوۡجَہُنَّ وَلَا یُبۡدِیۡنَ زِیۡنَتَہُنَّ اِلَّا مَا ظَہَرَ مِنۡہَا وَلۡیَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِہِنَّ عَلٰی جُیُوۡبِہِنَّ ۪۔۔۔ وَلَا یَضۡرِبۡنَ بِاَرۡجُلِہِنَّ لِیُعۡلَمَ مَا یُخۡفِیۡنَ مِنۡ زِیۡنَتِہِنَّ ؕ وَتُوۡبُوۡۤا اِلَی اللّٰہِ جَمِیۡعًا اَیُّہَ الۡمُؤۡمِنُوۡنَ لَعَلَّکُمۡ تُفۡلِحُوۡنَ

अनुवाद – मोमिन पुरुषों को यह कह दे कि अपनी आंखें नीची रखा करें और अपने गुप्तांगों की सुरक्षा किया करें यह बात उनके लिए अधिक पवित्रता का कारण है निस्संदेह अल्लाह जो वे करते हैं उससे सदा अवगत रहता है और मोमिन स्त्रियों से कह दे कि वे अपनी आंखें नीची रखा करें और अपने गुप्तांगों की सुरक्षा करें तथा अपनी सुंदरता प्रकट न करें सिवाए उसके कि जो उसमें से स्वयं प्रकट हो जाए और अपने वक्षस्थलों (सीनों) पर अपनी ओढ़निया डाल लिया करें….और वे अपने पांव जमीन पर इस प्रकार न पटकें कि लोगों पर वो ज़ाहिर कर दिया जाये जो (औरतें सामान्यतया) अपने सौन्दर्य में से छुपाती हैं। और हे मोमिनो ! तुम सब के सब अल्लाह की ओर प्रायश्चित करते हुए झुको ताकि तुम सफल हो जाओ।[1]

 یٰۤاَیُّہَا النَّبِیُّ قُلۡ لِّاَزۡوَاجِکَ وَبَنٰتِکَ وَنِسَآءِ الۡمُؤۡمِنِیۡنَ یُدۡنِیۡنَ عَلَیۡہِنَّ مِنۡ جَلَابِیۡبِہِنَّ ؕ ذٰلِکَ اَدۡنٰۤی اَنۡ یُّعۡرَفۡنَ فَلَا یُؤۡذَیۡنَ ؕ وَکَانَ اللّٰہُ غَفُوۡرًا رَّحِیۡمًا

अनुवाद – हे नबी तू अपनी पत्नियों और अपनी बेटियों और मोमिनों की स्त्रियों से कह दे कि वे अपनी चादरों को अपने ऊपर झुका दिया करें यह इस बात के अधिक निकट है कि वे पहचानी जाएं और उन्हें कष्ट न दिया जाए और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला और बार-बार दया करने वाला है।[2]

हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद साहिब मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम (1835-1908 ई) फरमाते हैं :

