क्या यह सच है कि मुसलमानों को शत्रुओं की स्त्रियों के साथ शारीरिक संबंध बनाने अनुमति है? विश्वव्यापी अहमदिया मुस्लिम जमाअत के पांचवें खलीफा और इमाम हज़रत मिर्ज़ा मसरूर अहमद ने इस प्रश्न का बहुत ही सुंदर उत्तर दिया है।
17 जनवरी, 2021
एक मित्र ने हुज़ूर अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ की सेवा में लिखा कि मुझे यह जान कर अत्यंत कष्ट हुआ कि इस्लाम उन शत्रुओं की स्त्रियों के साथ जिनसे जंग चल रही हो, शारीरिक संबंध बनाने और उनको बेचने की आज्ञा देता है। यह बात मेरे लिए अत्यंत हतोत्साहित करने वाली थी। फिर हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम की बैअत (निष्ठा की प्रतिज्ञा) के बाद मुझे आशा थी कि आप इस बात को निषिद्ध ठहराएंगे परन्तु मैंने ऐसा नहीं पाया।
हुज़ूर अय्यदहुल्लाहु तआला बिनस्रिहिल अज़ीज़ ने अपने पत्र दिनांक 3 मार्च 2018 ई० में इस प्रश्न का अत्यंत ज्ञान वर्धक उत्तर दिया। हुज़ूर ने फ़रमाया:
उत्तर
वास्तविकता यह है कि इस मामले की ठीक प्रकार से व्याख्या न होने के कारण कई ग़लतफ़हमियां उत्पन्न हो जाती हैं और हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने अपनी पुस्तकों में इन ग़लतफ़हमियों का रद्द किया है और आप के खुलफ़ा भी अवसरानुसार समय-समय पर इस का रद्द करते रहे हैं और इस बारे में वास्तविक शिक्षा का वर्णन करते रहे हैं।
पहली बात यह है कि इस्लाम युद्धरत शत्रुओं की स्त्रियों के साथ केवल इस कारण से कि उनसे युद्ध चल रहा है कदापि आज्ञा नहीं देता कि जो भी शत्रु है उनकी स्त्रियों को पकड़ लाओ और अपनी लौंडियाँ बना लो। इस्लाम की शिक्षा यह है कि जब तक रक्तपात-पूर्ण युद्ध न हो तब तक किसी को क़ैदी नहीं बनाया जा सकता। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता है:
किसी नबी के लिए यह उचित नहीं कि धरती में रक्तपात-पूर्ण युद्ध किए बिना (किसी को) क़ैदी बनाए। तुम सांसारिक धन सम्पत्ति चाहते हो जबकि अल्लाह परलोक को पसंद करता है। और अल्लाह पूर्ण प्रभुत्व वाला (और) परम विवेकशील है।
अतः जब रक्तपात-पूर्ण युद्ध की शर्त लगा दी तो फिर युद्ध के मैदान में केवल वही स्त्रियाँ क़ैदी बनाई जाती थीं जो लड़ाई के लिए वहां उपस्थित होती थीं। इसलिए वे केवल स्त्रियाँ नहीं होती थीं अपितु जंगी दुश्मन के रूप में वहां आई होती थीं।
इसके अतिरिक्त जब उस समय के जंगी क़ानूनों और उस ज़माने के रिवाज को देखा जाए तो पता चलता है कि उस ज़माने में जब जंग होती थी तो दोनों पक्ष एक-दूसरे के लोगों को चाहे वे पुरुष हों या बच्चे या स्त्रियाँ, क़ैदी के रूप में ग़ुलाम और लौंडी बना लेते थे। इसलिए,
के अनुसार उनके अपने ही क़ानूनों के अंतर्गत जो कि दोनों पक्षों को स्वीकार होते थे,
मुसलमानों का ऐसा करना कोई आपत्ति योग्य बात नहीं ठहरती। विशेष रूप से जब इसे उस देश, काल और परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। उस युग में युद्ध में लड़ने वाले प्रतिद्वंदी उस समय के प्रचलित क़ानून और दस्तूर के अनुसार ही जंग कर रहे होते थे। और जंग के समस्त क़ानून दोनों पक्षों पर पूर्ण रूप से चरितार्थ होते थे, जिस पर दूसरे पक्ष को कोई आपत्ति नहीं होती थी। यह बातें आपत्तिजनक तब होतीं जब मुसलमान उन सर्वसम्मत नियमों से विमुख हो कर ऐसा करते।
इसके बावजूद पवित्र क़ुरआन ने एक सैद्वान्तिक शिक्षा के साथ उन समस्त जंगी क़ानूनों को भी बांध दिया। फ़रमाया:
अर्थात जो तुम पर ज़्यादती करे तो तुम भी उस पर वैसी ही ज़्यादती करो जैसी उसने तुम पर की हो।
फिर फ़रमाया:
अर्थात जो इसके बाद सीमा से बढ़ेगा उसके लिए दर्दनाक अज़ाब होगा।(अल-माइदा 95)
यह वह सैद्वान्तिक शिक्षा है जो समस्त पूर्व धर्मों की शिक्षाओं से बेहतर है। यदि बाइबल और विभिन्न धर्मों की पवित्र पुस्तकों में मौजूद युद्ध संबंधी शिक्षाओं का अध्ययन किया जाए तो उन में शत्रु को नष्ट कर के रख देने की शिक्षा मिलती है। पुरुष और स्त्रियाँ तो एक ओर रहे उनके बच्चों, जानवरों और घरों तक को लूट लेने, जला देने और नष्ट कर देने के आदेश उनमें मिलते हैं। लेकिन पवित्र क़ुरआन ने इन परिस्थितियों में भी जबकि दोनों पक्षों को अपनी भावनाओं पर कोई नियंत्रण नहीं रहता और दोनों एक-दूसरे को मारने के इच्छुक होते हैं और भावनाएं इतनी तीव्र होती हैं कि मारने के बाद भी जोश ठंडा नहीं होता और शत्रु की लाशों को नष्ट कर के क्रोध को ठंडा किया जाता है, पवित्र कुरान ने ऐसी शिक्षा दी कि मानो बेलगाम घोड़ों को लगाम डाली हो और हज़रत मुहम्मद स.अ.व. के सहाबा ने इस का ऐसा सुन्दर पालन कर के दिखाया कि इतिहास ऐसी सैंकड़ों मनमोहक घटनाओं से भरा पड़ा है।
उस युग में कुफ्फ़ार मुसलमान स्त्रियों को क़ैदी बना लेते और उनके साथ बहुत ही अनुचित व्यवहार करते। क़ैदी तो अलग रहे वे तो मुसलमानों की लाशों का अपमान करते हुए उनके नाक, कान काट देते थे। हिंदा द्वारा हज़रत हम्ज़ा रज़ि. का कलेजा चबाना कौन भूल सकता है? लेकिन ऐसे अवसरों पर भी मुसलमानों को यह शिक्षा दी गई कि चाहे वे युद्ध के मैदान में हैं लेकिन फिर भी किसी स्त्री और बच्चे पर तलवार नहीं उठानी और शत्रु की लाशों को अपमानित करने से रोक कर, शत्रु की लाशों का सम्मान भी स्थापित किया।
जहां तक लौंडियों का मामला है तो इस बारे में इस बात को सदैव दृष्टिगत रखना चाहिए कि इस्लाम के आरंभिक युग में जबकि इस्लाम के शत्रु मुसलमानों को नाना प्रकार के अत्याचारों का निशाना बनाते थे और यदि किसी ग़रीब पीड़ित मुसलमान की स्त्री उनके हाथ आ जाती तो वे उसे लौंडी के तौर पर अपनी स्त्रियों में सम्मिलित कर लेते थे। अतः “جَزٰٓؤُا سَیِّئَۃٍ سَیِّئَۃٌ مِّثۡلُہَا”, की क़ुरआनी शिक्षा के अनुसार ऐसी स्त्रियां जो इस्लाम पर आक्रमण करने वाले लश्कर के साथ उनकी सहायता के लिए आती थीं और उस ज़माने के रिवाज के अनुसार युद्ध में लौंडी के रूप में क़ैद कर ली जाती थीं और फिर शत्रु की यह स्त्रियां जब तावान (बदले) की अदायगी या मुकातबत (समझौता) के तरीके