आजकल पर्दे पर हमले किए जाते हैं परंतु ये लोग नहीं जानते कि इस्लामी पर्दे से अभिप्राय कैद नहीं बल्कि एक प्रकार की रोक है ताकि ग़ैर पुरुष व महिला एक दूसरे को देख न सकें। जब पर्दा होगा ठोकर से बचेंगे। एक न्याय-संगत कह सकता है ऐसे लोगों में जहां गैर मर्द और औरत बिना रोक-टोक और भयहीन होकर मिल सकें,  सैरें करें किस प्रकार कामिच्छाओं से प्रेरित होकर ठोकर न खाएंगे। कभी सुनने और देखने में आया है कि ऐसा समाज ग़ैर मर्द और औरत के एक मकान में अकेले रहने को जबकि दरवाजा भी बंद हो कोई दोष नहीं समझता, यह मानव संस्कृति है। इन्हीं दोषों को रोकने के लिए इस्लाम के संस्थापक ने वह बातें करने की आज्ञा ही नहीं दी जो किसी की ठोकर का कारण हो ऐसे अवसरों पर यह कह दिया कि जहां इस प्रकार दो पराए मर्द औरत जमा हों तीसरा उनमें शैतान होता है। उन बुरे परिणामों पर ग़ौर करो जो यूरोप इस बुरी शिक्षा से भुगत रहा है। कुछ स्थानों पर बिल्कुल शर्मनाक वैश्याओं का सा जीवन व्यतीत किया जा रहा है। यह ऐसी ही शिक्षाओं का परिणाम है यदि किसी चीज़ को भ्रष्टाचार से बचाना चाहते हो तो उसकी सुरक्षा करो लेकिन यदि सुरक्षा न करो और यह समझ रखो कि भले मानस लोग हैं तो याद रखो कि अवश्य वह चीज़ नष्ट होगी। इस्लामी शिक्षा कैसी पवित्र शिक्षा है कि जिसने मर्द और औरत को अलग अलग रखकर ठोकर से बचाया है और मानव का जीवन हराम और कड़वा नहीं किया जिससे यूरोप ने आए दिन के गृहयुद्ध और आत्महत्याएं देखीं। कुछ शरीफ औरतों का वैश्याओं का सा जीवन व्यतीत करना एक व्यावहारिक परिणाम उस आज्ञा का है जो पराई औरत को देखने के लिए दी गई।[3]

पर्दा अज्ञानता और प्रतिगामी सोच का प्रतीक नहीं है और न ही यह महिलाओं के विकास और उन्नति की राह में बाधा उत्पन्न करने वाली कोई चीज़ है। वास्तव में इस्लाम प्रकृति का धर्म है और जिस ख़ुदा ने मानवजाति को पैदा किया वह उसके स्वभाव से भी अच्छी तरह परिचित है जैसा कि फ़रमाया-

فَأَقِمْ وَجْهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفًا فِطْرَةَ اللَّهِ الَّتِي فَطَرَ النَّاسَ عَلَيْهَا لَا تَبْدِيلَ لِخَلْقِ اللَّهِ ذَلِكَ الدِّينُ الْقَيِّمُ وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ[4]

अतः मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल ही इस्लाम धर्म की समस्त शिक्षाएं है इस परिपेक्ष में जब हम महिलाओं के स्वभाव को देखें तो मालूम होगा कि स्वाभाविक रूप से उनके अंदर पुरुषों की तुलना में लज्जा अधिक होती है जब कभी ऐसा संयोग हो कि कोई व्यक्ति किसी महिला को ग़लत नज़र से देखता है तो वह तुरंत अपनी ओढ़नी को इस प्रकार डाल लेती है कि उसे उस व्यक्ति के समक्ष लज्जित न होना पड़े अब आज़ादी के नाम पर महिलाओं की ओढ़नियों पर आरोप लगाना या फिर महिलाओं को अपनी सुविधानुसार ओढ़नियां ओढ़ने का अधिकार उनसे छीनना तर्कहीन और अन्यायपूर्ण है बल्कि counter-productive भी। ऐसे वातावरण की कल्पना कीजिए जहां पुरुष व महिलाएं दोनों इकट्ठे काम कर रहे हों और किसी महिला को ऐसा संयोग हो जैसा की अभी बयान हुआ है तो ऐसी अवस्था में न तो उस महिला का और ना ही उस व्यक्ति का ध्यान काम पर लग सकता है और दूसरे लोग भी इससे disturb होंगे इसके अतिरिक्त जैसा कि हज़रत मसीह मौऊद (अलैहिस्सलाम) के उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि ऐसा समाज जहां मर्द औरत का मेल मिलाप आम बात हो उसके दीर्घकालीन दुष्प्रभाव भी बहुत हैं ऐसे समाज में गृह युद्ध और आत्महत्याएं भी बहुत बढ़ जाती हैं। इस संबंध में हज़रत ख़लीफ़तुल मसीह पंचम फरमाते हैं :