को अपनाकर आज़ाद नहीं होती थीं तो ऐसी स्त्रियों से निकाह के बाद ही शारीरिक संबंध स्थापित हो सकते थे। परंतु इस निकाह के लिए उस लौंडी की रज़ामंदी अनिवार्य नहीं होती थी। इसी प्रकार ऐसी लौंडी से निकाह के परिणाम स्वरूप पुरुष के लिए चार शादियों तक की अनुमति पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता था अर्थात एक पुरुष चार विवाह के पश्चात भी उपरोक्त लौंडियों से निकाह कर सकता था लेकिन यदि उस लौंडी से बच्चा पैदा हो जाता था तो वह उम्मुल वल्द (मालिक द्वारा उत्पन्न सन्तान की मां) होने के कारण आज़ाद हो जाती थी।
इसके अतिरिक्त इस्लाम ने लौंडियों से सदव्यवहार करने, उनकी शिक्षा और तरबियत का प्रबंध करने और उन्हें आज़ाद कर देने को पुण्य का कारण ठहराया है। अतः हज़रत अबू मूसा अशअरी रज़ि. से रिवायत है:
अर्थात नबी करीम सल्लल्लाहो अलेहि वसल्लम ने फ़रमाया: “जिस व्यक्ति के पास लौंडी हो और वह उसे बहुत अच्छे सभ्याचार सिखाए और फिर उसे आज़ाद करके उस से विवाह कर ले तो उसको दोहरा पुण्य मिलेगा।
रुएफ़ा बिन साबित अंसारी रज़ि. रिवायत करते हैं:
मैंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम को हुनैन के दिन यह फ़रमाते हुए सुना कि जो व्यक्ति अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है उसके लिए वैध नहीं कि वह अपना पानी किसी और की खेती में लगाए अर्थात गर्भवती महिलाओं से शारीरिक संबंध स्थापित करे और जो व्यक्ति अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है उसके लिए वैध नहीं कि क़ैदी (गर्भवती) स्त्री से वह शारीरिक संबंध स्थापित करे जब तक कि बच्चा पैदा न हो जाए। और जो व्यक्ति अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है उसके लिए वैध नहीं कि वह माल-ए-ग़नीमत (युद्ध में शत्रु के देश से लूटा हुआ माल) को बांटने से पहले बेच दे।
अतः सैद्धांतिक बात यही है कि इस्लाम कदापि इंसानों को लौंडियां और गुलाम बनाने के पक्ष में नहीं है इस्लाम के आरंभिक दौर में, उस समय की विशेष परिस्थितियों में विवशता स्वरूप इसकी अस्थाई अनुमति दी गई थी परंतु इस्लाम ने और आंहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लमने बड़ी हिकमत के साथ उनको भी आज़ाद करने का आदेश दिया और जब तक वह स्वयं आज़ादी प्राप्त नहीं कर लेते थे या उन्हें आज़ाद नहीं कर दिया जाता था, उनसे सदव्यवहार करने का ही आदेश दिया गया।
और जैसे ही यह विशेष परिस्थितियां समाप्त हो गईं और देशीय क़ानूनों ने नया रूप ले लिया जैसा कि अब प्रचलित है तो इसके साथ ही लौंडियां और गुलाम बनाने का औचित्य भी समाप्त हो गया। अब पवित्र क़ुरआन के अनुसार लौंडी या गुलाम रखना कदापि वैध नहीं है अपितु हकम और अदल (निर्णायक और न्यायवान) हज़रत मसीह मौऊद अलैहिस्सलाम ने अब वर्तमान परिस्थितियों में इसको हराम (अवैध) ठहराया है।
1 टिप्पणी
Tahir Ahmad Dani · फ़रवरी 4, 2021 पर 10:51 पूर्वाह्न
Very well explained and shared a great knowledge.