तो आज भी देखलें कि जिस बात से हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम अवगत करा रहे हैं जैसा कि मैं पहले भी कह आया हूं इसी कारण से संदेह पैदा हुआ और इस संदेह के कारण घर उजड़ते हैं और तलाकें होती हैं। यहां जो इन पश्चिमी देशों में 70, 80 प्रतिशत तलाकों का अनुपात है यह आजाद समाज के कारण ही है यह चीज़ें बुराइयों की ओर ले जाती हैं और फिर घर उजड़ने शुरू हो जाते हैं।[5]

आजकल के समाज में पर्दे की आवश्यकता

हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम फरमाते हैं :

यह ज़माना एक ऐसा ज़माना है यदि किसी ज़माने में पर्दे की रसम न होती तो इस ज़माने में अवश्य होनी चाहिए क्योंकि यह कलयुग है और धरती पर पाप और मदिरा का ज़ोर है और दिलों में नास्तिकता और अधर्म के विचार फैल रहे हैं और ख़ुदा तआला के आदेशों की महानता दिलों से उठ गई है ज़ुबानों पर सब कुछ है और भाषण तर्क और फ़लसफ़ा से भरे हुए हैं लेकिन दिल अध्यात्म से खाली हैं ऐसे समय में कब उचित है कि अपनी ग़रीब बकरियों को भेड़ियों के वनों में छोड़ दिया जाए।[6]

फिर फ़रमाते हैं :

मर्दों की हालत का अंदाज़ा करो कि वे कैसे बेलगाम घोड़े की भांति हो गए हैं न ख़ुदा का डर है न परलोक का विश्वास है संसार के सुखों को अपना पूज्य बना रखा है। अतः सबसे पहले ज़रूरी है कि इस आज़ादी और बेपर्दगी से पहले मर्दों के आचरण को ठीक करो यदि यह ठीक हो जाएं और मर्दों में कम से कम इतनी ताकत हो कि वे अपनी काम इच्छाओं से पराजित न हो सकें तो उस समय इस बहस को छेड़ो कि क्या पर्दा ज़रूरी है या नहीं अन्यथा मौजूदा हालात में इस बात पर बल देना कि आज़ादी और बेपर्दगी होनी चाहिए मानो बकरियों को शेरों के आगे रख देना है………. कम से कम अपने conscience से ही काम लें कि क्या मर्दों की हालत ऐसी सुधर गई है कि औरतों को बेपर्दा उनके सामने रखा जाए।[7]

पर्दे का स्तर और कट्टरता की उपेक्षा

क़ुरान शरीफ़ और आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत से साबित है कि चेहरा भी पर्दे में शामिल है इसी तरह बाल भी नज़र नहीं आने चाहियें। इस संबंध में हुज़ूर अनवर फ़रमाते हैं :

…..तो इस व्याख्या से पर्दे की सीमा भी काफ़ी हद तक स्पष्ट हो गई कि क्या सीमा है चेहरा छुपाने का बहरहाल हुक्म है। इस हद तक चेहरा छुपाया जाए कि बेशक नाक नंगा हो और आंखें नंगी हों ताकि देख भी सके और सांस भी ले सके।[8]

हज़रत मुस्लेह मौऊद रज़िअल्लाहु तआला अन्हु   إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا      अर्थात सिवाय उसके जो आप ही ज़ाहिर हो (शरीर का वह भाग जो स्वयं ही जाहिर हो उसका पर्दा करने की आवश्यकता नहीं है) की व्याख्या करते हुए फ़रमाते हैं :

मेरे निकट स्वयं ही ज़ाहिर होने वाली मोटी चीज़ें दो हैं अर्थात कद और शरीर की हरकत और चाल लेकिन बौद्धिक रूप से स्पष्ट है कि महिला के काम के लिहाज़ से या मजबूरी के लिहाज़ से जो चीज़ स्वयं ही ज़ाहिर हो वह पर्दे में दाख़िल नहीं। अतः इसी आज्ञा के अधीन डॉक्टर औरतों की नब्ज देखता है क्योंकि बीमारी मजबूर करती है कि उस चीज़ को ज़ाहिर कर दिया जाए। यदि किसी घराने के काम ऐसे हों जहां महिलाओं को बाहर खेतों में या मैदानों में काम करना पड़े तो उनके लिए आंखों से लेकर नाक तक का भाग खुला रखना जायज़ होगा और पर्दा टूटा हुआ नहीं समझा जाएगा क्योंकि उसे खोले बिना वे काम नहीं कर सकतीं और जो भाग जीवन यापन और रोज़गार की आवश्यकताओं के लिए खोलना पड़ता है उसका खोलना पर्दे के हुक्म में ही शामिल है लेकिन जिस महिला के काम उसे मजबूर नहीं करते कि वह खुले मैदानों में निकल कर काम करे उसे यह छूट नहीं होगी अतः  إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا     के अधीन किसी मजबूरी के कारण जितना भाग नंगा करना पड़े किया जा सकता है।[9]

हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं :

प्रत्येक अच्छी हैसियत वाले व्यक्ति से ईर्ष्या रखने वाले लोग अवश्य होते हैं यही हाल धार्मिक बातों का है शैतान भी सुधार का शत्रु है अतः मनुष्य को चाहिए कि अपना हिसाब साफ रखे और ख़ुदा से मामला ठीक रखे ख़ुदा को राजी करे फिर किसी से न डरे और न किसी की परवाह करे ऐसी बातों से बचे जिनसे स्वयं ही दंडित होता हो मगर यह सब कुछ भी ग़ैबी मदद और ख़ुदा की ओर से प्रदान सामर्थ्य के बिना नहीं हो सकता केवल मनुष्य के प्रयास कुछ बना नहीं सकते जब तक ख़ुदा की कृपा भी साथ न हो मनुष्य कमज़ोर है गलतियों से भरा पड़ा है मुश्किलें चारों ओर से घेरे हुए हैं अतः प्रार्थना करनी चाहिए कि अल्लाह तआला नेकी करने का सामर्थ्य प्रदान करे और ग़ैबी मदद और कृपा का वारिस बना दे।[10]


लेखक जामिआ अहमदिया – अहमदिया धार्मिक संस्थान – से स्नातक हैं और क़ादियान में कार्यरत हैं।


सन्दर्भ

[1] पवित्र क़ुरआन सूरह नूर, आयत 31-32

[2] पवित्र क़ुरआन सूरह अल-अहज़ाब, आयत 60

[3] मल्फ़ूज़ात जिल्द 1, नवीन एडिशन, पृष्ठ 29-30

[4] पवित्र क़ुरआन सूरह रूम, आयत 31

[5] महिलाओं को सम्बोधन जलसा सालाना, यू के, 31 जुलाई, 2004

[6] मलफ़ूज़ात जिल्द 1, पृष्ठ, 297-298

[7] मलफ़ूज़ात जिल्द 4, पृष्ठ, 104-106

[8] ख़ुत्बा जुमा, 30 जनवरी 2004

[9] तफ़्सीर कबीर, जिल्द 6, पृष्ठ 298 -299

[10] मलफ़ूज़ात जिल्द 10, पृष्ठ, 252

2 टिप्पणियाँ

Farhat Ahmad · अप्रैल 20, 2022 पर 4:49 पूर्वाह्न

Bahut hi acha lekh hai, appreciate

इस्लामी शिक्षाओं का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। धन्यवाद

Sk Cheeta Rajosi ajmer · अप्रैल 20, 2022 पर 10:31 पूर्वाह्न

आप ने से ही लिखा है बहुत खूब

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